मंत्रविज्ञान से सिद्ध होती हैं सभी साधनाएँ

December 1998

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मुख को एक अग्निचक्र की उपाधि दी गयी है। इस चक्र की-मुख में विद्यमान ऊष्मा को जब पूरे पाचन संस्थान की अग्निप्रक्रिया से जोड़ा जाता है, तो यह एक बड़े विराट तंत्र का एक घटक सिद्ध होती है। यह समग्र संस्थान यज्ञाग्नि को एक दिव्यकुण्ड के समान हैं, जहाँ। मात्र पाचन कार्य ही नहीं होता, वाक्शक्ति का भी उद्भव यहाँ से होता है। यह अग्निचक्र स्थूल रूप में पाचन का, सूक्ष्मरूप में उच्चारण का और कारणरूप में चेतनात्मक दिव्यप्रवाह उत्पन्न करने की त्रिविध प्रक्रिया संपन्न करता है। जपयोग का-मंत्र विद्या का सारा विधान इसी चक्र की रहस्यमयी सामर्थ्य के साथ जुड़ा हुआ हैं। जहाँ विचारों की सामर्थ्य से मनोमय जगत में क्राँतिकारी परिवर्तन किए जा सकते हैं, वहाँ शब्द-सामर्थ्य से स्थूलजगत में, पदार्थ और आकाश स्थित पिण्डों में जबर्दस्त विस्फोट किया जा सकता है। ऋषिगण इन शब्दों-ऋचाओं के रूप में प्रार्थनाओं का ही विधिवत प्रयोग कर विश्वब्रह्माण्ड पर अपना आधिपत्य रखते थे। इसी से मंत्रविज्ञान के रहस्य को इतना महत्वपूर्ण माना जा सकता है।

मंत्रविज्ञान में शब्दों का चयन ध्वनि-विज्ञान के आधार पर किया जाता है। मंत्रस्रष्टाओं की दृष्टि में शब्दों का गुँथन ही अत्यधिक महत्वपूर्ण रहा हैं उनका सृजन यह ध्यान में रखते हुए किया जाता है कि उनका उच्चारण किस स्तर का शक्ति कम्पन उत्पन्न कर रहा है और उनका जपकर्ता पर, बहिर्वातावरण पर तथा अभीष्ट प्रयोजन के निमित्त प्रभाव पड़ रहा है या नहीं। मानसिक, वाचिक एवं उपाँशुजप में ध्वनियों को हलका-भारी किया जाता हैं यह सारी प्रक्रिया ध्वनिविज्ञान के सिद्धान्त पर उनके प्रभावों को दृष्टिगत रख निर्धारित की गयी है। वेदमंत्रों के अक्षरों के साथ-साथ उदात्त-अनुदात्त और स्वरित क्रम से उनका उच्चारण नीचे-ऊँचे तथा मध्यवर्ती उतार-चढ़ाव के साथ किया जाता है। सस्वर उच्चारण का यह विधान बनाया ही इसलिए गया है कि मंत्र-जप के द्वारा अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति कर सकने वाला शक्तिप्रवाह उत्पन्न हो सके।

मंत्र जप की प्रतिक्रिया भीतर होती है एवं बाहर भी। आग जहाँ लगती है, वहाँ उस स्थान पर भी गरमी पैदा कर देती है तथा वायुमण्डल में भी ऊष्मा बिखेरकर अपने प्रभाव क्षेत्र का परिचय देती है। जप का ध्वनिप्रवाह इतनी गर्मी पैदा करता है कि शरीर में जहाँ भी चक्र-उपत्यिकाओं के समूह हैं, वहाँ एक विशिष्ट स्तर की शक्ति का संचार होने लगता है। बाहर यह प्रभाव पड़ता है कि लगातार के संघात से मंत्रजप की विशिष्ट तरंगों से निखिल अंतरिक्ष में विशिष्ट तरंगों से निखिल अंतरिक्ष में विशिष्ट स्पन्दन पैदा होने लगते हैं जो प्राणीमात्र व वनस्पतिजगत सहित समस्त वातावरण को प्रभावित करते हैं। मंत्रों के क्रमबद्ध उच्चारण से शरीर के अन्तः-संस्थानों में विशिष्ट प्रकार की हलचलें उत्पन्न होकर अंदर की प्रसुप्ति को जाग्रति में बदलने की महत्वपूर्ण प्रक्रिया संपन्न होती है।

