आसक्ति का मन से परित्याग

March 1970

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नव दीक्षित शिष्य ने कहा- गुरुदेव! उपासना में मन नहीं लगता। भगवान की ओर चित्त दृढ़ नहीं होता।

गुरु ने गम्भीर दृष्टि डालकर शिष्य को देखा और जैसे कोई बात समझ में आ गई तो बोले- सच ही कहते हो वत्स! यहाँ ध्यान लगेगा भी नहीं। अन्यत्र चलकर साधना करेंगे, वहाँ ध्यान लगेगा। आज सायंकाल ही यहाँ से प्रस्थान करेंगे।

“सायंकाल! शिष्य कुछ चिन्तित स्वर में प्रश्न कर बैठा, जिसका गुरु ने कोई उत्तर न दिया। सूर्यास्त के साथ ही वे दोनों एक ओर चल पड़े। गुरु के हाथ में मात्र एक कमण्डल था, शिष्य के हाथ में थी एक झोली जिसे वह बहुत यत्नपूर्वक सम्भाले हुए चल रहा था।

मार्ग में एक कुआँ आया। शिष्य ने शौच की आशंका व्यक्त की। दोनों रुक गये। बहुत सावधानी से उसने झोला गुरु के पास रखा और शौच के लिए चल दिया। जाते जाते उसने कई बार झोले की ओर दृष्टि डाली।

‘गड़ाम!’ एक तीव्र प्रतिध्वनि भर सुनाई दी और झोले में पड़ी कोई वस्तु कुएं में जा समाई। शिष्य दौड़ा हुआ आया और चिन्तित स्वर में बोला- भगवन्! झोले में सोने की ईंट थी सो क्या हुई।

कुएं में चली गई, अब कहें तो आगे चलें, कहें तो फिर वहीं लौट चलें जहाँ से आये हैं, अब ध्यान न लगने की चिन्ता कहीं न रहेगी।

एक दीर्घ श्वास छोड़ते हुए शिष्य ने कहा- सच ही गुरुदेव! आसक्ति का मन से परित्याग किये बिना कोई भी ईश्वर में मन नहीं लगा सकता।


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