आध्यात्मिक विकास हेतु अनिवार्य है संस्कार-साधना

December 1998

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संस्कार शब्द ने सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान भारतीय जीवनपद्धति में पाया है अनैतिक आचरण कुसंस्कार की तथा श्रेष्ठ अनुकरणीय सुसंस्कारों की प्रतिक्रिया है, ऐसा हमारे यहाँ माना जाता है। आखिर ये संस्कार हैं क्या? आद्यशंकर कहते हैं -” संस्कारों हि नाम संस्कार्यस्य गुणाँधानेन वा स्याद्योषाय नयेनन वा” (1-1-4-ब्रह्मसूत्रभाष्य) अर्थात् जिसका संस्कार किया जाता है उसमें गुणों का आरोपण अथवा उसके दोषों को दूर करने के लिए जो कर्म किया जाता है, उसे संस्कार कहते है गौतम धर्मसूत्र में कहा गया है कि संस्कार उसे कहते हैं जिससे दोष हटते हैं और गुणों का उत्कर्ष होता है। संक्षेप में संस्कार साधना जीवात्मा के परिशोधन-परिष्कार की साधना है। जिसके माध्यम से समय-समय पर जीवात्मा पर छाया कषाय- कल्मषों का निष्कासन-निराकरण किया जाता है।

जिस प्रकार विभिन्न प्रकार की मिट्टी को विधानानुसार संस्कारों द्वारा शोध कर उससे लोहा, ताँबा, सोना आदि बहुमूल्य धातुएँ प्राप्त कर लेते हैं। जिस प्रकार आयुर्वेदिक रसायन बनाने वाले औषधियों को कई प्रकार के रसों में मिश्रित कर उन्हें गजपुट, अग्निपुट विधियों द्वारा कई बार तपाकर संस्कारित कर उनमें मकरध्वज जैसी चमत्कारी व अन्यान्य औषधियों का निर्माण कर लेते हैं, ठीक उसी प्रकार मनुष्य के लिए भी समय-समय पर विभिन्न आध्यात्मिक उपचारों का विधान कर उसे अनगढ़ से सुगढ़ बनाने की महत्वपूर्ण पद्धति तत्त्ववेत्ता ऋषियों ने विकसित की थी। इसी साधना को षोडश संस्कार नाम दिया गया है। ऋषिगण इस तथ्य से सुपरिचित थे बार-बार तपाए जाने-सुसंस्कारित किए जाने से मनुष्य से संचित कुसंस्कार नष्ट होते हैं। आत्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त होता है। यही नहीं इन सूक्ष्म उपचारों द्वारा जीवन की मार्मिक संधियों-महत्वपूर्ण अवसरों पर विशिष्टताओं का-देवत्व का अभिवर्द्धन सुनिश्चित सत्य बना देता है।

वस्तुतः साधना विज्ञान का मूलभूत एक ही उद्देश्य है, श्रेष्ठ, सुसंस्कृत देवमानव का निर्माण। ऋषि यह मानते हैं कि जन्म-जन्मान्तरों की वासनाओं का लेप जीवात्मा पर रहता है। मनुष्य योनि में ही वस्तुतः आत्म-तत्व पकड़ में आता है। वैदिक व्यवस्था यह करती है कि संस्कार साधना के द्वारा जीवसत्ता के मानवगर्भ में आते ही उस पर छाए मलिनता कषाय-कल्मषों को हटा दिया जाए और उसे ऐसा शिक्षण दिया जाए और उसे ऐसा शिक्षण दिया जाए, जिससे कि वह अपने खोए स्वरूप को पुनः पा सके। ऋषिगणों ने मानवजीवन को आत्मा की विराट यात्रा का एक महत्वपूर्ण अध्याय माना वह गहन समीक्षा कर गर्भ में आने को लेकर चिता में समर्पण तथा उसके बाद भी मरणोत्तर विराम तक महत्वपूर्ण मोड़ों पर जीवात्मा को सँभालने-सँवारने की व्यवस्था की है।

मानवेत्तर योनियों से घूमकर आई हेय स्तर की आत्मा भी इन संस्कारों की भट्टी में-जिनकी विधान ऋषिगण ने किया है तपकर प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व में ढल जाती है। प्राचीन गृहसूत्रों में संस्कारों के विधि-विधानों का विस्तार से वर्णन कर उन्हें सामूहिक चेतना के जागरण, मन की उल्लास प्रफुल्लता से जुड़ी वृत्तियों के उभार तथा मनोविकारों के निराकरण हेतु ऋषिप्रणीत आध्यात्मिक साधना के रूप में संबोधित किया गया है।

