परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - संकटकाल की यह संधिवेला एवं उपचार हेतु महापुरश्चरण

December 1998

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(५ अगस्त, १९८० का शान्तिकुञ्ज परिसर में दिया प्रवचन)

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियो, भाइयो! बड़ी ही प्रसन्नता की बात है कि इस समय गायत्री महापुरश्चरण की साधना जगह-जगह पर चल रही है। अगर आप विचार करेंगे तो यह पायेंगे कि यह समय बहुत ही संकटकालीन है। इस समय इस धरती पर महामारी, युद्ध के बादल, वायु-प्रदूषण जैसे अनेक संकट घटाटोप की तरह छाये हुए हैं, जिससे महाप्रलय जैसी स्थिति बनती जा रही है। इस परिस्थिति को देखते हुए हमने आप लोगों को गायत्री महापुरश्चरण करने की सलाह दी थी और इस बात पर जोर डाला था कि आपको यह साधना करनी चाहिए। समय की माँग, समय की पुकार यह है कि इन दिनों वातावरण में जो अवांछनीय तत्वों का घुलन एवं मिलन हो गया है, उसे समय रहते निरस्त किया जाय, ताकि जनसाधारण की स्थिति ठीक हो सके एवं सभी को खुले वातावरण में साँस लेने का मौका मिल सके। आवश्यकता इस बात की है कि वातावरण को स्वच्छ बनाया जाय। आज का वातावरण बहुत दूषित हो चुका है। यह ऐसा है जो बच्चे के मस्तिष्क के ऊपर सीधा प्रभाव डालता है। इसके प्रभाव से वे एक कमजोर आदमी की तरह बहकर कहीं-से-कहीं जा पहुँचते है॥ वातावरण का परिशोधन इस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

मित्रो! इन दिनों जो परिस्थितियाँ हैं, वे अगले दिनों बहुत ही विपन्न एवं विषम होने वाली हैं। इसके कारण अनेक प्रलयंकारी घटनाएँ घटित होंगी, विनाश की लीला होगी। उस समय मनुष्य के ऊपर बहुत सारी मुसीबतें आयेंगी। चारों दिशाओं में आँधी-तूफान पानी-बाढ़ आदि का प्रकोप दिखाई देगा। इसका कारण है कि इस समय नेचर-प्रकृति नाराज हो चुकी है। वह बदला लेना चाहती है। इस परिस्थिति में कोई भी आदमी सुरक्षित नहीं है। मौसम का भी कोई ठिकाना नहीं रहेगा। गर्मी में सर्दी और सर्दी में गर्मी महसूस होगी। नित्य नयी-नयी बीमारियाँ बढ़ेंगी। डॉक्टरों के पास भी इसका कोई इलाज नहीं होगा। भाई-भाई में, पति-पत्नी में भी विश्वास नहीं होगा। सामूहिक बलात्कार, चोरी, उठाईगिरी, अनाचार, मारकाट जैसे अपराध, जो कि रावण के एवं कंस के जमाने में भी नहीं थे, उससे भी ज्यादा बढ़ेंगे। दहेजलोलुपों द्वारा बहुओं को जलाया जाएगा। लोगों में राग, द्वेष, अहंकार बढ़ता चला जाएगा। महत्त्वाकाँक्षा लोगों के सिर पर चढ़कर बोलेगी।

साथियों! हवा में जो जहर घुलता जा रहा है, वह साँस के साथ आँख, गर्दन गले और छाती में जाएगा और लोग बीमार होते चले जाएँगे। यही स्थिति पानी की होगी। गंगा का पानी पहले साफ था। उसका हम सेवन करते थे। अब उसको नहीं पीने के लिए प्रचार किया जा रहा है, क्योंकि गंगाजल अब प्रदूषणों से भरता जा रहा है। अब धीरे-धीरे जमीन की गर्मी भी कम हो गयी है। हमने उसके गर्भ में समायी सारी चीजें, जैसे-लोहा ताँबा, कोयला, डीजल, पेट्रोल सब निकाल लिया है। जमीन खोखली होती जा रही है। इससे जगह-जगह भूकंप आएँगे। फसल भी कम उत्पन्न होगी। आज विश्वभर में जो लाखों की संख्या में एटॉमिक हथियार बन रहे हैं, वे क्या बच्चों के खिलौने होंगे? नहीं, वे आग उगलेंगे। इससे मात्र तबाही आयेगी। सारी जगहों पर परमाणुयुद्ध की होड़ लग जाएगी। इससे चारों ओर तबाही ही होगी।

