पंचकोश और उनका अनावरण

December 1998

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मानवी-चेतना को पाँच भागों में विभक्त किया गया हैं इस विभाजन को पाँच कोश कहा जाता हैं अन्नमय कोश का अर्थ है, इन्द्रिय चेतना। प्राणमय कोश अर्थात् जीवनीशक्ति। मनोमय कोश-विचार-बुद्धि। विज्ञानमय कोश-अचेतन सत्ता एवं भाव-प्रवाह आनन्दमय कोश-आत्मबोध-आत्मजाग्रति

प्राणियों का स्तर इन चेतनात्मक परतों के अनुरूप ही विकसित होता है। कृमि-कीटकों की चेतना इंद्रियों की प्रेरणा के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है। उनका ‘स्व’ काया की परिधि में ही सीमित रहता है। इसमें आगे की न उनकी इच्छा होती है, न विचारणा, न क्रिया। इस वर्ग के प्राणियों को अन्नमय कह सकते हैं आहार ही उनका जीवन है। पेट तथा अन्य इन्द्रियों का समाधान हो जाने पर वे संतुष्ट रहते है।

प्राणमय कोश की क्षमता जीवनी-शक्ति के रूप में प्रकट होती है। संकल्प-बल साहस आदि स्थिरता और दृढ़ता बोधक गुणों में इसे जाना जा सकता हैं जिजीविषा के आधार पर ऐसे प्राण मनोबल का सहारा लेकर भी अभावों और कठिनाइयों से जूझते हुए जीवित रहते है, जबकि कृमि -कीटक ऋतुप्रभाव जैसी प्रतिकूलताओं से प्रभावित होकर बिना संघर्ष किये प्राण त्याग देते हैं। सामान्य पशु-पक्षी इसी स्तर के होते हैं। इसलिए साहसिकता के अनुरूप उन्हें प्राणी कहा जाता है। निजी उत्साह-पराक्रम करने के अभ्यास को प्राणशक्ति कहते हैं यह विशेषता होने के कारण कृमि-कीटकों की तुलना में बड़े आकार के पुरुषार्थी जीव प्राणधारियों की संज्ञा में गिने जाते है। यों जीवन तो कृमि कीटकों में भी होता है, पर वे प्रकृति-प्रेरणा की कठपुतली भर होते है। निजी संकल्प विकसित होने की स्थिति बनने पर प्राणतत्त्व का आभास मिलता हैं यह कृमि–कीटकों से ऊँची स्थिति हैं

मनोमय स्थिति विचारशील प्राणियों की होती हैं यह और भी ऊँची स्थिति है। मननात् ‘मनुष्यः। मनुष्य नाम इसलिए पड़ा कि यह मनन कर सकता है। मनन अर्थात् चिंतन। यह पशु-पक्षियों से ऊँचा स्तर है। इस पर पहुँचे हुए जीव को मनुष्य संज्ञा में गिना जाता है। कल्पना, तर्क, विवेचना, दूरदर्शिता जैसी चिन्तनात्मक विशेषताओं के सहारे औचित्य-अनौचित्य का अन्तर करना संभव होता हैं। स्थिति के साथ तालमेल बिठाने के लिए इच्छाओं पर अंकुश रख सकना इसी आधार पर संभव होता है।

विज्ञानमय कोश इससे भी ऊँची स्थिति है। इसे भावसंवेदना का स्तर कह सकते है। दूसरों के सुख-दुख में भागीदार बनने की सहानुभूति के आधार पर इसका परिचय प्राप्त किया जा सकता हैं। आत्मभाव का, आत्मीयता का विस्तार इसी स्थिति में होता है। अन्तःकरण विज्ञानमय कोश का ही नाम हैं। दयालु, उदार, सज्जन, सहृदय, संयमी, शालीन और परोपकारपरायण व्यक्तियों का अंतराल ही विकसित होता है। उत्कृष्ट दृष्टिकोण और आदर्श क्रिया−कलाप अपनाने की महानता इसी क्षेत्र में विकसित होती है। महामानवों का यही स्तर समुन्नत रहता है।

