मस्तिष्क उद्वेग ग्रस्त न होने दें

March 1970

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अथर्व वेद में कहा गया है- “त्वं नो मेधे प्रथमा”- “सद्विचार ही संसार में सर्वश्रेष्ठ वस्तु है।”

विचारों की उत्पत्ति मस्तिष्क से होती है। जो स्तर मनुष्य के मस्तिष्क का होता है, उसी स्तर के विचार उत्पन्न होते हैं। मस्तिष्क यदि स्वस्थ तथा संतुलित है तो विचार भी सुन्दर और सृजनात्मक ही उत्पन्न होंगे और यदि मस्तिष्क अस्वस्थ अथवा असंतुलित है तो उसी के अनुसार विचारों का सृजन भी अस्वस्थ तथा असंतुलित ही होगा।

अस्वस्थ तथा असंतुलित विचार पागलपन का लक्षण है। साधन और साध्य, उचित और अनुचित, पाप और पुण्य, अच्छे और बुरे के बीच जो सही निर्णय न कर सके। जो कर्त्तव्य को छोड़कर असत्य का आश्रय ले वह मनुष्य किसी पागल से कम नहीं माना जा सकता। भले ही वह पागलखाने में बन्द उन लोगों की तरह न हो जो नंग-धड़ंग रोते-चिल्लाते और मार-पीट करते हैं। भय, क्रोध, लोभ, अहंकार आदि की अधिकता भी मनुष्य के पागलपन की निशानी है। जिस प्रकार पागल कहे जाने वाले लोग समाज अथवा अपने लिए हानिकारक होते हैं, वैसे ही इन मनोविकारों से ग्रस्त लोग भी अपने अथवा अपने समाज के लिए भयानक होते हैं।

भय-ग्रस्त व्यक्ति यदि शीघ्र किसी को हानि नहीं पहुँचाते तो अपना सर्वनाश कर लेते हैं। भीत-वृत्ति वाला व्यक्ति न तो समाज में बढ़कर कोई साहस दिखला सकता है और न किसी उन्नति की ओर बढ़ सकता है। वह अपनी इस दुर्बलता से त्रस्त होकर छिपता-लुकता रहता है और इस प्रकार अपनी उस आत्मा का हनन करता है, जो मानव-जीवन का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। क्रोधी व्यक्ति जब अपने इस विकार के चंगुल में फँस जाता है, तब मनुष्य से न जाने क्या बन जाता है। क्रोध के आवेग से उसकी मुद्रायें, भंगिमाएं, यहाँ तक कि उसकी मुखाकृति भी बुरी तरह विकृत हो जाती है क्रोधी व्यक्ति के हृदय में विकार की भयानक आग जलती रहती है, जिससे उन्मत्त होकर वह बड़े भयंकर अपराध तक कर डालता है। क्रोध में किसी को मार डालना, अपने को जला डालना, समाज को हानि पहुँचाना, अपनी शाँति भंग कर लेना अथवा भयानक होकर व्यवहार करना पागलपन के सिवाय और क्या कहा जा सकता है।

लोभ-ग्रस्त मनुष्य तो पिशाच के समान हो जाता है अपनी लोभ-वृत्ति की तुष्टि के लिए वह बुद्धि और विवेक से अंधा हो जाता है। असत्य, बेईमानी, छल-कपट, विश्वासघात आदि की सारी रीतियाँ, एक लोभी व्यक्ति के लिए सहज बातें होती हैं।

अहंकार एक ऐसी वृत्ति है, जिससे काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि सारे विकार उत्पन्न होते हैं। अहंकार का दोष ही मनुष्य को मनुष्य का शत्रु बना देता है। अनुशासनहीनता, धृष्टता और अविनय का व्यवहार करने में अहंकारी को गौरव अनुभव होता है। सम्माननीय को आदर न देना, पूजनीय की पूजा न करना और गुरुता का महत्व स्वीकार न करना अहंकारी व्यक्ति के स्वभाव का एक प्रधान अंश होता है।

अनियन्त्रित रीति से उठने वाले मनुष्य के सारे मनोविकार एक प्रकार के मानस रोग ही होते हैं। जिनकी उत्पत्ति का केन्द्र मनुष्य का मस्तिष्क ही होता है। यदि मनुष्य का मस्तिष्क सही दिशा में काम कर रहा हो तो अच्छे और स्वस्थ विचार ही उत्पन्न होंगे। गलत दिशा में सक्रिय मस्तिष्क से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह सुन्दर स्वस्थ और उत्पादक विचारों को जन्म देगा।

परमात्मा की ओर से मनुष्य को जो सम्पदायें मिली हैं, उनमें मस्तिष्क सबसे अधिक मूल्यवान् तथा महत्वपूर्ण सम्पदा है। उचित रूप से प्रयोग किए जाने पर यह बड़ी महान् सृजनात्मक शक्ति के रूप में सिद्ध होता है। अन्तर्द्वन्द्वों, दुविधाओं, सन्देहों, भयों तथा कुभावनाओं के प्रभाव से इसकी रक्षा की जानी चाहिए। शरीर, शक्ति और साधन की सुविधा होते हुए भी, यदि मनुष्य का मस्तिष्क विकृत हो जाए तो वह संसार का कोई काम करने योग्य नहीं रह जाता। मनुष्य की वास्तविक शक्ति उसका शरीर नहीं, मस्तिष्क ही होता है। किन्हीं कारणों से पागल हो जाने वाले लोगों को उनके अवयव और उनकी शक्ति में कोई कमी नहीं आती तब भी वे किसी काम के योग्य नहीं रहते। इसका एक ही कारण है। मस्तिष्क का विकृत हो जाना। एक मात्र मस्तिष्क के विकृत हो जाने से उनका स्वस्थ तथा सबल शरीर और उसकी शक्ति किसी काम की नहीं रहती।