मित्रों! क्या इस प्रकार की विपन्नता की स्थिति में, ऐसी संकटकालीन वेला में-जब आदमी मरने मारने को तैयार है, तो आप उनको बचाने के लिए डॉक्टरों की तरह सेवा देने के लिए आगे नहीं आ सकते हैं? यह कैसी विडम्बना है जो आप नौकरी के बाद का चार घंटे का समय भी लोकमंगल के लिए, समाज के लिए, इनसान का भविष्य उज्ज्वल बनाने के लिए नहीं दे सकते हैं। इस प्रकार जब भी परिस्थितियाँ आती हैं, तो लोग अपने ढंग से इसका समाधान करने के लिए आगे आते रहे और प्रयास करते रहे हैं।

आपने भगीरथ का नाम सुना होगा। एक बार धरती पर से पानी समाप्त हो गया था। खेतों के लिए पानी नहीं था। उस समय उन्होंने तप किया और गंगा को प्रसन्न किया। धरती पर पानी का आगमन हुआ। नदियों में, कुओं में, नहरों में पानी आ गया। फसलें लहलहा उठीं। जो लोग पानी के अभाव में मर रहे थे, वे जीवित हो गये।

इस धरती पर एक बार वृत्तासुर नाम का राक्षस पैदा हुआ था। वह किसी के कन्ट्रोल में नहीं आ रहा था। उसके अत्याचार से सब त्राहि-त्राहि कर रहे थे। तब महर्षि दधिचि आगे आये और उन्होंने अपना अस्थिपञ्जर दान दे दिया, ताकि उससे वज्र-धनुष का निर्माण हो सके। आज जो मिसाइलें, अस्त्र-शस्त्र परमाणुबम आपको दिखलाई पड़ रहे हैं, यह क्या वृत्तासुर से कम हैं? आज हमें अनेकों किस्म के हत्यारे दिखाई पड़ रहे हैं? जो मात्र हजार-पाँच सौ रुपये लेकर किसी को भी मार डालने में कोई कसर नहीं छोड़ते।

इस प्रकार की परिस्थितियों में हर व्यक्ति ने अपने स्तर पर, सामूहिक स्तर पर प्रयास किया है तथा समाज, देश, संस्कृति को बचाया है। आज से पच्चीस सौ वर्ष पहले इसी प्रकार की परिस्थिति आयी थी, जब समाज के लोग त्राहि-त्राहि कर रहे थे। उस समय भगवान बुद्ध ने परिव्राजकों, भिक्षु-भिक्षुणियों को एकत्रित करके एक सामूहिक साधना कराने का प्रयास किया था, ताकि वातावरण में सुधार कर सके। इसी प्रकार हर विषम समय में व्यक्तियों के द्वारा सामूहिक प्रयास किये गये हैं।

युगसंधि की इस विषम वेला में भी इस मिशन के द्वारा इसी प्रकार का प्रयास “युगसंधि महापुरश्चरण” के नाम से आरंभ किया गया है। यह प्रयास अद्भुत है। इसका चमत्कार आप लोगों को भविष्य में देखने को मिलेगा। हमने अपनी जिन्दगी में गायत्री के चौबीस महापुरश्चरण किए हैं। इसकी साधना एवं तप से प्राप्त बल के द्वारा ही हमने युगनिर्माण जैसे कठिन कार्य को साहसपूर्वक पूर्ण करने की हिम्मत की है। हमने ध्वंस का समाधान और सृजन का परिपोषण करने के लिए गायत्री जयंती 23 जून, १९८० से बीस वर्ष का युगसंधि महापुरश्चरण आरंभ किया है। इसमें एक लाख नैष्ठिक उपासकों की भागीदारी रहेगी। इसके अलावा दस लाख अनुसाधक होंगे। यह वेला सन् १९८० से सन् २००० तक की होगी अर्थात् यह पुरश्चरण बीस साल का होगा। यह समय महापरिवर्तन के साथ जुड़ा होने के कारण भरी उथल-पुथल का होगा। अंतिम बारह वर्ष तो भयंकर मारकाट वाले होंगे।

