राष्ट्र को समर्थ व सशक्त बनाने हेतु अनिवार्य है साधना

December 1998

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

बड़ी अनोखी शुभ घड़ी थी, जब राष्ट्रीय साधना ने अपनी अनोखी सिद्धि प्राप्त की। आज से ५१ साल पहले १५ अगस्त के दिन पूरा देश थिरक उठा था। पंडित नेहरू ने दिल्ली में लाल किले की प्राचीर से गुलामी के प्रतीक यूनियन जैक के स्थान पर स्वतन्त्रता का तिरंगा झण्डा फहराया था और देशवासी जूझ उठे थे। हमारे सदियों पुराने सपने साकार हो गए थे और चेहरे चमक उठे थे। यह स्वतन्त्रता केवल हमारे लिए ही महत्वपूर्ण नहीं थी। इसने संसार से उपनिवेशवाद के विध्वंस की घोषणा की थी। हमारी आजादी के १० साल के अन्दर-ही अन्दर एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के छोटे-बड़े ११७ देशों ने आजादी की हवा में साँस ली थी। इस तरह हमीं वह पहले राष्ट्र थे, जिसने साम्राज्यवाद की विदाई की विजय-घोषणा की थी।

इस अभूतपूर्व उपलब्धि के पीछे थी-राष्ट्र को समर्थ व सशक्त बनाने वाली हमारी साधना। जिसे एक शब्द में “चरित्र” की संज्ञा दी जा सकती है। अपने प्रचण्ड चरित्रबल के कारण ही गाँधीजी को समूचे विश्व ने “महात्मा” कहकर सम्मानित किया। कृतज्ञ ने उन्हें पिता का गौरव दिया। दुनिया में अब तक कहीं भी कोई संग्राम बिना शस्त्रों के नहीं लड़ा गया। परन्तु गाँधीजी की राष्ट्रीय साधना निराली थी। उन्होंने मुक्ति संग्राम और अहिंसा को इस तरह एक साथ जोड़ दिया कि दुनिया चकित रह गयी। एक ओर ऐड़ी से चोटी तक हथियारों से लदा हुआ ब्रिटिश साम्राज्यवाद था और दूसरी ओर निहत्थी परन्तु अनोखे चरित्रबल से ओत-प्रोत जनशक्ति थी। परन्तु महात्मा गाँधी के नेतृत्व में राष्ट्रसाधकों ने हथियारों पर विजयी होकर विश्व को एक नयी शक्ति से अवगत कराया। संसार को हमारे स्वतन्त्रता संग्राम की यह नयी देन थी।

लेकिन स्वतन्त्रता मिलने के साथ ही हम सब इस राष्ट्रीय साधना से विरत होते चले गए। स्थिति से विरत होते चले गए। स्थिति यहाँ तक आ पहुँची कि बीते वर्षों में हमने एक अन्धी सुरंग तैयार की ली और जितने रोशनदान थे, वे भी अब बन्द हो चुके हैं। यह किसी तरह की हताशा नहीं, एक जायजा है। हम लगातार चरित्रहीनता एवं अधः पतन की अँधेरी सुरंग से गुजर रहे हैं। फिर भी हम चाहते हैं कि बुद्धिजीवियों में, युवावर्ग में उत्साह हो, उमंग हो। आजादी से पहले उत्साह था, लेकिन संभावनाएँ भी उतनी ही थीं। तब त्याग था, उत्सर्ग था। सुभाष, भगतसिंह, आजाद जैसे अनेक लोग थे, जिनके हाथों में अँधेरे को दफन करने वाली मशालें थी। रहें रोशन होती नजर आती थी।

आजादी के बाद स्थिति बदल गयी। राष्ट्रीय साधना और उसे सम्पन्न करने वाले साधक समाप्त हो गए। उनका विकल्प बनाने की जिम्मेदारी समाज को थी। समाज अपना दायित्व निभा न सका। उसने उनकी जगह जो बुत खड़े किए, वे सब मिट्टी के ऐसे बुत थे, जिनके पेट में जो भी चला जाता था, वह लौटकर नहीं आता थे। उनके लिए मूल्यहीनता हैं। जिनके लिए मूल्य मूल्यवान थे, वे धीरे-धीरे हाशिए पर चले गए। परिवर्तन के काल में ऐसा होता है, पर जो मूल्य हाशिए पर चले जाते हैं, उनकी जगह नए मूल्य आते हैं। जैसे जो पेड़ काटे जाते है, उनके स्थान पर नए पेड़ लगाए जाते हैं, लेकिन हम तो जंगल पर जंगल काटे जा रहे हैं, पर नए वृक्ष लगाने की ओर कोई सुधि नहीं। उसी तरह हम मूल्यों का अवमूल्यन कर रहे हैं और नए मूल्य भी नहीं बना रहे हैं। मूल्य बनें भी कहाँ से? सारे मूल्य तो चरित्र से उपजते हैं, जब चरित्र नहीं बच पा रहा तो मूल्यों का निर्माण कहाँ से हो?

