परिस्थितियों का विहंगावलोकन युगसाधना के परिप्रेक्ष्य में

December 1998

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पचास साल या आधी सदी का पिछला कालखण्ड राष्ट्रीय जीवन के इतिहास में मानकों का अकल्पनीय परिदृश्य कुछ ऐसा है, जिससे आज हमारी अपनी भारतीय अस्मिता या भारतीयता की पहचान ही संशय और दुविधा से ग्रस्त हो चली है। भारतीयों को लेकर बहुतों के मन में जो कल्पना उठती है, वह आज की आर्थिक, राजनीतिक उथल-पुथल में धूमिल पड़ गयी है। आज का भारतीय समाज जिस तरह टुकड़ों में बँटकर हिंसा, दुराग्रह, भ्रष्टाचार और अविश्वास के चलते मूल्यहीनता के दलदल में फँसता जा रहा है, वह राष्ट्रीय और मानवीय इतिहास में एक अभूतपूर्व स्थिति है। स्वराज्य और स्वाधीनता की मशाल लेकर जिस अंधेरे को दूर भगाने के लिए अहिंसक और क्राँतिकारी उपायों की सहायता से इस गरीब देश ने ब्रिटिश साम्राज्य से टक्कर ली थी और नेतृत्व गाँधी जैसे तपस्वी व्यक्ति के हाथ में था, इस बात पर भरोसा करने को दिल नहीं मानता। हमारे सरोकार, रीतिरिवाज, आदर्श और लक्ष्य जो हमारे आचरण का नक्शा बनाते हैं, प्रश्नों के दायरे में आ गये हैं।

ये सवाल हमारे अस्तित्व के मर्मस्थानों को कुछ इस तरह छीलते और कुरेदते हैं, जिससे असहनीय विकलता होती है। जो सच्चाई उभरकर सामने आती है, वह यही बयान करती है कि अशिक्षित, अभावग्रस्त तथा पिछड़े समझे जाने वाले वनवासी किसी के लिए विपत्ति का कारण नहीं बनते, पर बुद्धिमानों, धनवानों, सत्ताधारियों, कलाकारों ने अपनी समर्थता का दुरुपयोग करके जनसाधारण को जो हानि पहुँचाई है, उसका लेखा-जोखा सामने रखने पर आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है। विज्ञान ने जिन प्रलयंकर आयुधों का निर्माण करके उद्धतों के हाथ में सौंप दिया है, उसे देखते हुए मानवीय अस्तित्व ही आतंकित, आशंकित हो रहा है। एटमी हथियारों के साये में पल रहे नन्हें-नन्हें मासूम बच्चे साधारण शाक-भाजी के लिए तड़पते-तरसते हैं। दुर्व्यसनों, अनाचारों, अपराधों का घटाटोप समर्थता और सम्पन्नता के सहारे दैत्य-दानव की तरह बढ़ा है। कुचक्रों, षड्यंत्रों और छल प्रपंचों की करतूतें दिनों-दिन गगनचुम्बी बनती चली जा रही है। यह बुद्धिमत्ता की ही कुटिल देन है।

विचारणीय यह है कि आज की परिस्थितियों पर, वर्तमान के घटाटोप अंधेरे पर अंकुश कौन लगाए? कैसे लगाए? कैसे लगाए? प्रत्यक्ष है कि बाहरी रोकथाम इस संदर्भ में असफल न सही, पर दुर्बल और उपहासास्पद जरूर रही है। रिश्वत लेने और देने वालों के विरुद्ध कानून है। दहेज और छुआछूत को अपराधों में गिना और दण्डनीय ठहराया गया है। व्याभिचार के बलात्कार के विरुद्ध कड़े कानून हैं। कोई भी कुकृत्य ऐसा नहीं है, जिसके विरुद्ध दण्ड-विधान न हो। न्यायाधीशों की नियुक्ति इसी निमित्त होती है। पुलिस यही देखभाल करने में जुटी रहती है। बंदीगृहों की इमारतें इसी रोकथाम के लिए खड़ी हैं। इस सरंजाम की आवश्यकता को उपयोगी मानते हुए भी, जब यह पर्यवेक्षण होता है कि अपराधों के विस्तार में इस प्रतिबंध से कितनी रोकथाम हुई तो निराशा भरी गहरी साँस लेते हुए सफलता को नगण्य और असफलता की बहुलता को स्वीकार करना पड़ता है।

आज चतुराई इतनी बढ़ गयी है, कि कोई किसी को भी चकमा दे सकता है। जब लोग स्वयं के साथ ईश्वर एवं समाज की आँखों में धूल झोंकने में जुटे हैं, ऐसे में शासन के नियंत्रण की बिसात ही क्या है जो अपनी ढीली पकड़ से अनाचार को शिकंजे में कस सके। नीति-मर्यादा निर्वाह के बिना समाज का व्यवस्थाक्रम कैसे चले? अनाचार के घुटन भरे वातावरण में कोई भला आदमी भी कहाँ तक साँस रोके खड़ा रहे? आज के तूफानी प्रवाह में किसी हल्के-फुल्के के पाँव कब तक टिके रहें?