हमारा संकल्प एक लाख नैष्ठिक साधक बनाने का है। नैष्ठिक और सामान्यों को मिलाकर दैनिक जप चौबीस करोड़ हो जाएगा। नियमित रूप से इतनी साधना चल पड़ने से अन्तरिक्ष के परिशोधन एवं वातावरण के अनुकूलन में भरी सहायता मिलेगी। इससे भावी संभावित विपत्तियों के टल जाने की आशा की जा सकती है। उज्ज्वल भविष्य के नवसृजन में इस साधना की प्रतिक्रिया बहुत ही सहायक सिद्ध होगी। इसमें जो साधक भाग लेंगे, उन्हें आशा से अधिक लाभ प्राप्त होगा। उनको आत्मकल्याण एवं लोककल्याण का दुहरा लाभ मिलता रहेगा। इसके बारे में जब हम चिन्तन करते हैं, तो हमारा मन गर्व से भर उठता है। हमें इस कार्य से काफी संतोष है।

एकाकी और सामूहिक प्रयत्नों की सफलता के स्तर में काफी अन्तर रहता है। अलग-अलग दस आदमी रहकर जितना काम करेंगे, उन दसों का सम्मिलित प्रयत्न कहीं अधिक सफलता प्रदान करेगा। इसलिए भारतवर्ष में हमेशा से तप एवं सामूहिक साधना का विशेष महत्व रहा है। प्राचीनकाल से लेकर अब तक हुए बहुत से कार्यक्रमों में इस प्रकार की साधना के द्वारा ही लाभ प्राप्त हुआ है। गायत्री महापुरश्चरण भी इसी श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। इसमें चौबीस लाख परिजन भाग ले रहे हैं। अनेकों कार्यक्रम भी इस श्रृंखला में आयोजित हो रहे हैं, जिसका वातावरण पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा। महात्मा गाँधी के आन्दोलन में भी इस प्रकार की सामूहिक साधना का कम महत्व नहीं रहा है। इसके द्वारा ही दिव्य वातावरण बना और हजारों लोग बलिवेदी पर अपनी कुर्बानी देने के लिए आगे आते चले गये। इस प्रकार की साधना में महर्षि रमण, रामकृष्ण परमहंस एवं अरविन्द की साधना का महत्वपूर्ण स्थान हैं, जिन्होंने एक दिव्य वातावरण बना दिया था।

इस समय की विकट परिस्थितियों और भयानक संभावनाओं को समय रहते रोका जाना चाहिए। इस कार्य के लिए यह समय उपयुक्त है तथा यह साधना, जो सामूहिक रूप से होने जा रही है, वह भी एक सही कदम है। छेद बन्द करने के साथ ही बर्तन में कुछ भरा भी जाना चाहिए। रोग-निवृत्त ही पर्याप्त नहीं है, पोषण भी मिलना चाहिए। अपराधों को रोकना भी एक काम है, परन्तु इसके साथ ही समाज के अंतर्गत रचनात्मक प्रयत्नों का तारतम्य जोड़ना भी आवश्यक है। वास्तव में इन दिनों यही दोहरी आवश्यकता युग की पुकार बनकर सामने खड़ी है, जिसे पूरा करने के लिए जाग्रत आत्माओं को आगे आना चाहिए। ध्वंस को रोकने एवं सृजन को गति देने का काम सदा से इसी वर्ग का रहा है। भगवान राम, कृष्ण, बुद्ध, गाँधी जैसे सभी के कार्य इनके बलबूते ही पूरे होते रहे है।

प्राचीनकाल यानी सतयुग में प्रकृति का पूर्ण सहयोग मनुष्य को मिलता था। भूमि, बादल, पवन सभी चीजें मनुष्य को समृद्ध बनाने में कोई कमी नहीं होने देते थे। इन दिनों प्रकृति ने विक्षुब्ध होकर आक्रोश प्रकट करना आरंभ कर दिया है, जिसके कारण अनावृष्टि, महामारी, भूकम्प, तूफान आदि का विनाशकारी त्रास हर जगह चल पड़ा है। दिव्यदर्शियों का अनुमान है कि इन दिनों प्रारंभ किये जा रहे युगसंधि महापुरश्चरण के क्षरा ये अशुभ लक्षण समाप्त हो जाएँगे। इसके साथ-ही-साथ नवसृजन की गतिविधियों में तूफानी उभार प्रस्तुत होगा, जो उज्ज्वल भविष्य की संरचना में अतिमहत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करेगा।

