युगावतार का साधकों के लिए आश्वासन

December 1998

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दैवी अनुदान उपलब्ध करने वालों की सूची तैयार की जा सके तो अनादिकाल से लेकर आज तक एक भी ऐसा न मिलेगा, जिसने उन वरदानों को पुण्य-प्रयोजनों में खर्च न किया हो। जिन्होंने भी इस अलौकिक सम्पदा को अपनी वासना-तृष्णा में खर्च करने की भूल की, उन्हें दुर्गति ही सहन करनी पड़ी। भस्मासुर का प्रसंग सर्वविदित है, जिसमें उसे यातना, निन्दा और अन्त में सर्वनाश को ही भोगना पड़ा था। रावण, कंस, हिरण्यकश्यप, मारीच ने दैवी सिद्धियाँ प्राप्त करके उन्हें निकृष्ट स्वार्थों में लगाना चाहा, तो वे घाटे में ही रहे। यही सनातन क्रम है। “दैवी अनुदान दिव्य प्रयोजनों के लिए” का अकाट्य सिद्धान्त जो सही रूप से समझ पाते है।, उन्हीं की सर्वांगीण प्रगति में दैवी अनुकम्पा का, युगावतार का समुचित सहयोग बन पड़ेगा। सच्चे लाभार्थी ऐसे ही साधक और साधिकाएँ होंगी।

इन दिनों यह सुविधा अधिक सरलतापूर्वक असंख्यों को उपलब्ध हो रही है। वर्षा के दिनों में नमी और हरीतिमा का दृश्य अधिक स्थानों पर देखा जा सकता है। युगसन्धियों में दैवी तत्वों को उभारने के लिए युगावतार की अनुकम्पा वर्षा की तरह झरती है और जहाँ भी थोड़ी अनुकूलता पाती है, वहीं अपनी उत्पादन शक्ति का निश्चय देने लगती है। अवतारों के प्रकटीकरण की बेला में यह प्रवाह और भी तेजी से बहने लगता है। रीछ-वानरों ने, ग्वाल-बालों ने अपनी सदाशयता निश्चित की थी, इतने भर से उन्हें सामर्थ्य और श्रेय का अजस्र अनुदान मिलने लगा था, ठीक वैसा ही अवसर इन दिनों भी है।

कुछ समय ऐसे होते हैं, जब साधकों को सिद्ध ढूँढ़ते रहते हैं, जबकि सामान्य समय में तो साधक ही सिद्धिं को खोजते फिरते हैं। समय विषम होने के साथ अलौकिक भी है। ऐसे समय में युग की आवश्यकता पूरी करने लिए भगवान तूफान की तरह युगावतार बनकर आते है। और अपने प्रवाह में धूलिकणों और तिनकों तक को उठा कर गगनचुम्बी बनने का अवसर प्रदान करते हैं। इसमें सारा पुरुषार्थ उस प्रवाह का होता है, जिसके प्रेरक एवं प्रवर्तक युगावतार स्वयं होते हैं। उड़ने वालों में मात्र हल्का होने की पात्रता होती है। उन्हें सिर्फ अहं का सृजन करके स्वयं को युगदेवता के चरणों में समर्पित करना पड़ता है। बुद्ध के परिव्राजक और गाँधी के सत्याग्रही उन अहंकारियों की तुलना में कहीं अधिक लाभ में रहे, जिनसे लोभ-मोह की हथकड़ी-बेड़ी पुण्यपर्व के रहते हुए भी ढीली करते न बन सकी।

