सद्गुरु की महिमा अनन्त, अनन्त दिखावणहार

December 1998

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पीदे लागा जाई था, लोक वेद के साथि। आगें थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दिया हाथि॥

दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट। पूरा किया बिसा हुणाँ, बहुरि न आवाँ हट्ट॥

अपनी विशिष्ट शैली एवं उलटबाँसी के लिए प्रख्यात संत कबीर ने सतगुरु के मिलने से हुए चमत्कारी कायाकल्प की चर्चा करते हुए इस प्रसंग में कहा है कि गुरु ने ही कभी न घटने वाली अक्षय बाती (अघट्ट) शरीर रूपी दीपक में आयु रूपी तेल भरकर प्रकट की। सतगुरु की महिमा से संत कबीर का साहित्य पूर्णतः मण्उित है एवं जहाँ देखें, वहाँ समर्पण की महिमा ही दृष्टिगोचर होती है वे लिखते है-

सतगुरु के परताप तें मिटि गयौं सब दुख दंद। कह कबीर दुबिधा मिटी, गुय मिलिया रामानंद॥

दीन-दुनिया से, कराल द्वन्द्व से, संशय और दुविधा से उन्हें छुड़ा सकने वाले युगगुरु रामानन्द ही थे। कबीरदास ने सद्गुरु को पाकर अपने को बड़भागी समझा। स्वयं को एक आदर्श शिष्य बनाया एवं जीवनीर के पुरुषार्थ से ऐसे अध्यात्म का प्रतिपादन कर गए, जो आज भी व्यावहारिक है।

साधना की सफलता में सद्गुरु का महत्व सर्वोपरि बताया गया है। अंतःप्रकृति का, चक्रों-उपत्यिकाओं इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना आदि नाड़ियों का, उनके परिष्कार का ज्ञान भी गुरुकृपा से ही मिलता है। गुरु इनसान रूप में वस्तुतः सच्चिदानन्द घनरूपी परमात्मा का दर्शन कराने वाली झरोखे रूपी सत्ता हैं उसी के माध्यम से हमें अनंत का विस्तार दिखाई पड़ता हैं गुरु के बिना अनुभवों में समग्रता नहीं आ पाती। साधना एक प्रकार से शरीर रूपी मकान में वायरिंग के समान हैं उसका स्विच ऑन करने का काम गुरु ही करता है। भगवान तो निराकार चैतन्यमयी सत्ता है। उसकी साकार प्रतिमा कोई हो सकती है तो वह गुरु ही है। गुरु भगवान का सीधा निर्धारण है-उसी के द्वारा की गयी नियुक्ति है। वह सर्वेसर्वा है। उसके खिलाफ कोई अपील नहीं, सुनवाई नहीं। गुरु वस्तुतः एक जिन्दा शास्त्र है। यदि उसे पढ़ा जा सके, उस पर न्योछावर हुआ जा सके तो दुनिया का सारा वैभव आध्यात्मिक शक्ति का भण्डार हस्तगत किया जा सकता है।

जवाला का बेटा सत्यकाम गौतम ऋषि के पास पहुँचा। अपने बारे में सब कुछ सत्य बताकर उसने गुरु की कृपा पायी एवं ब्रह्मज्ञान सीखने की इच्छा प्रकट की तो उनने एक ही बात कहीं कि गुरु की आज्ञा की अक्षरशः पालन करोगे तो निश्चित ही ब्रह्म की प्राप्ति होगी। ऋषिवर ने १० दुर्बल गायें उन्हें दीं। कहा-जब तक १००० पुष्ट गायें, एवं उनकी संततियाँ न हों, वे न लौटें। गौमाता को जंगल में चराते-चराते एवं प्रकृति का ज्ञान प्राप्त कर, गोसेवा के बल पर इसे परमात्मतत्त्व का बोध हो गया। जब लौटा तो उसके साथ १००० से अधिक स्वस्थ गाये थी। चेहरे पर ब्रह्मतेज था। गुरु की आज्ञा का पालन करने से जो कुछ उसने पाया था- वह स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था।

गुरु-शिष्य परम्परा भारतीय संस्कृति के स्वर्णिम अध्याय का एक गौरवान्वित करने वाला पक्ष है गुरु गोविन्दपाद के शिष्य आद्यशंकर, जनार्दन पंत के शिष्य एकनाथ, निवृत्तिनाथ के शिष्य ज्ञानेश्वर, गहनीनाथ के शिष्य निवृत्तिनाथ मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य गोरखनाथ, रामानंद के शिष्य कबीर, रैदास की शिष्या मीरा, भारती तीर्थ के शिष्य चैतन्य महाप्रभु, श्री अरविंद की शिष्या श्री माँ, रामकृष्ण परमहंस के शिष्य श्री विवेकानन्द, स्वामी विवेकानन्द के शिष्य सदानन्द एवं भगिनी निवेदिता, स्वामी विरजानन्द के शिष्य महर्षि दयानन्द, बुद्ध के शिष्य आनन्द, चाणक्य के शिष्य कनहपा, व्यास जी के शिष्य सूत-शौनिक आदि इस परम्परा के कुछ उदाहरणों में से है।

परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने अपना समर्पण अपने गुरु सर्वेश्वरानन्द जी को किया, जो हिमालय में सूक्ष्मशरीरधारी कि सत्ता के रूप में विद्यमान है एवं इस समर्पण ने उन्हें इस युग का द्रष्टा-नवयुग का अधिष्ठाता, गायत्री मंत्र के माध्यम से जन-जन तक संस्कार चेतना का संचार करने वाला युग-ऋषि ही नहीं महाकाल का प्रतिनिधि, प्रज्ञावतार की सत्ता के रूप में समर्पित कर दिया। परमपूज्य गुरुदेव ने १९६९ की दिसम्बर माह की अखण्ड ज्योति में लिखा है-हम सदा ही अपने मार्गदर्शक की कठपुतली रहे है। उन्हीं के इशारे पर चलते रहे है। सो शेष जीवन की रूपरेखा बनाने तथा निभाने में भी हमारा कोई वश नहीं है। जो उनने अब तक कहा व कराया है, सो हम करते रहे है। बिना अपनी व्यक्तिगत इच्छा का समावेश किए सदा करते रहेंगे। इसी प्रकार नवम्बर १९७० की अखण्ड ज्योति में वे लिखते है-जीवन के १५ से ६० वर्ष तक किसी महाशक्ति के इशारे पर हम कठपुतली की तरह ही चले है। अधिक से अधिक हमें एक निष्ठावान् सैनिक कहा जा सकता है, जिसने लम्बी जिन्दगी के असंख्य क्षणों में से प्रत्येक को अपने सूत्र-संचालक की इच्छानुसार ही बिताया। इसी लेख में वे लिखते है-जब शरीर और मन बेच दिया तो खरीदने वालों की आज्ञा पर चलने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं।

यह समर्पण एवं गुरु की इच्छा में अपनी हर इच्छा का विसर्जन जैसे-जैसे प्रगाढ़ होता चला जाता है, साधना उच्चतर आयामों पर पहुँचने लगती है। स्वामी विवेकानन्द ने सच्चे शिष्य के लिए गुरु की कृपा चार शर्तों पर खरा उतरने पर ही बरसने की बात कही है। ये चार शर्तें हैं- (१) सद् और असद् का विवेक (२) ईश्वरप्राप्ति की तीव्रतम इच्छा (३) इस लोक और परलोक के सभी कामनाओं का त्याग (४) गुरु के प्रति अटूट निष्ठा। इसमें चारों ही महत्वपूर्ण है, किंतु यहाँ साधना समर में सफल होने के लिए शिष्यत्त्व की चौथी पहचान ‘गुरु के प्रति अटूट निष्ठा’ प्रकरण पर थोड़ा प्रकाश डालना चाहेंगे।

निष्ठा का अर्थ है-अक्षरशः पालन, गुरु आज्ञा के अनुसार चलना। निष्ठा अर्थात् ओर कोई गति। जो गुरु का निर्देश है- उसी के अनुसार जीवन की रीति-नीति का ढल जाना। गुरु वस्तुतः शरीर नहीं होता, वह तो चैतन्य ब्रह्मरूप हैं उसके माध्यम से जीवोद्धार का संकल्प देकर भगवान स्वयं चिन्मय शरीर धारण कर आया है, यह हमें मानना पड़ेगा। कोई व्यक्ति सिद्ध-महात्मा हो सकता है, पर हमारे गुरु हमारे लिए ही सद्गुरु हैं उन्हें शरीर रहने-न रहने पर भी मानना, उनकी ही आज्ञा का पालन करना सच्चे शिष्य के लिए पालन करने योग्य धर्म है। जो ऐसा करता है, वह अपने इन्हीं शाश्वत संबंधों के कारण गुरु की अहैतुकी कृपा का अधिकारी बन जाता है। एक सदी पूर्व एक विलक्षण योगी हुए है-स्वामी भास्करानन्द जी। कानपुर के पास के ग्रामीण अंचल के रहने वाले अपने हिमालयवासी संत गुरु का निर्देश पाकर जीवनभर बनारस में बैठकर साधना करते रहे। गुरु ने कहा-कहीं जाना मत। सभी को सत्प्रेरणा देते रहना। इस लोक -परलोक का सारा वैभव तुम्हें मिल जाएगा। इतिहास साक्षी है कि उनकी तपश्चर्या की ख्याति बिना बनारस से उनके बाहर निकलें विश्वभर में सुगंधि की तरह फैल गयीं। प्रिंस ऑफ वेल्स, रूस के जार भर के राजा-रजवाड़े उनकी चरणरज लेने उनके पास आए। ऐसी सिद्धि मात्र गुरु आज्ञा के निर्वाह के कारण उन्हें मिली।

