युगसाधना की पूर्णता की ओर बढ़ते कदम

December 1998

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वर्ष १९९६ की समाप्ति के साथ ही हम सभी इक्कीसवीं सदी की ओर एक कदम और बढ़ चले। इसी के साथ इस युग के अभूतपूर्व युगसन्धि महापुरश्चरण की विशिष्ट साधना का एक वर्ष और पूरा हुआ। हममें से प्रत्येक परिजन की नजर आगामी दो वर्ष बाद सम्पन्न होने वाले महापूर्णाहुति आयोजन पर टिकी है। इन दिनों दृश्य और अदृश्य जगत में महापरिवर्तनों की भरी उथल-पुथल होती है, उसमें से कुछ घटनाक्रम तो मन्दगति से चलते रहते है।, पर कुछ ऐसे होते हैं, जिनमें परिवर्तन की प्रक्रिया बढ़े-चढ़े रूप में होती है और हर किसी को दिखाई भी पड़ती है। तपते ग्रीष्म के बाद आने वाली घटाटोप वर्षा के बीच इतने प्रकार के परिवर्तन होते हैं, मानो सृष्टि का क्रम ही बदल रहा हो। पतझड़ के बाद आने वाला बसन्त भी असाधारण उलट-पुलट का परिचायक होता है। बीज बोने और फसल काटने के दिनों में तैयारी तथा योजना ऐसी होती है, जिसके बीच संगति नहीं बैठती। १७ नवम्बर की रात को हुई भारी उल्कावृष्टि का नजारा भी कुछ ऐसा रहा-जिसका इक्कीसवीं सदी में आने वाले उज्ज्वल भविष्य से ताल-मेल बिठा पाना यदि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है।

आगामी दो वर्ष भी कुछ ऐसी ही हैं, जिनमें भगवान महाकाल के ताण्डव नर्तन के रोमांचकारी दृश्य स्पष्ट देखे और सुने जा सकेंगे। ऐसे विशिष्ट अवसर जब भी जहाँ कहीं आते हैं विशेष उत्तरदायित्वों को अपने साथ लिए आते हैं। घर-परिवार में भी विशेष अवसरों पर मित्र-कुटुम्बी सगे-सम्बन्धी सभी एकत्रित होते हैं, ताकि उस विशेष घटना की प्रतिक्रियाओं से परिचित होने के अतिरिक्त आवश्यक योगदान भी दे सकें। प्रसवकाल में जहाँ सुसमाचार मिलने की सम्भावना रहती है, वहाँ असह्य कष्ट से लेकर जोखिम तक का खतरा रहता है। सगे-सम्बन्धी इस सूचना को पाकर इर्द-गिर्द ही रहते है, ताकि किसी प्रकार की आवश्यकता पड़ने पर अपनी कोई भूमिका निभा सकें। मृत्यु, बीमारी या दुर्घटना का समाचार सुनकर भी स्वजन दौड़े आते हैं। लोकाचार निर्वाह के लिए ही नहीं, इसलिए भी कि उस संकट की घड़ी में उनको किसी प्रकार की सहायता अपेक्षित हो तो उसे भावनापूर्वक कर सकें। बिखरे हुए कुटुम्बी अवसर किसी बड़े त्योहार पर एकत्रित होते हैं, ताकि दूर-दूर रहने के कारण जो आत्मीयता घट जाती है, उसे साल में एक दो-बार तरोताजा करके उपेक्षावृत्ति विकसित न होने दी जाए।

गायत्री परिवार ने इस दिशा में अपना बड़ा कदम वर्ष १९९५ में प्रथम पूर्णाहुति के अवसर पर बढ़ाया था। परमपूज्य गुरुदेव की जन्मभूमि आँवलखेड़ा में सम्पन्न हुए इस सहस्रकुण्डीय महायज्ञ में, गायत्री परिवार के जितने भी प्रमुख सदस्य थे, वे लगभग सभी उस अवसर पर एकत्रित हुए थे। इसका उद्देश्य था-युगसन्धि महापुरश्चरण की पहली पूर्णाहुति करने के साथ देवसंस्कृति को उपेक्षित स्थिति से उबारना और उसमें पुनर्जीवन जैसी प्राणचेतना उत्पन्न करना। इस महाआयोजन में अत्यन्त महत्वपूर्ण और दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने वाले निर्णय हुए। संगठन का स्वरूप भी अति व्यापक बनकर उभरा। हजारों-हजार नए लोग जुड़े, जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्रों में आँधी-तूफान की गति से प्रज्ञा-प्रवाह को फैला दिया। स्थिति यहाँ तक बन गयी है कि इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य विश्वविधान का एक अनिवार्य सत्य बन गया है।

