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March 1970

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वनेअपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणी गृहेऽपि पंचेन्द्रिय निग्रहस्तपः। अकृत्सिते कर्मणि यः प्रवर्तते निवृत्त रागस्य गृहं तपोवनम्॥

-पद्य पु0 सुष्टि सं0 19।295

रोगी पुरुषों को (जिनके हृदय में काम क्रोधादि हैं) वन में चले जाने पर भी दोष लगे रहते हैं घर में रहता हुआ, इन्द्रियों को बुरे विषयों से रोके हुए है तो वह मानो तप कर रहा है। खोटे कर्म (हिंसा, चोरी आदि) में प्रवृत्ति नहीं राग द्वेष से रहित है ऐसे पुरुष का घर ही तपोवन है।

(5) मन को बाह्य शक्तियों से रोकने के लिए प्रत्याहार करना पड़ता है मन वस्तुतः और कुछ नहीं अन्न का ही सूक्ष्म संस्कार है। अन्न ही रस, रक्त, माँस मज्जा अस्थि वीर्य आदि बनता हुआ मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि सूक्ष्म शक्तियों अन्तःकरण चतुष्प्रय के रूप में परिलक्षित होता है। यदि हम अपना आहार शुद्ध कर लें तो यह स्वाभाविक है कि अपना अन्तःकरण चतुष्टय भी शुद्ध हो जाये। खारी गन्ने का गुड़ खारी बनता है। उसी प्रकार दूषित अन्न का मन भी दूषित ही होगा। मन को शुद्ध और पवित्र रखने के लिए शुद्ध आहार आवश्यक है, यह सारी जानकारी प्रत्याहार के अंतर्गत आती है।

(6) धारणा कहते हैं मन को किसी एक स्थान या देश में स्थिर करने को। प्रकाश के बारे में कहा जाता है कि उनका एक कण एक सेकिंड में 186000 मील चलता है किन्तु मन की गति के बारे में वैज्ञानिक आज तक हजार कोशिशों के बावजूद नहीं जान पाये। मन के चलने की कक्षा का भी पता नहीं चल पाया पर वह एक अति समर्थ शक्ति है। यह सभी जान गये हैं। उससे कोई लाभ इसीलिये नहीं ले पाते क्योंकि वह बहुत अधिक चंचल है, स्थिर रहना उसका स्वभाव नहीं धारणा शक्ति के द्वारा मन को किसी स्थान पर रोककर विश्लेषण कराना उसी तरह सिखाते हैं जैसे मदारी बंदर को, सरकस वाला शेर का। धारणा से मन को एक स्थान पर रोकने का अभ्यास करते हैं।

(7) ध्यान भी धारणा की ही स्थिति है पर उसमें इन्द्रियों की चेष्टायें चाहे वह सूक्ष्म ही क्यों न हों समाप्त हो जाती हैं, इसलिए मन औरों के मन की पदार्थों की दूसरे किसी की भी हो रही बात-चीत आदि की जानकारी हजारों मील दूर बैठा होने पर भी ले लेने में समर्थ होने लगता है। दूर श्रवण,दूर दर्शन भविष्य ज्ञान आदि ध्यान की ही सिद्धियाँ हैं।

(8) और इस तरह जब ध्यान पूर्णतया निःचेष्ट होकर केवल मात्र अतीन्द्रिय सुख में ही स्थिर हो जाय वह अवस्था समाधि कहलाती है इसके लिए कोई अभ्यास नहीं करना पड़ता उपरोक्त सातों अवस्थाओं से पकी हुई स्थिति ही समाधि है उस अवस्था में पहुँचा हुआ योगी अपने शरीर में ही विराट ब्रह्म के दर्शन करता है। ‘सदाचार स्रोत्र’ में जगद्गुरु शंकराचार्य ने उसी का वर्णन करते हुए लिखा है-

देहो देवालयो प्रोक्तो देवो निरंजन।

अर्चितं सर्वभावेन स्वानुभूत्या विराजते।

अर्थात्- उचित प्रकार से योगाभ्यास और परमार्थ करने से इसी शरीर में ही निरंजन परमात्मा के दर्शन होते हैं।

यह योग संसार में हर किसी के लिए सुलभ है ऊंच नीच स्त्री पुरुष जाति पाँति का कोई भेद नहीं-

ब्राह्मण क्षत्रिय विशाँ शूद्राणाँ च पावनम् शाँतये कर्मणामन्य द्योगान्नास्ति विभुक्तये युवा वृद्धोअतिवृद्धो वा व्याधिष्टो दुर्बलाअपिवा अभ्यासात्सिद्धि माप्नोति सर्वं योगेष्वतंद्रितः।

-हठयोग प्रदीपिका 1-2

अर्थात्- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व स्त्री योग का अधिकार सब को है। युवक को या वृद्ध और जिनका शरीर बहुत ही जीर्ण हो गया हो जो बीमार, रोगी तथा इन्द्रियों की दुर्बलता से ग्रस्त हैं वे भी योग का अभ्यास कर सकते हैं। यह सभी को सिद्धि शाँति और मुक्ति देने वाला मार्ग है। इससे बड़ा अन्य कोई साधन आत्मिक प्रसन्नता की प्राप्ति के लिए संसार में है नहीं।

इन पंक्तियों में योग सम्बन्धी भ्रान्त धारणाओं के निवारण के साथ दो मानसिक और आठ प्रकार के उन साधनाओं की व्याख्या कर दी गई है, जिनके अभ्यास से जीवात्मा अपनी क्षमताओं का विकास करते हुए परमात्मा को प्राप्त कर सकती है। यही योग का उद्देश्य है।


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