मंत्र-साधना अंतःऊर्जा का सुनियोजन भी करती है, साथ ही अतिरिक्त विश्व ऊर्जा की व्यवस्था जुटाकर हमारी जैविक व मनोवैज्ञानिक प्रकृति के रूपान्तरण भी करती है। यह कार्य मात्र ऊर्जा-तरंगों के विज्ञान के सुनियोजन द्वारा ही संभव हैं। वैज्ञानिक-मांत्रिक-तांत्रिक तीनों के लक्ष्य अलग-अलग होते हैं किन्तु ढूँढ़ते तीनों ही सुव्यवस्थित ऊर्जा तरंगों को ही हैं। वैज्ञानिक भौतिक जगत की ऊर्जा को प्रयुक्त करता है, तो योगी-मांत्रिक आध्यात्मिक जगत की ऊर्जा को। तांत्रिक सूक्ष्म भौतिक जगत ऊर्जा का प्रयोग करके अपना कार्य सिद्ध करता है। वैज्ञानिक ऊर्जा का दोहन कर संसाधनों की वृद्धि करते हैं, तो तांत्रिक उसका अपनी इच्छाओं-मनोकामनाओं की पूर्ति के निमित्त प्रयोग करते हैं। योगी का-मांत्रिक का लक्ष्य पवित्र होता है। हमारे ऋषिगणों ने विभिन्न ऊर्जा स्तरों का पता लगाकर सूक्ष्मजगत में अनुसंधान कर मंत्रों को देवताओं की प्रकृति के अनुरूप चुना। ध्वनि की शक्ति, बीज मंत्रों के कम्पन एवं संकल्प शक्ति के समुच्चय से मंत्रविज्ञान का सारा प्रारूप बनाया गया है।

शिवसूत्रवार्तिक के अनुसार मंत्र चित्तशक्ति का स्वभाव होते हैं-चिच्छक्तें स्वभावों यः स मंत्रः परिणीयते।” वस्तुतः ईश्वर को भावपूर्वक संबोधित निवेदन ही मंत्र है। मंत्रों के कई प्रकार हैं-एक प्रकार के मंत्र पुँमंत्र (जिनमें मंत्र का देवता पुरुष होता है), स्त्री मंत्र (उपास्य देवी होती है) तथा नपुंसक मंत्र (तंत्रशास्त्रों के ) कहे जाते हैं। दूसरे वर्गीकरण के अनुसार मंत्र-सिद्ध साध्य, सुसिद्ध या अरिमंत्र-चार प्रकार के हो सकते हैं। सिद्ध वह जो गुरु द्वारा स्वयं प्रमाणित कर दिया गया हो-साध्य खुद साधना करके सिद्ध किया गया हो, सुसिद्ध वह जो गुरु परम्परा के अंतर्गत प्राप्त हुआ हो तथा अरिमंत्र शत्रुनाशक प्रभाव वाले। एक वर्गीकरण के अनुसार मंत्र पिण्ड (एक अक्षर का), कर्त्तरि (दो अक्षर का), बीज (३ से १ वर्णों का ), अथवा माला मंत्र (बीस वर्णों का) इस रूपकार हो सकते हैं मंत्र अपनी प्रकृति के अनुसार एक और वर्गीकरण के अनुसार सात्विक, राजसिक, तामसिक भी होते हैं राजसिक जहाँ मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु होते हैं वहाँ तामसिक में तांत्रिकों के मंत्र आते हैं। पाँचवाँ वर्गीकरण साबर व डामर मंत्रों के रूप में वर्णित किया गया हैं साबर मंत्रों में न कोई मेल होता है, न अर्थ-जप का विधान। झाड़ने-फेंकने आदि के लिए ये गाँव-गाँव में प्रचलित हैं। डामर मंत्र प्रेत-पिशाच-यज्ञ-किन्नरों को साधने के लिए हैं। इनके बारे में रामायणकार ने लिखा हैं-

कलिविलोगी जगहत हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल निज सिरजा॥

अनमिल आखर अरथन जापु। प्रकट प्रभाव महेश प्रतापु॥

अर्थात् ‘कलि के प्रकोप को देखकर विकल हो भगवान शिव व पार्वती जी ने इन मंत्रों की रचना की। इनमें न कोई मेल है-अर्थ-न जप का विधान किन्तु महेश का प्रभाव प्रत्यक्ष है।’

मंत्र तो लाखों की संख्या में है। हमें तो अपना इष्ट-लक्ष्य प्राप्त करने के लिए महामंत्र रूप में गायत्री मंत्र युग के विश्वमित्र द्वारा दिया गया है। उसी की सात्विक उपासना यदि ध्यानपूर्वक कुछ आत्मशोधन की तपश्चर्या के साथ कर सकें, तो जप का प्रभाव निश्चित ही फलदायी परिणाम के रूप में मिलता है। मंत्र का जप उसकी भावना को अनुसार उसके देवता पद प्रगाढ़ विश्वास रखकर किया जाना चाहिए मंत्रजप फलदायी हो इसके लिए तीन बातें विशेष ध्यान देने योग्य हैं। पहली मंत्र की सामर्थ्य पर विश्वास। मंत्र में अतुलनीय सामर्थ्य हैं, हमें इससे सब कुछ मिल सकता हैं, यह है दृढ़ विश्वास। दूसरी जिस गुरु ने मंत्र दिया है, उसकी सत्ता पर पूरा पक्का भरोसा। उसने अनुभूत किया है, इसलिए हमें अपनी गुरुसत्ता पर विश्वास रख उसका जप करना चाहिए। गुरुपरम्परा से जुड़ा मंत्र सुसिद्ध मंत्र कहलाता है। मंत्रशोधन के ताड़न-उत्कीलन-शापविमोचन जैसे तरीके इसमें करने नहीं पड़ते। तीसरी महत्वपूर्ण बात हैं-मंत्र को देवता पर विश्वास। गायत्री मंत्र का देवता सविता है। वह देवता सर्वसमर्थ है-सृष्टि का स्वामी है एव हम जो भी अभ्यर्थना मंत्र के माध्यम से कर रहे हैं, वह हमारी अभ्यर्थना निश्चित ही हमें लक्ष्य के समीप ले जाएगी, यह भव निरंतर सशक्त करते रहना चाहिए। इन तीनों बातों का ध्यान रखने से मंत्र की सामर्थ्य असंख्य गुनी हो जाती है।