व्यक्ति के दृष्टिकोण में निकृष्टता, स्वभाव में दुष्टता और आचरण में भ्रष्टता का अनुपात बढ़ेगा तो फिर निजी जीवन तथा सामाजिक प्रचलन में शालीनता, सुव्यवस्था का स्थिर रहना कठिन है। प्रगति की तूफानी गति ने देश और समाज में मत्स्य न्याय को, जंगल के कानून को, जिसकी लाठी उसकी भैंस को मानवी रीति-नीति का अंग बना दिया है। नीत्सेवाद, स्वेच्छावाद, अवज्ञावाद, उपयोगितावाद जैसे कितने ही दर्शन इस बात का खुला प्रतिपादन करने में जुटे हैं कि नीति-मर्यादाओं का, धर्म-सदाचार का जो झीना-पुराना लबादा बच रहा है, उसे भी उतार कर कचरे के ढेर में फेंक दिया जाय। आचरण के क्षेत्र में तो आस्तिक नास्तिकों की तुलना में बुरे सिद्ध हो रहे हैं। धर्मात्मा की तुलना में वे कहीं अच्छे सिद्ध हो रहे हैं जो अपने को धार्मिकता का पक्षधर तो नहीं कहते, किंतु भले मनुष्यों जैसा जीवन जीते हैं।

यों धरती पर सदा न तो सब भले लोग ही होते है और न सब बुरे ही। दोनों का अस्तित्व किसी-न-किसी रूप में हर स्थान पर, हर क्षेत्र में पाया जाता है। सवाल बहुलता का है। आजादी के बाद अपने देश का एक वर्ग जहाँ साधनों की दृष्टि से सम्पन्न होता जा रहा है, वहीं उसका दृष्टिकोण, स्वः चरित्र एवं लक्ष्य क्रमशः अधिकाधिक पतनोन्मुख हुए है। वर्गविशेष के पास साधनों की बहुलता होते हुए भी सामूहिक जीवन में विपन्नता द्रुतगति से बढ़ती चली जा रही दुर्बलता, रुग्णता, चिंता, उद्विग्नता, तंगी, गरीबी, असुरक्षा, आशंका से जितना आतंकित मनुष्य आज है, उतना कदाचित उससे पूर्व कभी भी न रहा होगा। आपाधापी, निष्ठुरता और आक्रामकता की बढ़ती हुई दुष्प्रवृत्तियाँ-लगता है कहीं हमारे राष्ट्रीय अस्तित्व एवं मानवीय सौंदर्य को निगल ही न लें।

एक ओर उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ, दूसरी ओर महाविनाश की परिस्थितियाँ। दोनों के मध्य सामान्य बुद्धि के द्वारा कोई कड़ी नहीं जुड़ती। यह पहेली उलटी-सीधी सहज ही सुलझाने वाली नहीं है। विसंगतियों के मध्यवर्ती सूत्रों को जोड़ने के लिए मानवी प्रकृति के मर्मस्थल तक पहुँचाना होगा और समझना होगा कि व्यक्ति की मूलभूत सत्ता उसकी आस्थाओं पर अवलम्बित है। विशेषतः आस्थाओं पर अवलम्बित है। विशेषतः मानवी गरिमा, जिसे प्रकारांतर से दूरदर्शी विवेकशीलता, चरित्रनिष्ठा, उदार सहकारिता आदि नामों से पुकारा जाता है। मानवी व्यक्तित्व ही वह धुरी है, जिसका स्तर गिरने या उठने से मनुष्य भला-बुरा सोचता और बनता है। इस मर्मस्थल तक पहुँचने की सामर्थ्य उन साधनों में नहीं है, जिनके आधार पर सामान्य जानकारियों का आदान-प्रदान होता रहता है। नीति, धर्म सदाचार की शिक्षा देने वालों की कहीं कोई कमी नहीं। इस संदर्भ में भाषणों और पुस्तकों की भी कमी नहीं।उतने पर भी उन्हें ध्यान से पढ़ने और श्रद्धापूर्वक अपनाने वाली पृष्ठभूमि ही नहीं है, जो उन परामर्शों पर गौर करे और अपनाने के लिए संकल्प भरी श्रद्धा उभारे। इसमें दोष न प्रचारतंत्र का और न निरोधक विधि-व्यवस्था का। दुर्बलता उस आसक्त-अन्तराल की है।, जो तत्त्वदर्शन और साधना-प्रयोग का खाद-पानी न मिलने के कारण अपनी उर्वरता गँवा बैठी है और मरुस्थल जैसा अनगढ़ और श्मशान जैसा वीभत्स बन कर रह रही है।