हमारे नैष्ठिक साधक, जो इसमें हमारा सहयोग करना चाहते हैं, उन्हें इन पाँच संकल्पों को पूरा करना होगा। पहला है-हर दिन न्यूनतम पाँच माला गायत्री महामंत्र का जप। दूसरा-पन्द्रह मिनट की प्राणसंचार की ध्यान-धारणा तीसरा-गुरुवार को बिना नमक का एक समय का भोजन, ब्रह्मचर्य का पालन तथा दो घंटे मौनव्रत का पालन। चौथा-महीने में कम-से कम एक बार न्यूनतम चौबीस आहुतियों का यज्ञ-हवन पाँचवाँ आश्विन एवं चैत्र नवरात्रियों में चौबीस-चौबीस हजार का गायत्री अनुष्ठान।

हमें विश्वास हैं कि हमारे परिजन इन नियमों-संकल्पों का पालन करते रहेंगे और नित्य नये साधकों को बनाने, उन्हें प्रोत्साहित करने का क्रम चलाते रहेंगे तो इस आन्दोलन को बल मिलेगा तथा नवसृजन के, नवनिर्माण के इस कार्य को शीघ्र एवं सुगमता से पूर्ण करने में हमें सहयोग मिलेगा।

प्रज्ञावतार अर्थात् ऋतम्भरा-प्रज्ञा का आलोक-विस्तार अपने युग का अरुणोदय है, जिसके सहारे आत्मिक और भौतिक उभयपक्षीय समस्याओं का हल निकलने की पूरी संभावना है। गायत्री के तत्त्वदर्शन का आलोक जन-जन तक पहुँचना हमारा लक्ष्य है। हमने इस महामंत्र की साधना चौबीस साल तक करके इस महामंत्र के चौबीस अक्षरों में चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को सुसंस्कृत बनाने वाले सभी तत्व कूट-कूट कर भरे हैं। आपके द्वारा इस तरह की जानकारी अगर जन-जन तक पहुँचायी जा सकी तो हमारा पूर्ण विश्वास है कि लोकचिंतन और व्यवहार-प्रचलन में उस उत्कृष्टता का समावेश हो सकता है।, जो युग विभीषिका से जूझने और उज्ज्वल भविष्य की संरचना में पूर्ण तथा सफल हो सके।

इस महान अभियान में जो सबसे आगे-आगे चलेंगे, उन्हें ज्यादा लाभ प्राप्त होगा। यह संकटकालीन परीक्षा की घड़ी है, जिसमें भगवान राम के रीछ-वानरों से लेकर गीध-गिलहरी तक की भूमिका है। इसमें कृष्ण के ग्वाल-बालों की तरह हर एक को अपनी-अपनी लाठी का सहारा देकर गोवर्धन को उठाना है। इसके लिए हममें से प्रत्येक को साहसी होना चाहिए। संभावित कठिनाइयों से किसी को भी भयभीत या आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे अवसरों पर दूरदर्शिता और साहसिकता का अनुपात बढ़ाने से ही काम चलता है। समय रहते रोकथाम करने और कठिनाइयों से जूझने का साधन जुटाने में तत्पर होना ही ऐसे अवसरों पर बुद्धिमत्तापूर्ण होता है। इन दिनों ऐसी ही बुद्धिमत्ता की आवश्यकता है, जो प्राणवानों के शौर्य-साहस को बढ़ाये और जन-जन की प्रखरता को जगाने के लिए काम आये।

