दोनों सत्यनिष्ठ, दोनों श्रद्धालु, दोनों ही अपनी प्रजा को पुत्र की दृष्टि से देखते थे, दोनों ही भगवती सरस्वती के उपासक थे। इन सब समानताओं के साथ-साथ दोनों पड़ौसी भी थे, उनका नाम था, महाराज विदूरथ और सम्राट् सिन्धुराज।
समय की गति और राजनीति का परिवर्तन कब हो जाये जाना नहीं जा सकता। एक दिन सम्राट् सिन्धुराज ने विदूरथ पर आक्रमण कर दिया। विदूरथ का पराक्रम सिन्धुराज से कम नहीं था। वह भी अपनी सेनायें लेकर संग्राम में आ जुटे। कई दिन तक भयंकर युद्ध हुआ पर विजय सिन्धुराज की ही हुई। विदूरथ खेत रहे। सिन्धुराज ने अपने हाथों से ही उनका वध कर डाला।
सन्ध्या समय जब महाराज सिन्धुराज की सेनायें विजयोन्मत्त उल्लास के साथ अपनी राजधानी लौट रही थीं, तब स्वर्गीय महाराज विदूरथ की धर्मपत्नी ने युद्ध क्षेत्र में प्रवेश किया। युद्ध क्षेत्र कहाँ? अब तो वहाँ श्मशान दिखाई दे रहा था।
मृतक पति का शीश अपनी बाँई जानु पर रखकर महारानी लीला ने भगवती सरस्वती का आवाहन किया। भक्त का करुण स्वर सुनकर वीणापाणि प्रकट हुईं और बोलीं- “भद्रे! तुम्हारा दुःख देखकर मेरा हृदय करुणा से भर गया है, बोला तुम क्या चाहती हो?”
माँ! लीला ने अश्रुशीत नेत्रों से दो बूँद अश्रु भूमि पर टपकाते हुये कहा-”सिन्धुराज ने अन्यायपूर्वक आक्रमण किया, तुमने यह जानते हुए भी मेरे पति की रक्षा नहीं की, जबकि मेरे पतिदेव भी तुम्हारे अनन्य उपासक थे।”
इसमें मेरा क्या दोष पुत्री! यह सब भावनाओं का खेल है। जो जिस कामना से मेरी उपासना करता है, मैं वैसा ही फल देती हूँ- सिन्धुराज की इच्छा चक्रवर्ती बनने की थी सो वह आज चक्रवर्ती है और तुम्हारे पति की इच्छा थी, आत्मोद्धार सो उनका उद्धार हो गया, यह तुम देख ही रही हो?