‘आत्मानं विद्धि’ के अभ्यास से बंधन-मुक्ति

December 1998

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हम स्वयं में क्या हैं? जीवन का स्वरूप एवं लक्ष्य क्या है? जीवन के साथ जुड़ी हुई विभूतियों का सही उपयोग क्या हैं? इन सवालों को उपेक्षा के गर्त में डाल देने से एक प्रकार की आत्म-विस्मृति छायी रहती है और जीवननीति का निर्धारण हो नहीं पाता। इन्द्रियों की उत्तेजना ही प्रेरणा बनकर रह जाती है। प्रचलित ढर्रे का अनुकरण ही स्वभाव बन जाता है। अहंता की तृप्ति के इर्द-गिर्द ही तथाकथित प्रगति की कामना चक्कर काटती रहती है। अन्य कीट-पतंगों की तरह अज्ञान के अंधेरे में पड़े मनुष्य भी शरीर के लिए किसी तरह जीवित रहते और मौत के दिन पूरे कर लेते हैं। अज्ञान के वशीभूत होने पर हम जीवन भी इसी प्रकार भारभूत ही जीते हैं। कोई उच्च उद्देश्य सामने न रहने और उस दिशा में कोई महत्वपूर्ण प्रयास न बन पड़ने पर जीवन का शाश्वत आनन्द मिल नहीं पाता।

जब हम ज्ञान की आवश्यकता एवं उपयोगिता पर चर्चा करते हैं, तो उसका दायरा केवल बाह्यज्ञान ही सिमटा रहता है। हम भूल जाते हैं कि अन्तःज्ञान का महत्व उससे भी कहीं अधिक हैं आत्मज्ञान की आवश्यकता भौतिकज्ञान की अपेक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। आत्मज्ञान की आवश्यकता यदि अनुभव की जा सके तो सबसे पहले यह विचार करना होगा कि हम हैं क्या? इस प्रश्न का उत्तर तलाशने से ही ज्ञानसाधना का शुभारम्भ होता है। आखिर हम क्यों जी रहे हैं? इन सवालों के जवाब में आत्मवेत्ता, महामनीषियों ने जो निष्कर्ष निकाले हैं, वे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। उन्हें अपनाया जा सके तो ज्ञानसाधना से बन्धनमुक्ति की बात प्रत्यक्ष नजर आने लगती है।

अणु क्या है? सुविस्तृत पदार्थ वैभव का एक छोटा-सा घटक। आत्मा क्या है? परमात्मसत्ता एक एक छोटा-सा अंश। अणु की अपनी स्वतन्त्र सत्ता लगती भर है, पर जिस ऊर्जा आवेश के कारण उसका अस्तित्व बना है तथा क्रिया−कलाप चल रहा है, वह व्यापक ऊर्जातत्त्व से भिन्न नहीं है। एक ही सूर्य की अनन्त किरणें दिग्दिगन्त में फैली रहती हैं। एक ही समुद्र में अनेकानेक लहरें उठती रहती हैं। देखने में किरणें और लहरें स्वतन्त्र हैं और एक-दूसरे से भिन्न हैं। तो भी थोड़ी गम्भीर दृष्टि का उपयोग करने पर यह जाना जा सकता है कि यह भिन्नता कृत्रिम और एकता वास्तविक है। अलग-अलग बर्तनों के बीच में रहने वाले आकाश अपनी सीमा में बँधे होने के कारण अलग-अलग लगते हैं, तो भी उनका अस्तित्व निखिल आकाशीय सत्ता से भिन्न नहीं हैं। पानी में अनेकों बुलबुले उठते और विलीन होते रहते हैं। बहती धारा में भँवर पड़ते हैं, दिखने में बुलबुले और भँवर अपना स्वतन्त्र अस्तित्व प्रकट कर रहे होते हैं, पर यथार्थ में वे प्रवाहमान जलधारा की सामयिक हलचल मात्र हैं। इसी तरह जीवात्मा की स्वतन्त्र सत्ता दिखती भर है, पर न केवल उसका अस्तित्व, बल्कि स्वरूप भी व्यापक चेतना का एक अंश मात्र है।

ज्ञानसाधना के उत्कर्ष में यही एक निष्कर्ष निकलता है कि हम विश्व-चेतना के एक अंश मात्र हैं। समष्टि ही आधारभूत सत्ता है, हम उसकी छोटी चिंगारी भर हैं। एकता को शाश्वत समझा जाय-पृथकता को कृत्रिम। सबको अपने में, अपने को सबमें समाया हुआ देखा, समझा और माना जाय। सबके दुःख में अपना दुःख माना जाय, सबके सुख में अपना सुख। यह मानकर चलने से सीमित परिधि में सुखी होने की क्षुद्रता घटती है और व्यापक क्षेत्र में सुख-संवर्द्धन की योजना सामने आती है।