राष्ट्रीय साधना का एक ही अर्थ है राष्ट्रीय चरित्र का विकास। चरित्रबल मानवीय शक्ति का मूल आधार है। पारस्परिक सहयोग द्वारा उद्योगों को बढ़ाना और अर्थव्यवस्था को सुधारना समाज-सुधार के एक अधिक आवश्यक अंग की पूर्ति करना है, पर समाज का वास्तविक उत्थान तभी हो सकता है, जब जन-जन में कर्तव्यपरायणता, धार्मिक सहिष्णुता, सच्चाई और सच्चरित्रता की भावनाओं का भरपूर समावेश हो, अपने देश की प्राचीन संस्कृति की यही विशेषता रही है कि लोग स्वयं का संयम करना सीखें। बढ़ी हुई शक्तियों को सीधे से पचा ले जाना संयम से ही सम्भव है। केवल साधनों की तृष्णा बढ़ती रहे और साधना का विकास न हो तो उन्नति का मूल उद्देश्य नष्ट होकर दुर्भावनाओं का विकास होने लगेगा। साधन तो होंगे, पर लोग सुखी न होंगे।

गीताकार ने अपना यह कठोर निर्णय दिया है कि सूखाकांक्षी का जीवन शुद्ध और उसका प्रत्येक कर्म यज्ञीय भावना के साथ होना चाहिए। स्वार्थ के साथ परमार्थ का भी पर्याप्त होना आवश्यक है। मनुष्य सदा से मातृभूमि का ऋणी रहता है। जन्म से ही वह अगणित ऋणों का देनदार है। राष्ट्रसेवा ऋण चुकाने की भावना को कहते हैं। मनुष्य के हित की दृष्टि से उसके राष्ट्रीय, सामाजिक जीवन में राष्ट्रसेवा का आयोजन बना रहे, तो उसमें सबका कल्याण रहता है। यह अपेक्षाकृत अधिक सरल मार्ग है। जिसमें मनुष्य स्वल्प साधनों में विपुल सुख प्राप्त कर लेता है। राष्ट्रीय जिम्मेदारी पूरी करने का नाम है, कामचोरी। कर्तव्य से पलायन करना निठल्लापन और बेईमानी है। राष्ट्र की समृद्धि में भरपूर श्रम और पुरुषार्थ में राष्ट्रीय साधना की भूमिका प्रमुख रूप से बनी रहनी चाहिए।

लोग कहते हैं-बड़ा दुर्भाग्य है, रोटी नहीं मिलती, कपड़ा नहीं मिलता, जरूरतें पूरी नहीं होती, बड़ी असमानता है। कुछ हद तक सम्भव है ऐसा भी हो, पर अधिकांश कमी यह है कि लोग अपना दोष स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते। समस्या यह है कि जरूरतें आवश्यकता से अधिक बढ़ गयी हैं। अनैतिकता पर कोई नियंत्रण नहीं है। मन स्वतन्त्र है, इन्द्रियाँ स्वतन्त्र हैं। कामनाओं के दल-बल स्वच्छन्द विचरण कर रहे हैं। संयममूलक प्रवृत्तियों के नष्ट हो जाने के कारण ही अभाव घिरे हैं, अन्यथा न तो उत्पादन कम हुआ है और न जरूरत की चीजें कम पड़ी है। सब कुछ पहले से अधिक है, पर क्या करें, लोगों की भूख इतनी बढ़ गयी है, वासनाएँ इतनी घिर गयी हैं कि बढ़े हुए साधनों से भी काम्य प्रयोजन पूरे नहीं हो पा रहे। इस देश में आत्मदर्शी ऋषियों की परम्पराएँ चलती आयी हैं। परिग्रह और भोग से दूर रहकर उन्होंने जो सत्य पाया, समाधान पाया, सुख-शान्ति का अनुभव पाया, उसी को यहाँ के जन-जीवन में उतारा है। उसका सम्पूर्ण सार है, चरित्रबल। चरित्र में ही सुखी जीवन के सारे रहस्य छिपे हुए हैं। चरित्र ही मनुष्य की श्रेष्ठता का उत्तम मानदण्ड है। एक ओर मनुष्य के साथ स्वार्थ भावना है, तो दूसरी ओर राष्ट्र के प्रति कर्तव्य भी है। कर्तव्य बुद्धि द्वारा स्वार्थबुद्धि का नियंत्रण होना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि दूसरा को उसके साथ छल-कपट का व्यवहार न करे, झूठ न बोले, धोखा न दे, सताए नहीं, दबाने की चेष्टा न करे। ऐसी अवस्था में उसका भी कर्तव्य हो जाता है कि वह भी मन-वचन और क्रिया द्वारा सच्चाई का ही समर्थन व प्रदर्शन करे। हमारे अन्तःकरण की वृत्तियाँ सत्यमय हो जाती हैं, तो व्यवहार शुद्ध हो जाता है। ऐसी स्थिति में उससे और का भला तो होता ही है, राष्ट्रीय दायित्व भी भली-प्रकार पूरे हो जाते हैं। ईमानदारी और सच्चाई राष्ट्र को समर्थ और सशक्त बनाने वाली साधना का अनिवार्य अंग है, यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए। जो नीतियाँ उन्नत उन्नत राष्ट्र के लिए कही जाती हैं, वे सबकी सब चरित्र साधना के अंतर्गत ही आ जाती हैं। नेकी, ईमानदारी, व्यवहारशुद्धि, सत्य सहयोग और सहानुभूति यह सब उसके अंग हैं। हमारे राष्ट्रीय जीवन में जब तक यह श्रेष्ठता विद्यमान रही, तब तक अपना यह देश संसार भर का सिरमौर बना रहा, किन्तु पिछले दिनों पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण का जो प्रवाह चला, उसने यहाँ की जीवन-गति को ही अशुद्ध बना डाला। जो सिद्धान्त मानवता के विपरीत पड़ते हैं, पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव से यह अधिक तेजी से विकसित हुए। विलासिता एवं प्रदर्शन को यहाँ इतना अधिक महत्व दिया गया, जिससे भोगवाद यहाँ के आकर्षण का मूल बिन्दु बन गया।