मित्रों! आपको इस कार्य के लिए आगे आना चाहिए। यह महापुरश्चरण आपके लिए तथा समाज के लिए बहुत ही लाभदायक सिद्ध होगा। इसको सफल बनाने के लिए आपको प्रयास करना है। भगवान से हम प्रार्थना करते हैं जो भी इसमें भग लें, उनको इसके असंख्य गुना लाभ मिलें। अतः आप सभी से यह निवेदन है कि आप सब इस कार्यक्रम में भाग लें तथा इसे सफल बाने का प्रयास करें। प्रस्तुत युग-संधि महापुरश्चरण की व्यवस्था हमने गायत्री जयंती यानी २३ जून १९८० से बनाई है। यह बीस वर्ष तक लगातार चलेगा। सन् २००० की गायत्री जयंती पर इसकी पूर्णाहुति होगी। इसके भागीदार मात्र जप संख्या ही नहीं पूरी करेंगे, वरन् उस प्रयोग में अधिकाधिक निष्ठा का भी समावेश करेंगे।

युगसंधि महापुरश्चरण के प्रत्येक भागीदार को शौकिया, मनमौजी, अस्त-व्यस्त भजन-पूजन करके मन बहलाने की स्थिति में नहीं रहना होगा, वरन् जो कुछ भी थोड़ा या बहुत करना है, उससे परिपूर्ण नैष्ठिकता का समावेश करना है। इसी मार्ग पर चलते हुए आत्मशक्ति का विकास एवं आत्मकल्याण का लक्ष्य पूरा होता है।

यह युगसंधि महापुरश्चरण देखने में छोटा लग रहा है, परन्तु इसके द्वारा भविष्य में बहुत फायदा होने वाला है। अगर इतना लाभदायक न होता तो हम आपसे इसमें भागीदार बनने के लिए भावभरा निवेदन नहीं करते। यह समय की माँग है कि वातावरण में अवांछनीयता का जो समावेश हो गया है, उसे समय रहते निरस्त किया जाय।

जब बच्चा घर में पैदा होने को होता है तो एक तरफ घर में नवजात शिशु के लिए स्वागत की तैयारी चलती हैं तो दूसरी ओर प्रसूता को प्रसव का भरी कष्ट सहना पड़ता है। युगपरिवर्तन की इन घड़ियों में भी इसी प्रकार ही उथल-पुथल हो रही है। एक ओर ध्वंस चरम सीमा पर पहुँच चुका है, तो दूसरी तरफ नवसृजन की प्रक्रिया जन्म लेने वाली है। हमें इसी सृजन का काम करना है। इस समय मनुष्य की मनः स्थिति एवं परिस्थिति बिल्कुल बदल चुकी है। उनके विचार करने का ढंग गलत हो गया है। इसके कारण अनेकों प्रकार की विभीषिकाएँ नित्य उत्पन्न हो रही हैं तथा अपना तांडवनृत्य दिखाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही हैं।

इस समय की महती आवश्यकता यह है कि सूक्ष्म जगत के वातावरण में परिशोधन किया जाय। प्राचीनकाल में भी ऐसी ही परिस्थितियाँ थीं। लोग रावण के आतंक से त्राहि-त्राहि कर रहे थे। उस समय भगवान राम ने अपनी शक्ति नियोजित की तथा जनसहयोग के माध्यम से रावण को निरस्त करके समाज में शांति स्थापित की थी, रामराज्य की स्थापना की थी। इसके बाद गुरु वशिष्ठ ने यह कहा कि इतना कार्य करने से ही काम नहीं चलेगा। उन दुष्टों ने तो वातावरण को भी दूषित कर दया है, अतः उसके लिए स्वच्छ वातावरण बनाने की भी आवश्यकता है। गुरु वशिष्ठ के कहने पर भगवान राम ने दस अश्वमेध यज्ञ किये। इस अश्वमेध यज्ञ की प्रक्रिया बड़ी ही महान है इसमें लाखों लोग बैठकर साधना करते हैं, तप करते हैं, यज्ञ-हवन करते हैं तथा वातावरण को बदल डालते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भगवान राम के रामराज्य की स्थापना रावण के समाप्त होने से नहीं हुई, वरन् दस अश्वमेध यज्ञों के कारण हुई। भगवान श्रीकृष्ण के जमाने में भी वैसा ही हुआ। महाभारत के बाद उनको भी यज्ञ करना पड़ा। उसके बाद ही वातावरण का सुधार हो सका। यज्ञ एवं उपासक के द्वारा वातावरण में सुधार की बात बहुत प्राचीनकाल से ही चली आ रही है।

