साधना का तत्त्वदर्शन, सात सोपानों में वर्णित

December 1998

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साधना की उपलब्धियों की चर्चा किसी को भी चमत्कृत कर देने के लिए पर्याप्त हैं, परन्तु इनका अर्जन उन्हीं के लिए सम्भव है, जो इसके तत्त्वदर्शन को आत्मसात् कर चुके हैं। इस तत्त्वदर्शन के दो आयाम हैं- जिन्हें आस्थापक्ष और क्रियापक्ष का नाम दिया जा सकता है। आस्थापक्ष में विचारों और भावनाओं को प्रभावित करने वाले समस्त ज्ञान-विस्तार को सम्मिलित किया गया है। वेद, शास्त्र, उपनिषद्, दर्शन आदि इसी प्रयोजन के लिए रचे गए हैं। स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन-मनन कथा-प्रवचनों का महात्म्य इसी आधार पर बताया गया है ताकि उस प्रक्रिया के सहारे मानवी चिन्तन का परिष्कार होता रहे और विकृत मनोवृत्तियों से छुटकारा मिलता रहे। इससे विवेकयुक्त दूरदर्शिता का पथ प्रशस्त होता है। प्रज्ञा, भूमा, ऋतम्भरा-इसी परिष्कृत चिन्तन का नाम है।” ऋतं ज्ञानेन मुक्ति” “न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमही विद्यते” जैसी उक्तियों में सद्ज्ञान को साधना का प्राण माना गया है। वेदान्त दर्शन को तो विशुद्ध रूप से ज्ञान-साधना ही कहा जा सकता है।

सद्ज्ञान-संवर्द्धन की इस बहुमुखी प्रक्रिया को साधना विज्ञान में योग’ नाम दिया गया है। ‘योग’ का अर्थ है- जोड़ा देना। किसी किससे जोड़ देना- आत्मा को परमात्मा से जाड़ देना। यह स्मरण रखने योग्य तथ्य है कि परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं, वरन् सर्वव्यापी अलौकिक चेतना है। उत्कृष्ट आदर्शवादी आस्थाओं, आकांक्षाओं के रूप में उसकी अनुभूति, अपने विचार संस्थान में की जा सकती है। आत्मसाक्षात्कार का, ब्रह्म साक्षात्कार का अर्थ यही है कि अपनी आस्थाएँ परिष्कृत स्तर की देवोपम दिखने लगें। संकीर्ण स्वार्थपरता, अहंकारिता, विलासिता एवं अनुदारता जैसी दुष्प्रवृत्तियों के भवबन्धनों से छुटकारा मिल जाए। परिष्कृत विचारों एवं भावनाओं की सुखद प्रक्रिया को देखते हुए इसी को ‘स्वर्ग’ कहा गया है। ललक-लिप्सा निकृष्टता एवं कुसंस्कारी आदतों के भवबन्धनों को ताड़ फेंकने की यही स्थिति ‘मुक्ति’ कहलाती है। स्वर्ग किसी ग्रह-नक्षत्र पर बसा हुआ गाँव नहीं है और न मुक्ति से किसी लोक विशेष में जाकर भगवान जी से सेवा कराने का मौका मिलता है। तथ्य इतना भर है कि परिष्कृत दृष्टिकोण अपनाने वाला स्वर्गीय सुख-सन्तोष पाता है और आत्मीयता के विस्तार के साथ संबद्ध सेवा-उदारता की नीति अपनाने वाले को लोभ-मोह की जकड़न से छुटकारा मिल जाता है। विवेकवान-साधना-परायण लोग लोकप्रवाह की परवाह न करके स्वतन्त्र चिन्तन की नीति अपनाते हैं और जीवनमुक्ति का आनन्द लेते है।

योग का उद्देश्य चित्तवृत्तियों का परिशोधन है। महर्षि पतंजलि ने प्रकारान्तर से योग की यही परिभाषा की है। पशु-प्रवृत्तियों को देव आस्थाओं में बदल देने वाले मानसिक उपचार का नाम योग है। यह विशुद्ध रूप से चिन्तन-परक होता है। योगीजन इन्हीं प्रयत्नों में तल्लीन रहते हैं और अपने संग्रहित कुसंस्कारों को उच्चस्तरीय आस्थाओं में परिणत करने के लिए भावनात्मक पुरुषार्थ करते रहते हैं। निष्कृष्टता जितने अंशों में उत्कृष्टता के साथ जुड़ जाती है, उतने ही अंशों में आत्मा को परमात्मा की प्राप्ति हो चली, ऐसे माना जाता है।