इस गलत दृष्टिकोण के कारण यहाँ अनेकों राष्ट्रविरोधी प्रवृत्तियाँ पनप उठीं। भ्रष्टाचार की इन दिनों व्यापक चर्चा हो रही है। राजनीति के शीर्ष पुरुषों के साथ प्रशासन के उच्चपदस्थ अधिकारी सभी एक ही पाप पंक में फँसे और सने हुए है। एक-सी दशा में नैतिक जीवन का काई मूल्य नहीं रह गया है। इसलिए विकास के अनेक साधन जुटाने पर भी मूल समस्या ज्यों-की-त्यों उलझी हुई है। राष्ट्र के सन्तुलन और उसी सुव्यवस्था का आधार व्यक्तिनिर्माण है। व्यक्ति के भावभरे सहयोग से ही राष्ट्र उन्नत बनता है। जिस देश के लोग परिश्रमी, ईमानदार सत्यनिष्ठ एवं आदर्शप्रिय होंगे वह अपने आप ही विकसित होता चला जाएगा।

स्वाधीनता के बाद के वर्षों में हम राष्ट्रीय साधना से विमुख होते चले गए। द्वेष, फूट, कलह का तन्तुजाल बुनता चला गया, परिस्थितियों के विपक्ष और विदेशी प्रभाव के कारण ऐसा करने को हम मजबूर हुए हैं। आज बात-बात पर भाषावाद, जातिभेद, प्रान्तवाद के नाम पर हम सभी लड़ने-झगड़ने लगते हैं। पारस्परिक सद्भाव एवं प्रेम की शिक्षा देने वाले धर्म को भी दुर्भाव एवं वैर के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा है। क्या इससे कोई राष्ट्रीय समस्या हल हो सकती है। राष्ट्र का जीवन तो व्यक्तियों के जीवन से विनिर्मित होता है। राष्ट्र की गरिमा में व्यक्तियों का आत्मबल मनोबल और शरीरबल गिना जाता है। पर यह तभी सम्भव है जब राष्ट्र के नागरिक, चरित्रवान और आत्मजयी हों। राष्ट्र को धन या साधन उतना सुख नहीं उठाते, जितना कि वहाँ के नागरिकों की चरित्र ही राष्ट्रीय गौरव को शिरोमणि बनाती है।

राष्ट्रीय विकास की इस चर्चा में आर्थिक समुन्नति का ध्यान रहे, यह ठीक है। हमें गरीबी मिटानी चाहिए, पर यह नहीं भूलना चाहिए कि चारित्रिक विकास के बिना कोई भी भौतिक सफलता स्थिर नहीं रह सकती है। बढ़ी हुई शक्ति का सन्तुलन उदार हृदय, उन्नत मस्तिष्क एवं आत्मनिष्ठा के साथ हो तो ही उनका लाभ प्राप्त किया जा सकता है, अन्यथा भौतिक उन्नति का कुछ लाभ न निकलेगा। वैसे भी अगले दिनों दुनिया जो करवट लेने जा रही है, उसमें व्यक्ति के लिए राष्ट्रीय साधना को जीवन का अनिवार्य अंग बनाना ही पड़ेगा। विश्वविख्यात इतिहासकार अरनाल्डटॉयनवी, जिसने भताओं का इतिहास लिखा है। उसने १९४२ में कहा था कि पचास साल में समूचा विश्व संयुक्त राज्य अमेरिका के वर्चस्व के नीचे आ जाएगा। लेकिन इक्कीसवीं शताब्दी में जब प्रौद्योगिकी का स्थान धर्म ग्रहण करेगा, तो यह सुनिश्चित है कि भारत जो आज पराजित देश है, तब विजयी होगा और जो आज विजयी हैं, पराजित हो जाएँगे। टॉयनवी की अवधारण का एक हिस्सा तो आज सत्य सिद्ध हो रहा है। दूसरा हिस्सा सत्य साबित हो सके इसलिए हममें से प्रत्येक को ऐसी कड़ी साधना की जरूरत है, जो हमारे भारत महादेश को समर्थ सशक्त बना सके।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118