युगसंधि का यह विशेष पर्व है ऐसे समय हजारों-लाखों वर्ष के बाद आते हैं। भगवान को युगपरिवर्तन करना पड़ता है, परन्तु वे केवल आप जैसी आत्माओं को ही अपना माध्यम बनाते और प्रभावित करते हैं। निराकार ब्रह्म के लिए यह कठिन है कि वह स्वयं अपने व्यापक विराट स्वरूप को मिटाकर व्यक्तियों का स्वरूप बनाये और सामान्यजनों की तरह उतार-चढ़ाव से जूझने का उपक्रम अपनाये। शासनाध्यक्ष योजना बनाते हैं और निर्देश देते हैं। आज की परिस्थिति ऐसी है जिससे भगवान बहुत ही दुखी है। वह परिवर्तन चाहते हैं। एक समय महर्षि विश्वामित्र ने भी इसी तरह का परिश्रम किया था। शास्त्रों में वर्णन आता है कि उन्होंने एक नयी दुनिया बनाने के लिए घनघोर परिश्रम किया था। उस समय उन्हें अपने शिष्यों के लिए बहुत बड़ा अनुदान देना पड़ा था।

मित्रो! आध्यात्मिक अनुदानों की सामान्य परम्परा भी रही है और आपत्तिकालीन की अतिरिक्त व्यवस्था भी रही है। गुरु शिष्यों को, देवता भक्तों को समय-समय पर अनेकानेक अनुदान देते रहे हैं, परन्तु साथ-ही-साथ इसका भी ध्यान रखा जाता है कि उपलब्धकर्ता उसे संकीर्ण स्वार्थपरता में खर्च न करे। दैवीय वरदान दिव्य प्रयोजनों के लिए दिया जाता है। ऐसा ही अनुदान-वरदान विश्वामित्र ऋषि ने अपने शिष्यों को दिया था। इसी तरह रामकृष्ण परमहंस को जनकल्याण के लिए कुछ करना था। सो उनने विवेकानन्द को ढूँढ़ निकाला और अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति के लिए जितनी शक्ति की आवश्यकता थी, उसे दे दी। इसी प्रकार समर्थ गुरु रामदास का अनुदान शिवाजी को, चाणक्य का चन्द्रगुप्त को मिला था।

आपको मालूम होना चाहिए कि यह युगसंधि का विशेष समय है। इस समय स्रष्टा को परिवर्तन करना है। इस युगसंधि की वेला में नवसृजन का उत्तरदायित्व सँभलने वाली दिव्य शक्तियों का इन दिनों ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए जाग्रत आत्माओं की तलाश है। उन्हें जितना लाभ कठोर तपश्चर्या, साधना की कठिन परिस्थिति को पार करके मिल सकता था, उतना लाभ इस विशिष्ट अवसर पर मिलने वाला है। इसे दैवी अनुदान कहा जा सकता है। इन दिनों युगसंधि की इस उपासना के माध्यम से उच्चस्तरीय अनुदान वितरण ऋतम्भरा-प्रज्ञा द्वारा किया जा रहा है। जिस प्रकार दुर्भिक्ष आदि संकटकालीन परिस्थितियों में सरकार कुआँ खोदने, उद्योग खड़ा करने, नहर बनाने जैसे कामों के लिए विशेष रूप से धन-राशि देती है, उसी प्रकार इन दिनों ऐसे असंख्य संस्कारवान आत्माओं को दिव्य अनुदान मिलने वाला है, किसी जमाने में राम, कृष्ण, बुद्ध, गाँधी के सहयोगियों को प्राप्त हुआ था।