चेतना का यह परिष्कृत स्तर, सुपर ईगो, उच्च, अचेतन आदि नामों से जाना जाता है इसकी गति सूक्ष्मजगत में होती है। वह ब्रह्माण्डीय सूक्ष्मचेतना के साथ अपना संपर्क साध सकती हैं अदृश्य आत्माओं, अविज्ञात हलचलों और अपरिचित संभावनाओं का आभास इसी स्थिति में मिलता है। अचेतन ही वस्तुतः व्यक्तित्व का मूलभूत आधार होता हैं इस अचेतन का अभीष्ट उपयोग कर सकना परिष्कृत विज्ञानमय कोश के लिए ही संभव होता है।

आनन्दमय कोश आत्मा की उस मूलभूत स्थिति की अनुभूति है, जिसे आत्मा का वास्तविक स्वरूप कह सकते है। सामान्य जीवधारी यहाँ तक कि अधिकांश मनुष्य भी अपने आपको शरीर मात्र मानते हैं और उसी के सुख-दुख में सफलता-असफलता अनुभव करते रहते हैं आकांक्षाएँ, विचारणाएँ एवं क्रियाएँ इसी छोटे क्षेत्र तक सीमाबद्ध रहती है। यही भवबंधन है। इसी कुचक्र में जीव को विविध-विधि त्रास सहने पड़ते हैं आनन्दमय कोश जाग्रत होने पर जीव अपने को अविनाशी, ईश्वर अंश, सत्य, शिव, सुन्दर मानता है। शरीर, मन और साधन एवं संपर्क परिकर को मात्र जीवनोद्देश्य के उपकरण मानता है। यह स्थिति ही आत्मज्ञान कहलाती है। यह उपलब्ध होने पर मनुष्य हर घड़ी सन्तुष्ट एवं उल्लसित पाया जाता हैं जीवनमंच पर वह अपना अभिनय करता रहता है। उसकी संवेदनाएँ भक्तियोग विचारणाएँ ज्ञान ओर क्रियाएँ कर्मयोग जैसी उच्चस्तरीय बन जाती हैं ईश्वर मानवी संपर्क में आनंद की अनुभूति बनकर आता हैं रसौ वै सः श्रुति में उस ब्रह्म की उच्चस्तरीय सरसता के रूप में व्याख्या की हैं सत, चित, आनन्द की संवेदनाएँ ही ईश्वर -प्राप्ति कहलाती है, अपना और संसार का वास्तविक सम्बन्ध और प्रयोजन समझ में बिठा देने वाला तत्त्वदर्शन हृदयंगम होने पर ब्रह्मज्ञानी की स्थिति बनती हैं इसी को जीवनमुक्ति, देवत्व की प्राप्ति, आत्मसाक्षात्कार, ईश्वरदर्शन आदि नामों से पुकारते है

आत्मपरिष्कार के इस उच्चस्तर पर पहुँच जाने के उपरान्त अभावों, उद्वेगों से छुटकारा मिल जाता है। परम संतोष का, परम आनंद का लाभ मिलने लगने की स्थित आनंदमय कोश की जाग्रति कहलाती है। ऐसे ब्रह्मवेत्ता अस्थि-माँस के शरीर में रहते हुए भी ऋषि, तत्त्वदर्शी देवात्मा एवं परमात्मा स्तर तक उठा हुआ सर्वसाधारण को प्रतीत होता है। उसकी चेतना कोष व्यक्तित्व का स्वरूप, सामान्य नर-वानरों की तुलना में अत्यधिक परिष्कृत होता है, तद्नुसार वे अपने में आनंदित रहते ओर दूसरों को प्रकाश बाँटते हैं

पंचकोशों का जागरण जीवन चेतना के क्रमिक विकास की प्रक्रिया हैं यह सृष्टिक्रम के साथ मंथरगति से चल रही है। यह भौतिक विकासवाद है। मनुष्य प्रयत्नपूर्वक इस विकासक्रम को अपने पुरुषार्थ से साधनात्मक पराक्रम करके अधिक तीव्र कर सकता है और उत्कर्ष के अंतिम लक्ष्य तक इसी जीवन में पहुँच सकता हैं यही पंचकोशी साधना है। कोशों के जाग्रत होने पर व्यक्ति का स्तर कैसा होता है, इसकी जानकारी शिव गीता में इस प्रकार दी गई है-

कामक्रोधस्तथा लोभो मोहो मातसर्यमेव च। मदश्चेत्यरिषड्वगों ममतेच्छादयोऽपि च॥

मनोमयस्य कोशस्य धर्मा एतस्य तत्र तु। एव मनः समाधाय संयतो मनसि द्विजः॥ अथ प्रवर्तयेश्च्चिंत निराकरे परात्मनि॥