साधना-विज्ञान का दूसरा पक्ष क्रियापरक है- इसे ‘तप’ कहते हैं। आत्मकल्याण इसका एक चरण है और लोककल्याण दूसरा। इन दोनों के लिए जो कोशिशें करनी पड़ती हैं, उनसे अभ्यस्त पशु-प्रवृत्तियों को चोट पहुँचती है। स्वार्थ-साधनों में कभी आती है और परमार्थ प्रयोजनों की सेवा-साधना करते हुए कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। स्वार्थ-सुविधा में कटौती करके ही परमार्थ की दिशा में कुछ किया जा सकता है। मोटेतौर पर यह घाटे का सौदा है। अभ्यस्त प्रवृत्तियों के विपरीत पड़ने के कारण इसमें कष्ट भी अनुभव होता है। इन कठिनाइयों को पार करने के लिए शरीर की तितिक्षा का, मन की सादगी का तथा इस मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का सामना करने योग्य आन्तरिक साहसिकता का सहारा लेना पड़ता है। अपने को इस ढाँचे में ढालने के लिए जितने भी प्रयास किए जाते हैं, वे सब इसी तप की श्रेणी में गिने जाते है।

इन दिनों सत्य की अनदेखी किए जाने के कारण आसन, प्राणायाम, नेति, धोति, बन्धु, मुद्रा आदि व्यायामों को ही योग की संज्ञा दी जाने लगी है। इसी तरह व्रत-स्नान मौन आदि कष्टसाध्य अभ्यासों को ही तप मानकर सन्तोष कर लिया जाता है। इस प्रचलन में यह सर्वथा भुला दिया गया है कि साधनाएँ हमेशा ही किसी साध्य की प्राप्ति के लिए ही जाती है। उपासनात्मक कर्मकाण्डों का उद्देश्य भावनात्मक स्तर को प्रयत्नपूर्वक ऊँचा उठाना है यदि आस्थाओं का स्तर न बदला जा सके और मात्र चित्र-विचित्र शारीरिक क्रियाओं को करते रहा जाय तो इतने भर का प्रभाव केवल शरीर तक ही सीमित रह जाएगा। चेतना का परिष्कार सम्भव न बन पड़ेगा। जो साधना का मूलभूत उद्देश्य है। साधना के तत्त्वदर्शन को और भी अधिक बारीकी से समझना हो तो इसे चार बिन्दुओं में स्पष्ट करना पड़ेगा- (१) आत्मज्ञान (२) ब्रह्मज्ञान (३) तत्त्वज्ञान, (४) सद्ज्ञान। आत्मज्ञान वह है जिस में जीव का, जीवन का, अन्तः चेतना के उत्थान-पतन का निरूपण किया जाता है और आत्मा-चिन्तन आत्मसुधार, आत्मनिर्माण एवं आत्मविकास का सूक्ष्मदृष्टि से प्रकाश-युक्त मार्गदर्शन किया जाता है। दूसरे शब्दों में, इसे जीवात्मा की विवेचना कह सकते हैं।

ब्रह्मज्ञान वह है- जिसमें परमात्मा की सत्ता की व्याख्या करते हुए अचिंत्य एवं नेति-नेति कहकर बौद्धिक असमर्थता प्रकट कर दी गयी है, परन्तु मनुष्य जीवन के साथ परमात्मसत्ता का जितना तालमेल बैठता है, उस पर कई दृष्टियों से प्रकाश डाला जाता है। आत्मा के साथ परमात्मा के मिलन में निस्सन्देह लोहे और पारस के संपर्क से सोना बन जाने वाली किम्वदन्ती सार्थक देखी जा सकती है। अमृत और कल्पवृक्ष के लाभ-माहात्म्य का जो अलंकारिक वर्णन मिलता है उसे परमात्मा के सान्निध्य से मिलने वाली भौतिक तथा आत्मिक उपलब्धियों को देखते हुए अक्षरशः सही माना जा सकता है। सिद्धियों का, चमत्कारी अलौकिकताओं का जो विवरण साधना ग्रन्थों में मिलता है, उसे परमात्मसत्ता के साथ जीवात्मा के सान्निध्य-संपर्क की सुनिश्चित प्रतिक्रिया कहा जा सकता है। ईश्वरप्राप्ति को जीवन-लक्ष्य की पूर्ति, पूर्णता में परिणति, परमपुरुषार्थ, परमलाभ आदि नामों से पुकारा जाता है। आत्मा को परमात्मा की उच्चस्थिति में विकसित कर लेने वाले व्यक्ति, निस्संदेह नर रूप में नारायण कहे जा सकते है। उनकी विशेषताओं-विभूतियों का पारावार नहीं रहता।

तत्त्वदर्शन का तीसरा पक्ष है- तत्त्वज्ञान। इसे विचार-विज्ञान भी कह सकते हैं। विचारों की प्रचण्ड शक्ति और उनकी प्रतिक्रियाओं से बहुत कम लोग परिचित होते हैं। तथ्य यह है कि हाड़-माँस के पुतले में जितना चेतन-चमत्कार देखा जाता है, वह सब विचार वैभव का ही परिणाम है। व्यक्तित्व की उत्कृष्टता-निकृष्टता मनुष्य की प्रतिभा, वरिष्ठता और सर्वतोमुखी दुर्बलता का मूल्याँकन किसी के विचारों का स्तर देखकर ही किया जा सकता है। सफलता और असफलता के कारणों में साधनों का- परिस्थितियों का नहीं, संकल्पशक्ति और व्यवस्था बुद्धि का ही प्रमुख महत्त्व रहता है। जो लोग गलत ढंग से सोचते हैं और गलत विचारों को अपनाते हैं, उनके जीवन का स्वरूप और भविष्य दोनों ही अन्धकार से ढक जाते हैं। मस्तिष्क को जिस तरह सोचने की आदत है, उसका गुण-दोष के आधार पर विवेचन करते हुए मात्र औचित्य को अपनाने की साहसिकता को मनस्विता कहते हैं। मनस्वी लोग ही जीवन का सच्चा आनन्द लेते हैं और दूसरों के श्रद्धाभाजन बनते हैं।

