नकद धर्म है जीवन -साधना

December 1998

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जीवनसत्ता का स्वरूप, लक्ष्य एवं सदुपयोग समझा गया या नहीं? समझने के उपरान्त उत्कर्ष का मार्ग अपनाया गया नहीं? मार्ग पर उत्साह, साहस एवं पुरुषार्थ सहित चला गया या नहीं? इसी चयन-निर्धारण पर उत्थान -पतन की आधारशिला रखी जाती है मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। अवांछनीय अपनाकर पतन के गर्त में गिरने की, उत्कृष्टता कर वरण करके उत्कर्ष के चरम लक्ष्य तक जा पहुँचने की उसे पूरी छूट है। कोई परिस्थितियों का रोना रोता रहे और मनःस्थिति को न सुधारे, तो उस प्रमादग्रस्त से कोई क्या कहे?

देवता अनेक है, पर तत्काल फलदायक, अत्यन्त निकटवर्ती और अनुदान देने के लिए आतुर जीवन-देवता से बढ़कर और कोई नहीं। जीवन की गरिमा समझने वाले और निर्धारित लक्ष्य के लिए उसे प्रयुक्त करने वाले वह सब कुछ प्राप्त करते है, जो पाने योग्य है। अन्य देवताओं की अनुकम्पा संदिग्ध है, पर जीवन-देवता की साधना का प्रतिफल सर्वथा असंदिग्ध है। दुःख इसी बात का है कि जीवन-साधना का महत्व समझा ही नहीं गया ओर ऋद्धि-सिद्धियों से सुसम्पन्न बनाने की ओर ध्यान गया ही नहीं अन्यथा स्थिति वैसी न होती, जैसी कि सामने है।

जीवन का स्वरूप और रहस्य न समझने पर, उसकी साधना से विरत रहने पर काई अभाव-दारिद्र से, पतन-पराभव से घिरा पड़ा रहे तो इसके लिए अन्य किसी को दोष कैसे दिया जाय? जीवन की अवहेलना से बढ़कर पाप इस संसार में और कोई नहीं। अन्य पापों से कर्ता को तत्काल लाभ तो मिल ही जाता है, पर जीवन की उपेक्षा का पातक ऐसा है, जिसमें आरम्भ से अन्त तक नरक भोगना पड़ता है। भाग्योदय का एक ही चिन्ह है कि जीवन के साथ जुड़ी हुई महान सम्भावनाओं को समझा जाए और उसे कषाय-कल्मषों के गर्त से उबारकर परिशोधन-परिष्कार किया जाय।

जीवन-साधना में मनन और चिन्तन को आवश्यक माना गया है। हर दिन सूर्योदय से पूर्व या सूर्यास्त के बाद जब चित्त शान्त हो तब अपने अन्तरंग -बहिरंग स्थिति का लेखा-जोखा लेना चाहिए और भूलों को सुधारने, कमियों को पूरा करने तथा भावी प्रगति के लिए जो कदम उठाने आवश्यक है, उनका दूरगामी एवं सामयिक निर्धारण करना चाहिए। निर्धारण ऐसा होना चाहिए कि जो वर्तमान स्थिति में बिना समय गँवाकर कार्यान्वित हो सके।

मनन-चिंतन में दो बातें अपने आप ही समायी हुई है-परिमार्जन एवं परिष्कार। इन्हें पथ्य और औषधि के रूप में भी समझा जा सकता है। व्यक्तित्व को पवित्र-प्रखर बनाने वाली सत्प्रवृत्तियों को कैसे अपनाया जाय? वर्तमान स्थिति को देखते हुए इस संदर्भ में क्या कदम उठाए जाएँ। इसका निर्धारण ही नहीं, इसे अपनाने का तत्परतापूर्वक प्रयास भी विलम्ब चलना चाहिए। गुण, कर्म स्वभाव में शालीनता और प्रतिभा के दोनों उपायों का नियोजन रहना चाहिए।

इसके उपरान्त अगला कदम यह है कि जो उपलब्ध है, उसे किस प्रयोजन के लिए, किस अनुपात में, कहाँ लगाया जाय? उपलब्धियों का महत्व तभी है, जब वे सत्प्रयोजन में लग सकें, अनियमित दुरुपयोग -अपव्यय ही चलता रहा तो सम्पन्नता दरिद्रता से भी महँगी पड़ती है। आत्म-साधना का सही तात्पर्य यही है-अपना दायरा बड़ा करना। अर्थात् लोभ-मोह स्वार्थपरता के भवबन्धनों को शिथिल करते हुए समष्टि के साथ अपने आपको जोड़ना। उस दृष्टिकोण को अपनाने पर वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना उमंगती है और उसी के साथ जुड़ने को जी मचलता है। दूसरों के दुःख बाँटने, अपना सुख बाँटने का आत्मभाव जब विकसित -विस्तृत होगा, तो उसका उपयोग लोकमंगल के कार्यों के लिए समयदान, अंशदान के रूप में प्रस्तुत किए बिना बिना चैन पड़ेगा ही नहीं।

मनन-चिंतन के निदिध्यासन को यदि नियमित रूप से गम्भीरता पूर्वक करते रहा जाय, तो परिशोधन-परिष्कार के दोनों कदम भी स्वयमेव आगे बढ़ते रहते हैं। यह प्रक्रिया नियमित -निरन्तर चलता रहे तो पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचाने वाला उपक्रम सुनिश्चित तौर से बनता रहेगा। यहाँ एक बात और समझने की है कि मनुष्य पूर्ण उत्पन्न होने के कारण पूर्ण ही है। जन्मजात रूप से उपलब्ध विभूतियों का दुरुपयोग -अपव्यय ही एकमात्र वह कारण है, जिसके कारण कामधेनु का दूध छलनी में दुहने पर जमीन पर गिरता, कपड़े चिकने करता और खेद-पश्चाताप का निमित्त कारण बनता है।इसे रोक देने की समर्थ दूरदर्शिता ही जीवन -साधना कहलाती है।

यह जीवन-साधना नकद धर्म है। इसके प्रतिफल प्राप्त करने के लिए समय की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़तीं ‘इस हाथ दे उस हाथ ले’ का नकद सौदा इस मार्ग पर चलते हुए हर कदम पर फलित होता रहता है। एक कदम आगे बढ़ने पर मंजिल की दूरी उतनी फुट कम होती है, साथ ही जो पिछड़ापन था, वह पीछे टूटता है। इसी प्रकार जीवनसाधना यदि तथ्यपूर्ण, तर्कसंगत और विवेकपूर्ण स्तर पर की गयी हो तो उसका प्रतिफल दोनों रूप में हाथों हाथ मिलता चलता है। पहला लाभ तो यह होता है। कि पशु प्रवृत्तियों का अभ्यास छूटता है, वातावरण की गंदगी से ऊपर चढ़े कषाय-कल्मष घटते हैं। दूसरा लाभ यह होता है कि नरपशु से देवमानव बनने की विधि -व्यवस्था सही रूप से बन पड़ती है। औरों के साथ स्वयं को भी अनुभव होता रहता है। कि व्यक्तित्व निरन्तर उच्चस्तरीय बन रहा है उत्कृष्टता और आदर्शवाद की ही उपलब्धियाँ निरन्तर हस्तगत हो रही है यही है वह उपलब्धि जिसे जीवन की सार्थकता, सफलता कहते है। तत्त्वज्ञान की भाषा में इसी को भवबन्धनों से मुक्ति, प्रसिद्धि, कैवल्य प्राप्ति कहा जाता है।


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