काम -क्रोध, लोभ-मोह मद -मत्सर यह छह शत्रु और ममता, तृष्णा आदि दुष्प्रवृत्तियाँ मनोमय कोश में छिपी रहती है कोश साधना से उनका निराकरण होता है। मानसिकता स्थिरता आने पर चित परब्रह्म परमात्मा में लग जाता हैं।

पाँच कोश जीवात्मा पर चढ़े हुए पाँच आवरण हैं प्याज, की, केले के तने की परतें जिस प्रकार एक के ऊपर एक होती है उसी प्रकार आत्मा के प्रकाशवान स्वरूप का अज्ञान आवरण से ढके रहने वाले यह पाँच कोश है। उन्हें उतारते चलने पर कषाय-कल्मष नष्ट होते है और आत्मसाक्षात्कार का, ईश्वरप्राप्ति का परमलक्ष्य प्राप्त होता हैं

उपनिषद् का तत्त्वदर्शी ऋषि पंचकोश संबंधी जिज्ञासा का समाधान इस प्रकार करता है-

पंच कोशाः के? अन्नमयप्राणमयमनोंमय विज्ञानमया-नन्दमयाः पंच कोशा।

पाँच कोश कौन-कौन है?

-अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश और आनन्दमय कोश।

अन्नमयः काः? अन्नरसेनेव भूत्वाऽन्नरसेनाभिवृद्धि प्राप्यन्नरमसय प्राथिव्याँ यद्धिलीयते सोऽन्नमयकोशः। तदेव सथूलशरीरम्।

अन्नमय कोश किसे कहते है? जो अपने अन्न के रस से उत्पन्न होता है। जो अन्नरस से ही बढ़ता है और जो अन्न रूप पृथ्वी में ही लीन हो जाता है, उसे अन्नमय कोश एवं स्थूलशरीर कहते है।

प्राणमयः कोशः कः? कर्मेन्द्रियैः सह प्राणदियं चकं प्राणामयकोशः।

प्राणमय कोश किसे कहते है?

प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान इन पाँच वायुओं के समूह को और कर्मेन्द्रिय पंचक के समूह को प्राणमय कोश कहते है, संक्षेप में यही क्रिया शक्ति है।

मनोमयः कोशः कः? ज्ञानेनिद्रयैः सह मनो मनोमयकोशः।

मनोमय कोश क्या है?

मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियों के समूह के मिलने से मनोमय कोश बनता है इसे इच्छाशक्ति कह सकते है।

विज्ञानमयः कोशः कः? ज्ञानेन्द्रियैः सह बुद्धिर्विज्ञानमयकोशःः।

विज्ञानमय कोश क्या है?

-बुद्धि और पाँच ज्ञानेन्द्रियों का समन्वय विज्ञानमय कोश है। यह न शक्ति हैं

आनन्दमयः कः? स्वरुपाज्ञानमानन्दमयकोशः तत्कारणशरीरम।

आनन्दमय कोश क्या है?

इसी प्रकार कारण रूप अविद्या में रहने वाला रज और तम के संयोग से मलिन सत्व के कारण कुंठित वृत्ति वाला कोश ही आनन्दमय कोश है।

हनुमान जी ने हमेशा भगवान राम के विनम्र स्वयंसेवक की भूमिका निभाई। कभी अपनी कामना नहीं थोपी। रामराज्य की स्थापना के साथ सुग्रीव ने भी राज्य सँभाला, अंगद भी राजा बने, किन्तु हनुमान जी के मात्र राम की सेवकाई कार्य अपने ऊपर लिया। हनुमान जी से बार-बार पूछे जाने पर उनने मात्र उनकी भक्ति माँगी। भगवान श्रीराम ने सीता जी से कहा-हनुमान को तत्त्वज्ञान का उपदेश दो। सीता ने इन्हें ब्रह्मतत्त्व का उपदेश दिया, जबकि श्रीराम ने उन्हें प्रकृति तत्व, शक्ति तत्व का उपदेश दिया। उपदेश के बाद भगवान ने हनुमान जी से पूछा- अब क्यों सोचते हो, अब भी कुछ माँगना है तो माँग लो?


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118