आस्था-क्षेत्र को सुधारने-सँभालने और सँजोने की जिम्मेदारी जिस विधि-व्यवसाय के ऊपर निर्भर है, उसी को अध्यात्म-साधना कहा गया है। यह आसक्त प्रधान होने से उसी स्तर की है, जो सहगामी विकृतियों से उबार सके। दल-दल में फँसे हाथी को प्रशिक्षित हाथी ही जंजीर से जकड़कर किनारे तक घसीट जलाने में सफल होते है। लाठी को रोकने के लिए लाठी और घूँसे की प्रत्युत्तर घूँसे से देने पर ही काम बन पड़ता है। मानवीय आसक्ति संसाधन के अवांछनीयता से विरत करके उसे शालीनता का पक्षधर बनाने के लिए आध्यात्मिक साधना की प्रयोग-प्रक्रिया का अवलम्बन ही एकमात्र उपाय है।

प्रचलित आध्यात्मिकता का स्वरूप अलंकारिता ने कुछ-का-कुछ कर दिया है। प्रतीकों का अवलम्बन सीढ़ी के सहारे ऊपर तक चढ़ने जैसा होना था, पर वे भ्रान्ति-ग्रस्त होकर साध्य बन गए है। इष्ट कहते है-जीवन-लक्ष्य को। अब उस स्थान पर सस्ते मनुहार को बाँटने, असंगत मनोकामना पूरी करने वाले देवी-देवता आ विराजे है। आत्मशोधन के स्थान पर देवता को फुसलाने और उससे उचित-अनुचित मनोकामना पूरी करा लेने भर का बाल-विनोद आडम्बरों से लदकर बैठ गया है। विडम्बना कितनी ही बड़ी क्यों न हो, उसे अध्यात्म साधना की मान्यता नहीं मिल सकती। इन दिनों जादूगरी और ब्रह्म-विद्या का एक ही अर्थ बनकर रह गया है चमत्कार-कुतूहल दिखाने वालों का उस खुली बिरादरी में जमघट लगा रहता है, पर यह वास्तविकता थोड़े ही है। इसे अधिक-से-अधिक प्रवंचना का प्रपंच भर कह सकते है। साधना-विज्ञान का स्वरूप इससे ऊँचा है। मानवीय अन्तःकरण को इसी से परिष्कृत कर व्यक्ति एवं समाज में परिवर्तन लाए जा सकते है।

मनुष्य की दूरदर्शी विवेकशीलता को जगाया जाना आवश्यक है।उसे अपनी गौरव-गरिमा का बोध होना चाहिए। साथ ही आस्था-क्षेत्र के उस विभूति भण्डार का भी ज्ञान होना चाहिए, जहाँ से मनुष्य में देवत्व का उदय होता है और उतना बन पड़ने पर सर्वत्र ऐसा वातावरण उमड़ पड़ता है, जिसे धरती पर स्वर्ग का अवतरण कहा और अनुभव किया जा सके।

न केवल नीति-सदाचार के सनकी में मनुष्य को साधनात्मक पुरुषार्थ का अवलम्बन उच्चस्तरीय स्तर तक पहुँचा सकता है वरन् उसे वह विवेक-दृष्टि और साहसिकता भी प्रदान कर सकता है, जिसके सहारे व्यक्तित्व में सन्निहित अनेकानेक प्रतिभाओं को भी प्रखर परिष्कृत किया जा सके। जड़ पदार्थ को भौतिक-विज्ञान ने अनगढ़ स्थिति से अविज्ञान के गर्त से उबारा और मानवीय विधा-सम्पादन की दृष्टि से असाधारण रूप से उपयोगी बनाया है, परंतु व्यक्ति की आंतरिक संरचना एवं समाज की प्रवृत्तियों में अपेक्षित परिवर्तन लाने के लिए अध्यात्म-विज्ञान को भी प्राचीनकाल की तरह इन दिनों अपनी वरिष्ठता सिद्ध करनी है और प्रमाणित करना है। व्यक्तित्व को प्रखर बनाने, स्तर की दृष्टि से असाधारण रूप से समुन्नत बनाने की क्षमता उसमें विद्यमान है। आध्यात्मिक साधनाओं में महान शक्ति हैं निश्चित रूप से विज्ञान से भी बड़ी। विज्ञान मात्र सुविधा-संवर्द्धन में समर्थ है, जबकि आध्यात्मिक साधनाएँ व्यक्ति के अंतराल में ऐसे तत्वों की प्रतिष्ठापना कर सकने में समर्थ होती है, जिनके सहारे विकृतियों के माहौल से लड़ सकना और उन्हें पूरी तरह निरस्त कर सकना हो सके। सामयिक विकृतियों समस्याओं और विभीषिकाओं के समाधान में उसका अनुपम योगदान हो सकता है, साथ ही उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना का सबसे बड़ा आधार भी उसी के सहारे खड़ा हो सकता है। स्मरण रहे, इक्कीसवीं सदी में जिस उज्ज्वल भविष्य का दिव्यदर्शन किया गया है, वह साधनों की बहुलता से नहीं, व्यक्तित्वों की प्रखरता और पवित्रता से ही साकार होगा। अध्यात्म साधनाओं को समझने स्वीकार करने और अपनाने से ही भविष्य में प्रगति और समृद्धि का विस्तार सम्भव बन सकेगा।


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