सीमा-संकीर्णता को अवास्तविक मानने से व्यक्तिवाद पर अवलम्बित स्वार्थपरता घटती चली जाती है। अपने को बड़ी मशीन का छोटा पुर्जा भर समझने से यह बात ध्यान में रहती है कि उसकी निजी उपयोगिता भी पूरी मशीन का अंग बनकर रहने में ही है। अलग निकलकर, अलग-से-अलग बड़प्पन और सुखोपभोग की बात सोची जाएगी तो यह पृथकता अपनाकर कुछ लाभ नहीं उठाया जा सकेगा। हानि ही होगी। पृथकतावादी-स्वार्थपरता के भवबन्धनों से मुक्ति पाने में इस ज्ञानसाधना से श्रेष्ठ विधि कोई और नहीं।

अपनापन ही प्यारा लगता है। यह आत्मीयता जिस पदार्थ अथवा प्राणी के साथ जुड़ जाती है, वही आत्मीय परमप्रिय लगने लगता है। अपनेपन का दायरा छोटा हो तो मात्र शरीर की, बहुत हुआ तो परिवार की सुख-सुविधा सोची जाती रहेगी और उतने तक ही प्रिय लगने की परिधि सीमित बनकर रह जाएगी। यह क्षेत्र जितना अधिक बढ़ेगा, उतनी ही प्रियता की परिधि विस्तृत होती चली जाएगी। यदि व्यापक क्षेत्र में आत्मीयता विस्तृत कर ली जाय तो अपनेपन का प्रकाश बढ़ता जाएगा और उस क्षेत्र का वैभव परमप्रिय लगने लगेगा। यह अनुभूतियाँ उन्हें सहज ही मिल सकती हैं, जो सीमाबन्धनों की तुच्छता को निरस्त करके समष्टि के साथ जुड़े हुए कर्तव्यों का पालने करने के लिए कटिबद्ध होते हैं।

ज्ञानसाधना से अनुभव होने वाली एकता के साथ यह भी सत्य उजागर होता है कि अंशी के सारे गुण सूक्ष्म रूप से अंश में विराजमान रहते हैं। अतएव परमात्मा की समस्त विशेषताएँ तथा सम्भावनाएँ आत्मा में विद्यमान हैं और उन्हें विकसित करने के साधन जुटाकर उच्चतम स्तर तक पहुँचाया जा सकता है।

इस तथ्य को समझ लेने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि जीव की मूल सत्ता गुणों की दृष्टि से ईश्वर सत्ता गुणों की दृष्टि से ईश्वर के समतुल्य ही है। इस सम्भावना को विकसित करना मनुष्य जीवन में ही सम्भव हो सकता है। उच्च पद करने में नियोजित की जाने वाली प्रतियोगिताओं की तरह ही अपना मनुष्य जीवन मिला हुआ है। परीक्षा में भाग लेने का अवसर जिन्हें मिला है, वे अपनी प्रतिभा और पुरुषार्थ-परायणता का परिचय देकर उत्तीर्ण होने का प्रमाणपत्र प्राप्त करते और प्रतियोगिता जीतकर उच्च पद प्राप्त करते हैं। मनुष्य जीवन भी एक ऐसा ही अवसर है। उसकी भी एक ऐसा ही अवसर है। उसकी सार्थकता इसमें है कि अपने छोटे-से जीवात्मा स्तर को विकसित करके महात्मा-देवात्मा की कक्षाएँ पार करते हुए परम-आत्मा बनने की पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करें। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व की उदात्त रीति-नीति अपनाने वाले ही इस महान जीवन-लक्ष्य को प्राप्त करते देखे जा सकते हैं।

मनुष्य जीवन भगवान का जीवात्मा को दिया गया सबसे बहुमूल्य उपहार है। इससे अधिक महत्वपूर्ण चेतन संरचना उसके भण्डार में और कोई नहीं है। इसे अनुपम और अद्भुत कह सकते हैं। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि सभी प्राणी ईश्वर के पुत्र हैं। एक समदर्शी पिता को अपनी सन्तानों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए और समान अनुदान देने चाहिए। फिर ऐसा क्यों हुआ कि मनुष्य को ही इतना अधिक दिया गया और अन्य प्राणी उससे वंचित रखे गए? यदि यह सब विभूतियाँ मात्र मौज-मजा करने के लिए मनुष्य को मिलीं होतीं, तो निश्चय ही उसे अन्याय और पक्षपात कहा जाता, किन्तु परमात्मा न तो ऐसा है ओर न ऐसी नीति अपना सकता है। उसने मनुष्य को अधिक विश्वस्त, अधिक प्रामाणिक और अधिक समझदार बड़ा माना है। इसी वजह से उसने उसके हाथ में अतिरिक्त साधन सौंपे हैं, जिनके सहारे वह इस सुरम्य उद्यान को अधिक सुन्दर, अधिक सुविकसित, अधिक समुन्नत और अधिक सुसंस्कृत बना सके।

