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ध्यान की गहनता में अदृश्य स्पंदनों के साथ गुरुदेव की वाणी स्फुरित हो उठी-उठो जागो!! और देखो, जैसा बाह्य जगत है वैसा ही एक अंतर्जगत भी है। वत्स! यदि बाह्य जगत में आश्चर्य है, रहस्य है, विशालता है, सौंदर्य है, महान गौरव है तो अंतर्जगत में भी अजेय महानता और शक्ति अवर्णनीय आनंद तथा शांति और सत्य का अचल आधार है। हे वत्स! बाह्य जगत अंतर्जगत का आभास मात्र है और इस अंतर्जगत में तुम्हारा सत्यस्वरूप स्थित है। वहाँ तुम शाश्वतता में जीते हो, जबकि बाह्य जगत समय की सीमा में ही आबद्ध है। वहाँ अनंत और अपरिमेय आनंद है, जबकि बाह्य जगत में संवेदनाएँ, सुख तथा दुःख से जुड़ी हुई हैं। वहाँ भी वेदना है, किंतु अहो, कितनी आनंदमयी वेदना है। सत्य का पूर्णतः साक्षात्कार न कर पाने के विरह की अलौकिक वेदना और ऐसी वेदना विपुल आनंद का पथ है।”
आओ, साधक बनो! अपनी वृत्ति को इस अंतर्जगत की ओर प्रस्तुत करो। वत्स! मेरे प्रति उत्कट प्रेम के पंखों से उड़कर आओ। गुरु और शिष्य के संबंध से अधिक घनिष्ठ और भी कोई संबंध है क्या? हे वत्स, मौन! अनिवर्चनीयता!! यही प्रेम का लक्षण है। आंतरिक मौन की गहन गहराइयों में भगवान विराजमान हैं। युगसाधना के अनिवार्य कर्तव्य को करते हुए अपनी आन्तरिकता को मुझसे जोड़ो। स्वयं को मेरे अलौकिक अस्तित्व से एकाकार करो। जो मैं हूँ, तुम वही बनो। भगवत् पवित्रता के लिए भक्तों के हृदय विभिन्न मंदिर हैं, जहाँ सुगंधित धूप की तरह विचार ईश्वर की ओर उठते हैं। तुम जो कुछ भी करते हो, उसका आध्यात्मीकरण कर लो। रूप-अरूप सभी में ब्रह्म का, देवत्व का दर्शन करो। ईश्वर से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है।
अंतर्जगत की अंतरतम गुहा में, जिसमें व्यक्ति उत्कट गुरुप्रेम या कठोर साधना द्वारा प्रविष्ट होता है, वहाँ ईश्वर सर्वदा सन्निकट हैं। वे भौतिक अर्थ में निकट नहीं, किंतु आध्यात्मिक अर्थ में हमारी आत्मा के भी आत्मा के रूप में, वे हमारी आत्मा के सारतत्त्व हैं। स्वयं को साधना के लिए समर्पित कर दो। साधना का उज्ज्वलतम रूप गुरुप्रेम है। जितना तुम मेरे प्रेम में डूबते हो, उतना ही तुम मेरे निकट आते हो, क्योंकि मैं अन्तरम का निवासी हूँ। मैं आत्मा हूँ, विचार या रूप से अछूती आत्मा! मैं अभेद्य, अनश्वर आत्मा हूँ। मैं परमात्मा हूँ। ब्रह्म हूँ।
युगसन्धि-काल के इन अंतिम पलों में समूची मानवता तुम्हारी कठोरतम साधना से झरने वाले अमृतबिंदुओं की ओर प्यासे चातक की भाँति टकटकी लगाये है। साधना तो वह विरासत है, जो मैंने तुम्हें सौंपी है। इससे प्राप्त होने वाली अनंतशक्ति तुममें समा जाने के लिए आतुर है। परावाणी की यह गूँज ध्यान के उन्मीलन के बाद भी बनी रही। उनके स्वर अभी भी अन्तर्चेतना में झंकृत हो रहे थे-उठो जागो!! और साधक बनो!!!”