अनासक्तः-सुखिनो भवन्ति

March 1970

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प्रसेनजित की पुत्री राजकुमारी विपुला राजोद्यान भ्रमण के लिये निकली थी। कौसुम्भ (केसरिया) परिधान के साथ हिरण्यमय चोली पहने राजकुमारी का सौंदर्य कुमुदिनी को भी हतप्रभ कर रहा था। मस्तक पर ओपश, कानों में कर्ण शोभन उन्नत वक्षस्थल पर पड़ी मणियों की माला और ग्रीवा पर जड़ित सुवर्ण निष्क सब मिलकर उनकी रूप-राशि में शतगुणित सौन्दर्य कार्य की वृद्धि कर रहे थे। राजकुमारी की सुन्दरता की चर्चा उन दिनों सारे संसार में थी। प्रत्येक युवक का हृदय उन्हें प्राप्त करने को बेचैन था।

प्रातःकाल की पीयूष वेला, भगवान् भुवन भास्कर प्राची में अपना रथ तेजी से दौड़ाते आ रहे थे। इधर आयुष्मान् नागसमाल जो आप राजोद्यान में ही ठहरे हुये थे, भगवती सरस्वती की वन्दना में निमग्न थे। वीणा की झंकार से राजोद्यान का पत्ता-पत्ता भाव-विभोर हो रहा था। फूलों को देखकर ऐसा लगता था कि ये भैरवी राग सुनने के लिये ही ध्यान-मग्न हो गये हों।

केहरिनाद सुनकर मंत्र-मुग्ध मृग जिस प्रकार मरण-विस्मरण कर बहेलिये के पास जा पहुँचते हैं, सप्त स्वरों में अवगुण्ठित विपुला भी मदमस्त गजराज की भाँति उधर ही चलती चली गई, जहाँ नागसमाल वीणा पर भाव-विभोर भैरवी का अलाप कर रहे थे।

विपुला स्फटिक शिला पर बैठकर उन अमृतमय स्वर लहरियों का पान करते-करते भाव-विमुग्ध हो उठी। प्राण विद्युत में चपलता आ गई, पाँव मचलने लगे, वीणा की झंकार के साथ पायलों का मधुर स्वर एकाकार होकर उद्यान के पक्षियों तक को मंत्र मुग्ध करने लगा।

न रुकती थी वीणा संगीत धारा प्रवाहित करने वाली नागसमाल की उँगलियाँ और न थमना चाहते थे राजकुमारी के थिरकते पाँव। सूर्यदेव एक बाँस ऊपर चढ़ आये। महाराज प्रसेनजित स्वयं भी महारानी मल्लिका के साथ वहाँ आ उपस्थित हुये। महापंडित नागसमाल जो अब तक भगवती भक्ति की गोद में सच्चिदानन्द की रसानुभूति में डूबे थे, महाराज को सामने देखते ही रुक गये। वीणा की तान टूटते ही पाँव की थिरकन भी उजड़ गई। भाव-विभोर विपुला ने आगे बढ़कर वक्षस्थल पर पड़ी माला उतारी और चीवर-धारी संन्यासी के गले में डाल दी।

स्थित प्रज्ञ की भाँति संन्यासी ने माला उतार फेंकी और प्रसेनजित की ओर देखते हुये कहा- “आर्य प्रवर कुशल मंगल तो हैं न?” सब कुशल है ब्राह्मण श्रेष्ठ। किन्तु आपने राजकुमारी द्वारा पहनाई गई माला क्यों उतार दी। आप जानते हैं कि भारतीय कुमारियाँ जिसे माला पहना देती हैं, वही उनका पति हो जाता है। फिर वे किसी और का वरण नहीं करतीं। आप यह भी अच्छी तरह जानते हैं। इसलिये अब तो आपको मेरी रूपवती कन्या के साथ विवाह करना ही पड़ेगा।

नागसमाल ने हँसकर कहा- “ महाराज संन्यासी और लोक-सेवक के लिये प्रजा ही पत्नी और प्रजा ही पति है। मैंने संसार की भलाई के लिये यह वेष धारण किया है, आप चाहते हैं, क्या मैं, उससे पथ-भ्रष्ट हो जाऊं।”

“सोच लो संन्यासी!”- महाराज के स्वर में कुछ तीखापन भी था और याचना का भाव भी- हम आपको आधा राज्य भी देंगे। राजकुमारी के भरण पोषण की कोई चिन्ता नहीं करनी पड़ेगी।

सौन्दर्य प्रलोभन और भय कुछ भी संन्यासी को विचलित नहीं कर सकते राजन्! यह कहकर नागसमाल ने वीणा उठाई और जिस मृगों के बीच से सिंह निकलता है, उसी तरह धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुये राजोद्यान से बाहर निकल गये।

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