इक्कीसवीं सदी के आगमन में अब सिर्फ दो वर्ष बाकी बचे हैं। यह संधिपर्व माना गया है। सन्ध्याकाल, ग्रहणकाल, ऋतुपरिवर्तन आदि ऐसे ही मध्यान्तर होते हैं, जिनमें अपने-अपने ढंग की विशेषताएँ देखी जाती हैं। सन् १९८१ से आरम्भ होकर सन् २००० तक चलने वाले इन बारह वर्षों का समय प्राणवानों के निमित्त महाकाल की एक विशेष चुनौती माना गया था और कहा गया था कि वे अपने निजी व्यामोह में यथासम्भव कटौती करें और युगधर्म के परिपालन में ऐसा उच्चस्तरीय दायित्व निभाएँ, जिससे उद्भूत तप-ऊर्जा से नवयुग की ज्ञानगंगा के सतयुगी गंगावतरण की फिर से पुनरावृत्ति हई देखी जा सके।

यह युगसाधना मूलतः भाव, ज्ञान और कर्म के अदृश्य तथ्यों पर आधारित है पर सर्वसाधारण का दृश्यमान परिचय प्राप्त हो सके, इसके लिए बारहवर्षीय प्रत्यक्ष पुरश्चरण की आवश्यकता पड़ी। उपयुक्त वातावरण बनाने, इसे अपनाने और प्रवाह में बहने की इससे आशा की गयी है। सन् १९८१ से आरम्भ हुआ यह पुरश्चरण सफलतापूर्वक अपने १० वर्ष पूरे कर रहा है। प्रज्ञासंस्थानों और प्रज्ञामण्डलों में उसकी छोटी अनुकृतियाँ साप्ताहिक सत्संगों के रूप में हो रही है। दीपयज्ञों के विशालकाय समारोह इसी संदर्भ में हो रहे हैं और भी अनेक गतिविधियों का उद्घाटन, शुभारम्भ, विस्तृतीकरण अपने ढंग से होता रहा है, जिनका प्रत्यक्ष परिचय परिजनों को समय-समय पर मिलता रहा है- आगे भी समय-समय पर यही क्रम जारी रहेगा।

बारहवर्षीय इस युग-साधना में आगामी दो वर्ष अपेक्षाकृत अधिक विशिष्ट और महत्वपूर्ण हैं। इस विशिष्टता का दिव्यदर्शी प्रज्ञावान अधिक स्पष्टता से देख सकते हैं। अखण्ड ज्योति परिजनों में से प्रत्येक से यह अपेक्षा की गयी है कि इस परिवर्तन पर्व में वे मात्र मौनदर्शक न रहेंगे भीम, अर्जुन अंगद, हनुमान जैसे पराक्रम न सही तो वे शबरी, गिलहरी, गिद्ध जैसी समर्पित भूमिका तो अवश्य निभा सकेंगे। समय का अपना महत्व होता है, जो गुजर जाने पर फिर हाथ नहीं आता। समझा जाना चाहिए कि युगसन्धि के इन बचे हुए दो वर्षों में इतना कुछ सम्पन्न होना है, जिसे चिरकाल तक स्मरण किया जा सके।

युगसन्धि महापुरश्चरण का एक पक्ष है- सूक्ष्म वातावरण को सृजनात्मक प्राणचेतना से भर देना। दूसरा है- इस महाअभियान में सम्मिलित होने वालों की प्रत्यक्ष प्रतिभा का परिवर्धन करना। प्रतिभा हो तो प्राणचेतना और उसी के आधार पर मनुष्य की जीवटता, दूरदर्शिता, साहसिकता, क्षमता-दक्षता जैसी अनेकानेक विशेषताएँ उभरती हैं। उन्हीं के बल पर लोग लौकिक जीवन में सम्पन्नता और आन्तरिक जीवन में महानता अर्जित करने में सफल होते हैं। धन तो धूप-छाँव की तरह आँख-मिचौली खेलता रहता है, किन्तु यदि प्रतिभा का स्तर परिष्कृत बन जाय तो उसकी लाभ-श्रृंखला पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। स्वयं और दूसरों को आगे बढ़ने ऊँचा उठाने का पथ प्रशस्त करती रहती है।

युगसन्धिकाल में साधनापरक तपश्चर्या की साधना में जहाँ व्यक्ति की स्थिति के अनुरूप उपासना का विधान है, वहाँ हर भागीदार को न्यूनतम दो घण्टे समयदान के रूप में अपने क्षेत्र में अनुदान प्रस्तुत करते रहने का विधान है। यह पुण्य और परमार्थ का समन्वय ऐसा है, जिसके फलस्वरूप भागीदारों की प्रतिभा का परिष्कार, वातावरण में सृजन-चेतना का समावेश और नवनिर्माण में पुरुषार्थपरक योगदान तीनों ही पक्ष जुड़े हुए हैं और त्रिवेणी संगम की समता करते हैं। अभियान की इस भागीदारी को एक शब्द में उदीयमान सौभाग्य कह सकते हैं।