इस धरती पर जब कभी भी अनीति-अत्याचार की बढ़ोत्तरी होती है, तो इसी प्रकार का क्रम चलता है और शालीनता, सज्जनता लाने का प्रयास किया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण के जमाने में भी ऐसा ही हुआ था। जब कभी ऐसे संकटकालीन समय आते हैं तो बहुत-से लोग ऋषि-चरणों में अपना सब कुछ अर्पण कर देते है। जैसे विश्वामित्र के चरणों में राजा हरिश्चन्द्र भगवान बुद्ध के चरणों में राजा अशोक का समर्पण हुआ था और पूरी शक्ति से उन्होंने सहयोग दिया था। भगवान बुद्ध के समय में जब अराजकता बढ़ी थी तो उन्होंने अपने शिष्यों को परिव्रज्या का पाठ पढ़ाकर इसके निराकरण के लिए उन्हें देश-विदेशों में भेजा था। इस प्रकार वातावरण बनाने में भगवान बुद्ध का तप, उनके शिष्यों का तप बहुत ही महत्वपूर्ण था। उसमें हर्षवर्धन एवं अशोक जैसे लोगों ने पूरा सहयोग दिया।

पिछले दिनों युद्धों के कारण कितने लोग मारे गये, कितना वातावरण गंदा हो गया। इस परिस्थिति में वातावरण के संशोधन में युगसंधि महापुरश्चरण द्वारा एक महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न होगी। युगसंधि में इन दिनों हिमालय के आध्यात्मिक ध्रुव केन्द्र से ऐसी दिव्य क्षमताओं का-प्राणचेतना का प्रसार-विस्तार हो रहा है, जिन्हें ग्रहण-धारण करके असंख्य मनुष्यों का कल्याण हो सकेगा। ऋषि-मुनियों से लेकर लोकसेवी महामानव तक यही कार्य करते रहे हैं। दैवी शक्तियों का अनुदान वे जन-जन तक पहुँचाने में लगे रहे हैं। इससे ही भगवान की इच्छा पूरी हुई है और जन-जन का हित हुआ है। यही कार्य युगसंधि महापुरश्चरण के अंतर्गत हमारे नैष्ठिक साधकों का होगा।

संकटकालीन परिस्थिति आने पर समाजसेवी, डॉक्टर अपना-अपना काम करते हैं, किन्तु हम एक बात बताना चाहते हैं कि ऐसी परिस्थिति में अध्यात्मवादी आदमी को भी हाथ-पर-हाथ रखकर नहीं बैठना चाहिए।

इस प्रकार की साधना में यद्यपि पुरुषार्थ ही प्रमुख है। इसके क्षरा ही वातावरण का परिष्कार संभव होगा। अंगद, हनुमान, नल-नील अर्जुन, शिवाजी आदि को यदि पराक्रम करने का मौका न मिला होता तो सभी लोग इसी प्रकार का सामान्य जीवन जीने वाले कहलाते। युग-परिवर्तन एवं नवनिर्माण के कार्य का श्रेय उनको नहीं मिलता। ग्वाल-बालों को श्रेय इसलिए मिला कि भगवान श्रीकृष्ण को अपनी-अपनी लाठी लगाकर थोड़ा-सा सहयोग दिया और कार्य पूरा हो गया। वे भी श्रेय के भागीदार बन गये। इस तरह का अवसर आने पर हर किसी को लोकमंगल के लिए, जनजागरण के लिए आगे आकर कार्य करने का प्रयास करना चाहिए। इसके द्वारा ही आप ऐतिहासिक लोकचर्चा का विषय बनने में समर्थ हो सकते हैं।

मानवी अन्तराल और अदृश्य वातावरण के क्षेत्रों में व्याप्त विषाक्तता एवं दूषणता का परिशोधन करना तथा उसमें नयी चेतना भरना एक बहुत बड़ा काम है, जिसे भौतिक क्षेत्र के किसी भी कार्य से कम महत्व नहीं दिया जा सकता है। इन दोनों ही क्षेत्रों में आज आध्यात्मिक उपचार की आवश्यकता है। इस समय वातावरण का संशोधन होने से मनुष्य को कितना लाभ हो सकता है, इसे आपको लोगों को समझाने का प्रयास करना चाहिए।

मित्रों! आज आपको जनजागरण के लिए, युगधर्म निबाहने के लिए पुकारा गया है। अतः आपको इस कार्य के लिए आगे आकर और बढ़-चढ़कर कार्य करना चाहिए। वातावरण खराब हो जाता है, तो उसका असर पड़ता है। वातावरण का प्रभाव, परिस्थितियों का प्रभाव क्या होता है, इसे सभी लोग जानते हैं। आज ऐसी परिस्थितियाँ आ गयी हैं कि इसने असंख्य मनुष्यों को दुष्प्रवृत्तियों की ओर, दुश्चिन्तन की ओर धकेल दिया है। इसके कारण कहीं भूकम्प, बाढ़, महामारी तो कहीं अनाचार, अत्याचार, पाप की विभीषिका अपना पसारा फैला रही है। अब समय आ गया है कि आपको रचनात्मक कार्यों की ओर चलना है। यह युगसंधि महापुरश्चरण इसी प्रकार का कार्य है, जिसमें आप सभी लोग शामिल है।