हमेशा से ही अवतारों के सहयोगी अपनी तुच्छ-सी सहायता का इतना बड़ा उपहार प्राप्त करते रहे हैं, जितना सामान्य रूप से कठिनतम साधनाएँ करने पर भी सम्भव न था। युगावतार साधना-परायण जनों का वरण करते हैं और उन्हीं के माध्यम से अपना प्रयोजन पूर्ण करते हैं। प्रज्ञावतार की पुण्यवेला में ऐसा ही सुयोग सामने है। उसमें साधकों के लिए अनुपम अनुदानों का सुअवसर अनायास प्रस्तुत है, किन्तु उसके साथ सदा की तरह अभी भी पुण्य-प्रयोजनों के लिए अनुदानों का उपयोग करने की शर्त जुड़ी हुई है। जो दूसरों की जेब काटकर अपनी मजेदारी का ताना-बाना बुनते है।, उनके लिए तो यह सुयोग भी सन्तोषप्रद सिद्ध न हो सकेगा।

युगसन्धि में नैष्ठिकों को विशिष्ट स्तर के और जाग्रतों को सामान्य स्तर के अनुदान दिए जा रहे हैं। प्रयास और परिश्रम की तुलना में यह उपलब्धि भी इतनी बड़ी है जिसे चन्दन के निकट उगे वृक्षों और पारस का स्पर्श करने वाले लौहखण्डों को मिलने वाले अनायास सौभाग्य के समतुल्य समझा जा सकता है। इसमें प्रयास स्वल्प और लाभ असाधारण हैं। ऐसे लाभ अवसर पहचानने वालों को ही मिलते हैं। युगावतार द्वारा साधकों को दिए जा रहे दैवी अनुग्रह हो इसी तरह का एक विशिष्ट सुयोग-सुअवसर माना जा सकता है।

अध्यात्म-चेतना के ध्रुवकेन्द्र देवात्मा हिमालय से इन दिनों ऐसे ही अनुदान निःसृत हो रहे हैं, जो साधकों को विकसित एवं समर्थ बनाने की दृष्टि से अतीव उपयोगी हैं। इन अनुदान प्रवाहों के तीन स्तर हैं’(१) स्थूलचेतना के लिए प्राणसंचार कुण्डलिनी अनुदान (२) सूक्ष्मचेतना के लिए ज्योति अवतरण दिव्यदृष्टि जागरण (३) कारणचेतना के लिए ब्रह्म संपर्क अमृत अनुभव। यह तीनों ही जीवन के तीनों क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं। इन्हें कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं भक्तियोग की साधना की सहज पूर्ति कर सकने वाले अनुदान कर सकते हैं। सत्कर्म, सद्ज्ञान और सद्भाव मही वे उपलब्धियाँ हैं, जिनके सहारे महामानव, ऋषि और अग्रदूत बनने का अवसर मिलता है। इनमें से इन दिनों जिसे अपने लिए जिस स्तर की आवश्यकता अनुभव होती हो, वह उन्हें इन दिनों बिना किसी अड़चन के उपयुक्त मात्रा में उपलब्ध कर सकता है। प्रसाद वितरण चल रहा हो तो उससे राहगीर भी लाभ उठा सकते है।

दिव्य-वितरण की उपर्युक्त तीनों धाराएँ युगदेवता स्वयं निस्सृत करेंगे। स्वयं को उनके कार्य में निमज्जित करने वाले, उनके चरणों में स्वयं को विसर्जित करने वाले इन्हें प्राणऊर्जा, दिव्यदृष्टि और सरसश्रद्धा के रूप में अनुभव कर सकेंगे। साधना की भाषा में इन्हें क्रमशः कुण्डलिनी जागरण, ज्योति अवधारण एवं रसानुभूति के के नाम से जाना जाता हैं। इन तीनों के ग्रहण केन्द्र क्रमशः ब्रह्मरन्ध्र, आज्ञाचक्र एवं हृदयचक्र में है। समर्थता, प्रतिभा, वरिष्ठता यह इन तीनों क्षेत्रों की सिद्धियाँ हैं। सिद्धपुरुष, अध्यात्म क्षेत्र की विभूतियों एवं क्षमताओं से सम्पन्न ऐसे ही व्यक्ति को कहते हैं। युगावतार के इस अनूठे अनुदान को पाने के लिए जो भी प्राणवान परिजन कदम बढ़ाएँगे, निश्चित ही उन्हें महान साधक होने का गौरव मिलेगा।


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