गुरु के प्रति निष्ठा हमारी प्रेमभावनाओं का उन पर आरोपण हैं भावनाओं व तर्क का कहीं कोई संबंध है नहीं। निष्ठा के माध्यम से गुरुरूपी ईश्वर पर हमारी प्रेमभक्ति टपकती है। यदि गुरु के प्रति समर्पण समग्र हो, सशर्त न होकर सकाम न होकर निष्काम भाव से हो, तो उसी परिमाण में सिद्धि भी मिलती चली जाती है। साधना के भवबंधन पाकर पूर्णता के लक्ष्य तक की यात्रा सरल होती चली जाती है। गुरु-निष्ठा का एक जीता -जागता उदाहरण सिख धर्म की गुरु-शिष्यपरम्परा है, जिसमें सद्गुरु को उनके निर्देशों को गुरुग्रंथ साहिब को ही सब कुछ मानकर उनके प्रति सारा समर्पण किया जाता है।

शास्त्रों ने गुरु को गोविन्द से भी बढ़कर ब्रह्मा-विष्णु -महेश की उपमा दी है। गुरु का आश्रय पाकर एक अदना-सा बिना किसी पहचान वाला व्यक्ति भी अनन्त वैभव को प्राप्त कर जाता हैं बेलें ऊपर उठने के लिए किसी पेड़ का सहारा लेती है। लिपटकर वे शिखर तक पहुँच जाती है एवं सूर्य की किरणों से साक्षात्कार करती हैं साधक को भी मार्गदर्शक का अवलम्बन मिल सके, वह अपनी श्रद्धा उस मार्गदर्शन पर टिका सके, उसे निभा सके तो वह आध्यात्मिक विभूतियों का स्वामी बन सकता है समर्थ सत्ता के साथ जुड़ जाने पर सामान्य भी असामान्य बन जाता है समर्थता के साथ जुड़ने के बाद असमर्थता भी समर्थता में बदल जाती है, फिर लोक में कोई भी कार्य उसके लिए असंभव नहीं होता। गंदे नाले का पानी गंगा में मिल जाने पर वह गंगाजल की तरह सम्मान पाता है। यह समर्थ सान्निध्य का ही प्रभाव है जिसकी तुलना पारस, अमृत कल्पवृक्ष से की जा सकती है एवं परिणति कायाकल्प के रूप में वर्णित की जाती है।

आज की परिस्थितियों में जब चारों ओर आपाधापी मची है, कलियुग की पराकाष्ठा का समय है, धर्मतंत्र भी विकृतियों में उलझा दृष्टिगोचर होता है- एक ही तरीका है कि हम गुरु के ज्ञान-शरीर को मार्गदर्शक मानकर उनके निर्देशों को आत्मसात् कर अपनी निष्ठा दिन-प्रतिदिन और प्रगाढ़ बनाते चले। जिस सद्गुरु ने गायत्री महाशक्ति को युग के विश्वामित्र के रूप में घर-घर तक पहुँचा दिया, सबके लिए सुलभ बना दिया, उन्हें कोई भी अपनाकर उनके सूक्ष्म व कारण शरीर से वही लाभ ले सकता है, जो उनके स्थूल शरीर रहते उनके समीपवर्ती शिष्यों ने पाया, जो समीप नहीं थे, किंतु अपने समर्पण के बल पर जिन्हें अगणित सिद्धियाँ मिली-उनके उदाहरण भी अगणित है। सद्गुरु के बिना साधना के क्षेत्र में प्रगति अकल्पनीय है, हमें विश्वास रख, अपना विश्वास प्रतिक्षण दृढ़ बनाते चल युगधर्म को अंगीकार कर इस युगपरिवर्तन की वेला में शिष्यीव से जुट जाना चाहिए। वे हमारी साधना को गति देंगे-हमें भवबंधन से मल्लाह की भाँति पार करा जीवनमुक्त बनाएँगे-यह विश्वास हमें रखना ही चाहिए।


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