खजांची के पास ढेरों सरकारी रुपया रहता है। शस्त्र भण्डार का स्टोरकीपर सेना के हथियार और गोला-बारूद अपने ताले में रखता है। मिनिस्टरों को अनेकों सुविधा-साधन एवं अधिकार मिले होते हैं। यह सब विशुद्ध रूप से अमानतें हैं इन्हें निजी लाभ के लिए प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। ठीक इसी प्रकार से मनुष्य को जो कुछ मिला है, वह संसार को अधिक सुखी, समुन्नत बनाने के लिए मिली हुई धरोहर के रूप में हैं। परन्तु अज्ञान के अँधेरे से घिरे होने के कारण ऐसा हो नहीं पा रहा है। यदि ऐसा हो सका होता तो मानव जीवन इतना पाप-पंक में फँसा और दुनिया विनाश की आग में न झुलस रही होती।

ज्ञान-साधना में प्रवृत्त होने का तात्पर्य है-स्वयं के स्वरूप एवं उत्तरदायित्व के बोध के लिए तत्पर होना। इसी के माध्यम से ऐसा कुछ बन पड़ेगा कि पूर्णताप्राप्ति की दिशा में अग्रसर होते हुए अनुकरणीय, आदर्श एवं पवित्रतम् जीवन जिया जाय और अपने जीवन की समस्त उपलब्धियों में से न्यूनतम अंश लेकर शेष का परमार्थ प्रयोजनों में उपयोग किया जाय। यही है ज्ञान-साधना की फलश्रुति।

शरीर और मन जीवन रूपी रथ के दो पहिए-दो घोड़े हैं। इन्हें काम करने वाले दो हाथ-आगे बढ़ने वाले दो पैरों से उपमा दी जा सकती है। अन्तःकरण की आस्था एवं आकांक्षा के अनुरूप यह दोनों ही स्वामिभक्त सेवक सदा कार्य करने के लिए तत्पर रहते हैं। शरीर की अपनी स्वतन्त्र कोई सत्ता या इच्छा नहीं है, यह जड़ है। इन्द्रियाँ भी जड़ पंचतत्वों से बनी हैं। अन्तःकरण में जैसी उमंगें उठती हैं, उसी दिशा में शरीर की क्रियाशीलता चल पड़ती है। इसी प्रकार मन भी अपनी मर्जी से कुछ नहीं करता। उसमें सोचने का गुण तो है, पर क्या सोचना चाहिए? यह निर्धारण करना अन्तःकरण का काम है। सज्जनों का चिन्तन एवं कर्त्तृत्व एक तरह का होता है और दुर्जनों का दूसरी तरह का। इसमें दोनों ही शरीर और मन सर्वथा निर्दोष होते हैं। अन्तःप्रेरणा का निर्देश बजाते रहना भर उनका काम है। इसलिए शरीर को दुष्कर्म करने या मन को दुर्बुद्धिग्रस्त होने का जो दोष दिया जाता है, वह अवास्तविक है। इन दोनों वाहनों को प्रेरणा एवं दिशा देने का काम अन्तःकरण रूपी सारथी का है।

शरीर में क्रिया, मन में विचारणा और अन्तरात्मा में भावना काम करती है। भावनाओं को ही श्रद्धा, आस्था, निष्ठा, मान्यता आदि नामों से जाना जाता है। इन्हीं सबके समन्वय से आकांक्षा उभरती है और फिर उसी की निर्देशित दिशा में, शरीर और मन के सेवक काम करने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं।

ज्ञानसाधना का अर्थ है-अन्तरात्मा के गहन स्तर में यह अनुभूति एवं आस्था उत्पन्न करते रहना कि हम सत-चित-आनन्द परमात्मसत्ता के अविच्छिन्न अंग है। हमें पूर्णताप्राप्ति के लिए श्रेष्ठतम जीवनक्रम अपनाना है और जो उपलब्ध है, उसे लोकहित के लिए प्रयुक्त करना है। ज्ञानसाधना में निरत जाग्रत आत्मा संकीर्ण स्वार्थपरता की परिधि को लाँघ जाती है। वह सबको अपने में और अपने को सबमें देखती है। इसलिए उसके सामने व्यक्तिवादी आपाधापी फटकने नहीं पाती। उसके चिन्तन एवं कर्तृत्व में व्यापक लोकहित की भावना काम करती है। कहना न होगा कि ज्ञानसाधना से बन्धनमुक्त हुई आत्माओं की प्रत्येक विचारणा और प्रत्येक क्रियापद्धति में मात्र आदर्शवादिता ही उभरती-छलकती दिखाई पड़ती है। ऐसे लोग अभावग्रस्त और संकटग्रस्त हो सकते हैं, पर अन्तःकरण में उन्हें असीम आनन्द और सन्तोष की अनुभूति हर घड़ी होती रहती है।


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