आर्य संस्कृति के अनुसार वेद, स्मृति, तंत्र में सब मिलाकर ४८ संस्कार पाये जाते हैं, किन्तु इनमें भी १६ प्रमुख हैं। यदि विधिपूर्वक इनकी साधना की जाए, तो प्रथम आठ संस्कार प्रवृत्तिमार्ग में शेष आठ मुक्तिमार्ग पर मनुष्य को पहुँचा देते हैं ऐसी महर्षियों की मान्यता है। इस संस्कार साधना की इतनी महत्वपूर्ण फलश्रुतियों के बावजूद इनकी अवज्ञा क्यों होती चली गयी वह आज के आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता प्रधानसमाज में इन्हें उपेक्षा का दृष्टि से क्यों देखा जाता है, यह एक विचारणीय प्रश्न है? परमपूज्य गुरुदेव ने षोडश संस्कारों को युगानुकूल बनाकर इन्हें व्यापक स्तर पर सम्मत प्रतिपादनों द्वारा इन्हें व्यापक स्तर पर सम्पन्न किए जाने की एक सुव्यवस्था प्रक्रिया को जन्म दिया। इसे युगऋषि के द्वारा किया गया संस्कार साधनाओं का अभिनव जागरण भी कह सकते हैं।

परमपूज्य गुरुदेव ने दूरदृष्टि से देखा कि इस बदले हुए वैज्ञानिक युग में व्यक्ति के लिए आध्यात्मिक साधनाओं के लिए समय उतना है नहीं जितना कि पहले कभी हुआ करता था। दूसरे जिस तरह अशुद्ध मंत्रोच्चारण का उसका अर्थ वह उनसे न ली जाने वाली शिक्षा न समझकर जिस प्रकार इनके नाम पर लकीर पीटी जाती है उससे भी जनउपेक्षा बढ़ी है। प्रत्येक संस्कार के साथ खर्चीले साधन होने व उनके विकल्प न सोचने के कारण भी जनरुचि इनसे हटी है। प्रीतिभोज के नाम पर हर संस्कार के साथ जुड़ा एक अनिवार्य उपक्रम ही इतना खर्चीला हो जाता है कि वह परस्पर प्रीति के स्थान यजमान के मन में धर्म साधना के प्रति आक्रोश ही पैदा करता है। इन सारी वजहों के कारण सभी संस्कारों के साथ जुड़े कर्मकाण्डों में युगानुकूल संशोधन भी जरूरी था। उनके साथ जुड़ी शिक्षाओं को सुगम भाषा में समझाए जाने की आवश्यकता भी थी तथा भाव-संवेदनापरक माहौल उभारने के लिए उस स्तर के पुरोहितों के उत्पादन का तंत्र भी अनिवार्य थी। इस सबके समाधान हेतु परमपूज्य गुरुदेव ने संस्कार साधना सम्पन्न करने वालों के शिक्षण हेतु व्यापक प्रक्रिया विकसित की और संस्कारों को साधना का गरिमामय स्वरूप प्रदान किया।

पारम्परिक ढंग से ४८ संस्कारों में जिन षोडश संस्कारों को शास्त्र मान्यता देते आए हैं, वे इस प्रकार हैं-१ गर्भाधान (२) पुँसवन (३) सीमान्तोन्नयन ये प्रथम तीन जन्म से पूर्व के संस्कार हैं। (४) जातकर्म (५) नामकरण (६) निष्क्रमण (७) अन्नप्राशन (८) चूड़ाकर्म (९) कर्णवेध-ये छह संस्कार जन्म के बाद बाल्यावस्था के हैं। इसके पश्चात बालक के शिक्षा ग्रहण करने योग्य होने पर (१०) विद्यारम्भ (११) उपनयन (यज्ञोपवीत) (१२) वेदारम्भ (१३) केशान्त (१४) समावर्तन संस्कार ब्रह्मचर्य व्रज के समापन व विद्यार्थी जीवन के अन्त के सूचक के रूप में माना जाता था (१५) विवाह संस्कार गृहस्थ जीवन के शुभारम्भ तथा (१६) अन्त्येष्टि जीवन के समापन पर अन्तिम संस्कार के रूप में सम्पन्न होता था। इन षोडश संस्कारों में वानप्रस्थ और संन्यास को ऋषियों ने न गिनकर इनकी गणना वर्णाश्रम व्यवस्था में कि थी। परमपूज्य गुरुदेव ने अपनी दृष्टि युगानुकूल बनाते हुए इनकी संख्या घटाकर दस कर दी है, जो आज कि दृष्टि से अत्यंत अनिवार्य व व्यावहारिक हैं। उन्होंने दो संस्कारों नए जोड़े हैं जो आज के प्रचलन के अनुरूप हैं। वे हैं जन्मदिवसोत्सव तथा विवाह-दिवसोत्सव संस्कार मनाना। यह सनातन धर्म की विशेषता है कि स्मृतियों से लेकर अन्यान्य निर्धारणों में समय-समय पर परिवर्तन किये जाते रहे हैं। ऋषिगण पूर्वाग्रहों से विवेक को सर्वोपरि मानते आए हैं। परिणाम यही है कि कुछ कट्टर धार्मिक कर्मकाण्डियों को छोड़कर शेष सहिष्णु व्यक्तियों ने अपने को समाज के अनुरूप ढाल लिया है। सामयिकता उपयोगिता, सार्वजनिक और सत्परिणामों की सम्भावनाओं को सुनिश्चित करने वाली परिपाटी ही इक्कीसवीं सदी के मुंहाने पर खड़ी युवाशक्ति, प्रबुद्धों तथा नारी-शक्ति को स्वीकार्य होगी। यह मानते हुए शान्तिकुञ्ज,हरिद्वार के बारह संस्कारों को जन-जन तक लोकप्रिय बनाया व इन्हें सम्पन्न किए जाने की विराट स्तर पर व्यवस्था भी की।इन दिनों धूम-धाम से सम्पन्न हो रहे संस्कारों महोत्सव संस्कार साधना को ही सामूहिक स्तर पर सम्पन्न होने की झलक दिखाते हैं।