चौथा पक्ष है-सद्ज्ञान सद्ज्ञान का तात्पर्य है- नीतिशास्त्र, व्यवहार-कौशल शिष्टाचार, सदाचार, कर्त्तव्य-पालन और उत्तरदायित्वों का निर्वाह। धर्म इसी को कहते हैं। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, उसे एकाकी नहीं, सहजीवन अपनाना पड़ता है। सहकारिता के बिना, पारस्परिक आदान-प्रदान के बिना न स्थिरता रह सकती है, न प्रगति सम्भव हो सकती है। हमें परस्पर मिल-जुलकर ही रहना होता है और सामाजिकता के नियमों का पालन करते हुए, नागरिक उत्तरदायित्वों को निबाहते हुए सज्जनता का जीवन जीना पड़ता है। इस क्षेत्र में जहाँ जितनी उच्छृंखलता बरती जा रही होगी, वहाँ उतनी ही अशान्ति फैलेगी और विपन्नता उत्पन्न होगी। अपने आपके प्रति, स्वजन-सम्बन्धियों के प्रति, सर्वसाधारण के प्रति हमारी रीति-नीति एवं व्यवहार-पद्धति क्या हो? उसकी सही और शालीनतायुक्त गतिविधि अपनाने को लोकव्यवहार एवं सद्ज्ञान कहा जाता है।

साधना का तत्त्वदर्शन इन चारों ज्ञान प्रक्रियाओं के परिष्कार एवं समन्वय के आधार पर विनिर्मित होता है। इसके पारंगतों को मनीषी, ऋषि, तत्त्वज्ञानी ब्रह्मवेत्ता, द्रष्टा, आत्मदर्शी आदि नामों से सम्बोधित किया जाता है। वे अपने में परमात्मा का दर्शन करते हैं। इन चारों के समन्वयात्मक स्वरूप की अभिव्यक्ति साधना के क्रियात्मक पक्ष से होती है, जिसे ‘तप’ कहते हैं। इसे तीन बिन्दुओं में स्पष्ट किया जा सकता है- (१) आत्म-निग्रह के लिए की गयी तितिक्षा (२) परमार्थ प्रयोजनों के लिए त्याग और बलिदान, (३) साधनात्मक कर्मकाण्डों के माध्यम से आत्मशिक्षण की प्रसुप्त शक्तियों का जागरण।

आत्मनिग्रह में अस्वाद व्रत, उपवास, ब्रह्मचर्य, मौन, सर्दी-गर्मी के ऋतु-प्रभाव का सहन, सादगी, मितव्ययिता दिनचर्या का निर्धारण और उसका कड़ाई से पालन, इस तरह शरीर और मन की पुरानी अवांछनीय आदतों पर रोकथाम के लिए बरती हुई कड़ाई तितिक्षा वर्ग में आती है। सेवा-सहायता सामूहिक सत्कर्मों में सहयोग, लोक-कल्याण की प्रवृत्तियों में समय, श्रम एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाना। अनीति के विरुद्ध संघर्ष करने में लगने वाली चोटों को सहने के लिए साहस एकत्र करना, लोकप्रवाह से विपरीत चलने के कारण मिलने वाले अपमान, विरोध एवं प्रहार का धैर्यपूर्वक सामना करना। परमार्थ प्रयोजनों में इस प्रकार की कष्ट-सहिष्णुता तप-साधना का दूसरा चरण है।

तीसरे तप वर्ग में विभिन्न प्रकार के साधनात्मक कर्मकाण्ड आते हैं। जप-ध्यान प्राणायाम, अनुष्ठान, पुरुष चरण आदि अनेकों सम्प्रदायों में प्रचलित अनेकों विधि-विधान इसी उपासना वर्ग में आते हैं।

साधनात्मक तत्त्वदर्शन के उपर्युक्त चार और तीन कुल मिलाकर सात सोपान हैं। विभिन्न अलंकारों के साथ इन्हीं सात तथ्यों को मनीषियों ने विभिन्न प्रतिपादनों के साथ प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है। साधना के तत्त्वदर्शन को समझने के लिए अनेकानेक शास्त्र पढ़ने को और विद्वानों के प्रवचन-प्रतिपादन सुनने को मिलते हैं। उनमें इन सात महातथ्यों के अलावा और कुछ नहीं है। यदि इस तत्त्वदर्शन को सही रीति से समझा, अपनाया और आत्मसात् किया जा सके तो साधनात्मक उपलब्धियों का अर्जन अपने जीवन का अनिवार्य प्रसंग बने बिना नहीं रहेगा।


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