मनुष्य के लिए शारीरिक स्वास्थ्य का कम महत्त्व नहीं है। किन्तु शारीरिक स्वास्थ्य से कहीं अधिक महत्त्व है, बौद्धिक स्वास्थ्य का। एक बार शरीर यदि रोगी, अस्वस्थ अथवा अशक्त हो जाए तो भी बुद्धि बल पर अपना काम किसी न किसी प्रकार चलाया जा सकता है। किन्तु यदि मस्तिष्क में विकार उत्पन्न हो जाए तो स्वस्थ और सबल शरीर भी बेकार हो जाता है। शरीर का उपयोग मस्तिष्क द्वारा ही होता है। एक अकेला मनुष्य मस्तिष्क के आधार पर बड़े-बड़े उद्योगों, नेतृत्वों तथा व्यवस्थाओं को एक स्थान पर बैठा-बैठा चलाता रहता है। जबकि शरीर के आधार पर वह एक छोटा-मोटा काम भी नहीं कर सकता।

निश्चय ही मस्तिष्क मनुष्य की महान शक्ति है। इसके आधार पर वह जो भी उन्नति करना चाहे कर सकता है। किन्तु सम्भव यह तभी होता है, जब मनुष्य का मस्तिष्क उच्च और सृजनात्मक विचारों का उत्पादन करे। कलुषित कुटिल और ध्वंसक विचारों की उत्पत्ति भी मस्तिष्क से ही होती है। चिन्ता, उद्वेग, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या-द्वेष आदि विकारों से युक्त विचार मनुष्य कल्याण सम्पादन नहीं कर सकते। यह वे ध्वंसात्मक विचार हैं, जिनसे मनुष्य का चरित्र गिर जाता है और वह ऐसे-ऐसे अकरणीय कार्य करने लगता है, जो उसके सर्वनाश के कारण बन जाते हैं। मनुष्य का वह मस्तिष्क ही सृजनात्मक शक्ति के रूप में सिद्ध होता है, जो आशा, उत्साह, पौरुष, धैर्य, त्याग, प्रेम, आनन्द आदि के कल्याणकारी विचार उत्पन्न करता है। इस प्रकार के उत्पादक विचार ही मनुष्य को नई प्रेरणा देकर नित्य नई दिशा, नए कर्तव्य और नूतन योजनाओं में संलग्न करते हैं।

ईश्वर की देन होने पर मस्तिष्क स्वयं सिद्ध विचार यन्त्र नहीं है। इसको कल्याणकारी विचार उत्पन्न करने योग्य बनाने के लिए प्रयत्न की आवश्यकता पड़ती है। विश्वासों, मान्यताओं, कामनाओं तथा संगति आदि का मानव मस्तिष्क पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। जिसके विचार ऊँचे, मान्यतायें वास्तविक, कामनायें माँगलिक और संगति साधुता पूर्ण होगी, उसका मस्तिष्क सदा स्वस्थ तथा सुफलदायक होगा। जिसके विश्वास संदिग्ध, मान्यतायें मूढ़, कामनायें कुत्सित और संगति निकृष्ट कोटि की होगी, उसका मस्तिष्क शंकाओं, सन्देहों, निराशाओं, कुकल्पनाओं और कुत्साओं से भरा रहेगा।

हम मनुष्य हैं-मनुष्य बनें और फिर उसके बाद देवत्व की ओर अग्रसर हों। इसके लिए हमारा प्रधान कर्तव्य यह है कि हम अपने विचार यन्त्र का निर्माण इस प्रकार से करें कि वह सदा-सर्वदा कल्याणकारी दिशा में ही सक्रिय रहे। कल्याण निवास परमार्थ के सिवाय और किसी में नहीं है। हम अपना निरीक्षण करें, अपने अन्दर झाँकें और खोज करें कि कहीं ऐसी प्रवृत्तियाँ तो हमारे भीतर नहीं छिपी पड़ी हैं, जो हमारे आचार-विचारों को दूसरों को दुख देने, सताने और शोषण करने के लिए प्रेरित करती हों।

हो सकता है कि अपरिष्कार के कारण हमारे भीतर इस प्रकार की प्रवृत्तियाँ हों। यदि हैं तो हमें सत्संग, अध्ययन और चिन्तन के द्वारा उन्हें निकाल बाहर करना चाहिए। असद्प्रवृत्तियों के मिल जाने पर हमारा मस्तिष्क साफ-सुथरा होकर सद्विचारों का सृजन करने लगेगा। सद्विचार ही हमारी बहुमूल्य शक्ति है। इसी के आधार पर हम बनते और बिगड़ते हैं।


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