मंत्र के शब्दार्थ पर महार्थ–मंजरी में वक्तव्य आया है-मनन त्राण धर्माणों मंत्र” अर्थात् मनन और त्राण मंत्र के ये दो धर्म हैं। परमपूज्य गुरुदेव ने मंत्र ज पके विषय में लिखा है कि “मंत्र जप वही सार्थक है जिसमें मानसिक एकाग्रता एवं निष्ठा का समुचित समावेश हो। परिष्कृत व्यक्ति की परिमार्जित वाणी से जिसकी साधना की जाए, जिसकी रहस्यमय क्षमता पर गहन श्रद्धा हो तथा जिसका अनावश्यक विज्ञापन न करके उसे गोपनीय रखा जाए।” गोपनीय से यहाँ आशय है- मिलने वाले फलितार्थ कर उस प्रसंग को हलका न बनाना।

मंत्र विनियोग के पाँच अंग हैं- ऋषि, छंद, देवता, बीज, तत्व। इन पाँच मंत्र समग्र बनते हैं। ‘ऋषि ‘ से आशय है ऐसा व्यक्ति-मार्गदर्शक गुरु जिसने उस मंत्र में पारंगतता प्राप्त कर ली हो। ‘छंद’ का अर्थ हैं जय, मंत्र की संरचना और उच्चारण शैली। ध्वनि तरंगों के कम्पन इसी लय पर निर्भर है। ‘देवता’ से अर्थ है- चेतना के महासागर में से अपने लिए अभीष्ट शक्तिप्रवाह का चयन। निखिल ब्रह्माण्ड में प्रवाहित शक्ति तरंगों में से सुयोग्य का निर्धारण। ‘बीज’ से अर्थ है उद्गम। किस मंत्र के देवता का शरीर में स्थान कहाँ है, उसे किस विधि से प्रभावित करें, यह जानकारी बीज-विज्ञान से मिलती है। इसे किसी मंत्र में शक्ति भरने वाला सूक्ष्म इंजेक्शन भी कह सकते हैं। ‘तत्व’ जो अंतिम मिलती है। प्रामाण्य-फलप्रद-बहुलीकरण एवं आयत क्षमता के रूप में ये प्रवृत्तियाँ समझायी गयी है।

मंत्रविज्ञान को मर्म को यदि समझा जा सके एवं उपर्युक्त विवेचन के अनुसार मंत्रजप भावपूर्वक नियत निर्धारण के अनुरूप किया जा सके, तो निश्चित ही इसके सत्परिणाम मिलकर रहते हैं। जप में चार तत्व प्रधान होते हैं-ध्वनि संचम, उपकरण एवं विश्वास। इसी प्रकार इसका फल मिलने को पीछे भी चार महत्वपूर्ण आधार हैं-श्रद्धा विश्वास, नियमितता एवं आचार-विचार मंत्रजप में उच्चारण तो मात्र मंत्र का कलेवर है-प्राण है उसकी भावनाएँ। हृदय को शिव, प्राण एवं अग्नि की तथा जिह्वा को शक्ति, रयि एवं सोम की उपाधि दी गयी है। भावपूर्वक जप करने से शब्दशक्ति के स्फोट के माध्यम से निश्चित ही फलदायी परिणाम उपलब्ध होते हैं। साइमेटिक्स के सिद्धान्त के अनुसार मंत्र साधना के द्वारा देवता के प्रति प्रगाढ़ विश्वास व अर्थ के ध्यान को साथ जप द्वारा ब्रह्माण्ड में एक अनूठा वाद्यमण्डल-इलेक्ट्रॉनिक नाद उत्पन्न होता है। गायत्री मंत्र पर यह सिद्धान्त ऐसा सटीक बैठता है कि इसके परिणाम कभी असंदिग्ध नहीं रहते। साधना महासमर भावविह्वल होकर किये गये सुनिश्चित विधि- विधानपूर्वक गायत्री जप-अनुष्ठान द्वारा जीता जा सकता है एवं भावी विषम संभावनाओं को निरस्त किया जा सकता हैं, यह विश्वास रखकर हर साधक को बिना प्रभाव के इसमें जुटे रहना ही चाहिए।


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