यों इस उदीयमान प्रकाशपुञ्ज से आलोकित तो विश्व का कोना-कोना होगा, पर उस सुसंचालन में भागीदारी की प्रमुखता और प्राथमिकता रहेगी। कहावत है कि शालीनता और उदारता का प्रारम्भ अपने घर से करना चाहिए। अपने निजी शरीर के उपरान्त मनुष्य का सबसे अधिक प्रभाव अपने परिवार पर ही होता है। कारण कि उस परिवार के लोग अनेक आदान-प्रदानों के सहारे असाधारण रूप से गुँथे रहते हैं। शान्तिकुञ्ज के सहभागी यों तो करोड़ों बन गए हैं और बनेंगे, पर शुभारम्भ श्रीगणेश के लिए तो अखण्ड-ज्योति के पाठकों-परिजनों से ही अपेक्षा की जाती है। उनके सहयोग पर उत्साह भी बढ़ता है और उपेक्षा बरतने पर निराशा भी होती है।

संदेशों और दायित्वों की एक निराली श्रृंखला है। उसकी कड़ियाँ समयानुसार अखण्ड ज्योति के पृष्ठों में खुलती और दिखाई देती रहेंगी। अभी इतना ही कहा जाना है कि अखण्ड ज्योति के सभी सदस्य स्वयं महाकाल द्वारा निर्देशित साधना-पुरुषार्थ में तत्पर हों, साथ ही अगले वर्ष प्रारम्भ होने वाले साधनावर्ष के कार्यक्रमों में अपनी सक्रिय भागीदारी निभाएँ। इस क्रम में समय निकालकर उन्हें शान्तिकुञ्ज में चलने वाले नौ दिवसीय सत्र में अवश्य सम्मिलित होना चाहिए। इसके प्रभाव से उनके भीतर दबी पड़ी महानता निखरेगी, साथ ही वे महाकाल की वाणी को अपने अंतर्मन में साफ-साफ सुन सकेंगे।

सन् २००० के बसन्त पर्व से सन् २००० के बसन्त पर्व तक पूर्णाहुति वर्ष मनाया जाएगा। सन् २००१ में इस युग की महासाधना की महापूर्णाहुति होगी। इसके लिए एक करोड़ साधकों की तैयारी अगले वर्ष मनाए जाने वाले साधनावर्ष में की जानी है। इस बीच लाखों प्राणवान कार्यकर्ता देवसंस्कृति की संस्थापना के लिए समर्पित-संकल्पित नजर आने लगेंगे। इनका स्तर कुछ इतना अलौकिक होगा, जिन्हें विवेकानन्दों का अभिनव संस्करण कहा जा सके।

इस महाकार्य के लिए समय और साधन दोनों की महती आवश्यकता है। यह आवश्यकता इतनी अधिक है, जिसकी कल्पना भी कर पाना आज की परिस्थितियों में जटिल है। इतने पर भी यह सुनिश्चित समझा जाना चाहिए कि निर्धारित योजना अपनी गति को तीव्र से तीव्रतर और तीव्रतम करती जाएगी। हाँ, इतना अवश्य है कि दैवीशक्ति की निर्धारित योजना को पूरा करने के लिए मुफ्त का श्रेय जो भी लेना चाहें ले सकते हैं।

इस दैवीयोजना के अन्य भी महत्वपूर्ण पृष्ठ हैं, जो समयानुसार अखण्ड ज्योति के पृष्ठों में खुलते रहेंगे और सामने आते रहेंगे। आज तो इतना ही समझ लेना पर्याप्त है कि इक्कीसवीं सदी इस विश्व की सबसे बड़ी, सबसे व्यापक और सबसे आश्चर्यजनक उथल-पुथलों से भी क्रान्ति है। उसके परिवर्तनों और घटनाक्रमों का अंकन तो इतिहास के पृष्ठों पर रहेगा ही, बड़ी बात यह है कि इसी अवधि में इतने महामानव दूध में से मलाई की तरह उछलकर ऊपर आएँगे, जिन्हें देखते हुए भगीरथ द्वारा किया गया गंगावतरण जैसी अनुभूति की जा सके। बगीचा लगाने वालों की तीन पीढ़ियाँ मोद मनाती हैं। स्वतन्त्रता सैनिक इन दिनों भी गौरवान्वित हो रहे हैं।

ऐसा ही कुछ अपने लिए प्राप्त कर सकना सम्भव हो सके, उसकी पृष्ठभूमि समझने के लिए युगसन्धि महापुरश्चरण की महासाधना में भाग लेने के लिए अखण्ड ज्योति के प्रत्येक परिजन का आह्वान किया जाता है। अच्छा हो, इसके लिए बहुत दिनों तक सोचने, विचारने में समय न गँवाया जाय, बल्कि आगामी वर्ष सम्पन्न होने वाले साधनावर्ष के कार्यक्रम से में बढ़-चढ़कर अपनी भूमिका निभाई जाय।


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