सामूहिकता का लाभ सभी जानते हैं। प्राचीनकाल से लेकर अब तक सभी बड़े-बड़े काम सामूहिकता के क्षरा हल होते रहें हैं। प्राचीनकाल में सभी ऋषियों की सामूहिकता अर्थात् बूँद-बूँद रक्त के द्वारा माता सीता की उत्पत्ति हुई थी। यही सीता भगवान राम से कहीं ज्यादा असुरता को समाप्त करने में तथा रामराज्य की स्थापना करने में सफल हुई। सीता क्या थी? ऋषियों की सामूहिकता का प्रतीक थी। दुर्गा का अवतार क्या था? देवताओं की सामूहिक शक्ति को इकट्ठा करके प्रजापति ब्रह्मा ने दुर्गा का अवतार कराया था। श्रेष्ठ कामों के लिए अच्छे लोगों का सहयोग लेने की प्राचीनकाल से ही पद्धति रही है। भगवान श्रीकृष्ण का गोवर्धन उठाना तथा भगवान राम का समुद्र में पुल बाँधना, यह सब सामूहिकता का ही प्रतीक है।

आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध ने अपने भिक्षु-भिक्षुणियों को इसी प्रकार की सामूहिक सेवासाधना करने के लिए प्रेरित करने का प्रयास किया था। हमारे सामने महात्मा गाँधी आये। उन्होंने भी इस देशों आजाद कराने के लिए सामूहिक शक्ति का ही उपयोग किया। इसके द्वारा ही स्वराज्य मिलना संभव हो सका था। आज का यह युगसंधि महापुरश्चरण भी इसी तरह का एक महत्वपूर्ण सामूहिक प्रयास है। आपको यह भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि यह इस युग का महानतम प्रयास है। गायत्री उपासना के द्वारा ही हमने सारा चमत्कार पाया है। हम देखना चाहते हैं कि आप लोग इसमें कितनी श्रद्धा-निष्ठा के साथ काम करते हैं। हमें विश्वास है कि यह कार्य बहुत व्यापक स्तर पर बढ़ने वाला है। हमें यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि यह कार्य बढ़ेगा। अनेक कार्यक्रम होंगे। इससे वातावरण में अप्रत्याशित रूप से बदलाव आयेगा। नयी पीढ़ियाँ बदलती चली जाएँगी।

गाँधीजी ने स्वतंत्रता आन्दोलन को तीव्र करने के लिए नमक सत्याग्रह चलाया था। इसमें जो लोग आगे रहे, उन्हें श्रेय मिला। नवनिर्माण के इस कार्य के अंतर्गत भी जो आगे रहेंगे तथा अपनी भागीदारी देंगे, उन्हें भी श्रेय, सम्मान सहयोग अधिकाधिक मिलेगा। आपका जो श्रम, भावना, धन इसमें लगा है, वह हजार गुना होकर वापस होगा और आप धन्य हो जाएँगे।

यह जो महापुरश्चरण चल रहा है वह न केवल भारत के लिए, वरन् सारे विश्व के लिए, मनुष्य जाति के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण रहेगा। अगले दिनों युगसृजन में गायत्री महाविद्या को युग-शक्ति का रूप धारण करना है। अगले ही दिनों उसे विश्वदर्शन का, अध्यात्म का केन्द्रबिन्दु बनने का अवसर मिलेगा। अतः आप सब लोग जो इस कार्य में सहयोग देंगे, हमें काफी प्रसन्नता होगी। हम भगवान से प्रार्थना करते हैं कि आप में, आपके घर-परिवार में सुख-शांति आवे, प्रगति को ओर बढ़े तथा आपका भविष्य उज्ज्वल हो। आज की बात समाप्त॥


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