संस्कार साधना में जिन संस्कारों को यहाँ सम्मिलित किया गया है, वे हैं-१ पुँसवन संस्कार (२) नामकरण संस्कार (३)अन्नप्राशन संस्कार (४) मुंडन संस्कार (५) विद्यारम्भ संस्कार (६) यज्ञोपवीत संस्कार (७) विवाह संस्कार (८)वानप्रस्थ संस्कार (९) अन्त्येष्टि संस्कार (१०) मरणोत्तर -श्राद्ध संस्कार (११) जन्मदिवस संस्कार (१२) विवाहदिवस संस्कार।

पाठकगण इस सूची में देखेंगे कि वानप्रस्थ तथा श्राद्ध संस्कार का इनमें समावेश है, जिनको उल्लेख पारम्परिक षोडश संस्कारों में नहीं है। साथ ही जन्मदिवस व विवाह दिवस जैसे आधुनिकतम संस्कार भी हैं, जो धूम-धड़ाके से पाश्चात्य विधि से बर्थडे व मैरेज एनिवर्सरी नाम से मनाए जाते हैं। यदि साधना की भावभूमि एवं इसके सहयोगी कर्मकाण्डों से जुड़े शिक्षण के साथ इन्हें मनाया जाए तो जीवन में श्रेष्ठ प्रेरणाओं का समावेश भी हो सकता है। इस दृष्टि से ये अत्यन्त उपयोगी हैं। इनका विस्तृत विवेचन पढ़ने के लिए परिजन ‘षोडश संस्कार विवेचन’ (वाङ्मय क्रमांक ३३) देख सकते हैं।

यहाँ पर चर्चा तो संस्कारों के माध्यम से सम्पन्न की जाने वाली उस साधना की है, तो जीवन की मार्मिक संधियों में जीवनसत्ता को उत्तरोत्तर निर्मल एवं जाग्रत करती है। अध्यात्म साधना अपनी संस्कृति की सर्वप्रधान विशेषता है इसलिए शास्त्रकार ऋषियों ने अपने सम्पूर्ण शास्त्रों और संस्थाओं को आत्मा के रंग में रंग डाला है। संस्कारमय जीवन आध्यात्मिक साधना की दृढ़ भूमिका है। संस्कारों के द्वारा आध्यात्मिक जीवन का क्रमशः विकास होता है। संस्कारवान व्यक्ति अनुभव करता है कि उसका सारा जीवन एक महान यज्ञ है और जीवन की प्रत्येक भौतिक क्रिया का सम्बन्ध आध्यात्मिक तत्व से हैं। संस्कारों के द्वारा ही कर्म प्रधान सांसारिक जीवन का मेल आध्यात्मिक अनुभव से होता है। इस प्रकार संस्कारवान जीवन से शरीर और उसकी विविध क्रियाएँ पूर्णता की प्राप्ति में बाधक न होकर साधक होती हैं। शास्त्रोक्त संस्कारों को नियमपूर्वक करता हुआ मनुष्य भौतिक बन्धन और मृत्यु को पार करके अमृतत्त्व को प्राप्त करता है।


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