तीन शरीरों के परिष्कार की त्रिविध साधना

December 1998

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जड़ और चेतन तत्त्वों के सम्मिश्रण से बनी मनुष्य की स्थूल शारीरिक व्यवस्था तो एक सीमा तक ही लोगों ने जानी है और आहार-विहार की अनुकूलता उपलब्ध कर स्वस्थ एवं सुन्दर बनने का यथासम्भव प्रयत्न किया है, किन्तु चेतन तत्त्व की, सूक्ष्म और कारण शरीर की व्यवस्था कैसे रखी जाय, इसे कोई बिरले ही जानते हैं। इस ज्ञान के अभाव में मानव जीवन के द्वारा उपलब्ध हो सकने वाले महत्वपूर्ण लाभों से हम प्रायः वंचित ही रह जाते हैं।

मानवीय अस्तित्व को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- (१) स्थूल, (२) सूक्ष्म, (३) कारण। साधना-विज्ञान में मनुष्य के यह तीन शरीर बताए गए हैं। जिस प्रकार केले के तने को चीरने पर उसमें एक के भीतर एक परतें निकलती हैं, उसी प्रकार आँखों से दीख पड़ने वाले रक्त-माँस से बने इस स्थूल शरीर के भीतर एक सूक्ष्म शरीर है। इसके भीतर एक कारण शरीर का अस्तित्व विद्यमान है। जिस प्रकार हम शरीर के ऊपर बनियान, उसके ऊपर कुर्ता, उसके ऊपर उपर्युक्त तीन आवरण धारण किए हुए हैं।

स्थूल शरीर वह है- जिससे हम खाने, सोने, चलने-बोलने आदि की क्रियाएँ सम्पन्न करते हैं। सांसारिक जीवन इसी से चलता है। रोटी कमाने, शुभ-अशुभ कर्म करने, इन्द्रिय सुख भोगने आदि के प्रयोजन इसी शरीर से पूरे होते हैं।

इसके भीतर सूक्ष्म शरीर है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार इन चार वर्गों में विभाजित अन्तःकरण मनुष्य का एक प्रकार से सूक्ष्म शरीर ही है। विचारणा, प्रतिभा, स्फूर्ति, आकांक्षा, अभिरुचि, पीड़ा जैसी मानसिक गतिविधियाँ इसी शरीर में सन्निहित हैं। यों यह आवरण स्थूल शरीर में दूध में घुले हुए मक्खन की तरह समाविष्ट है, फिर भी इसका प्रधान स्थल मस्तिष्क माना गया है तीसरा कारण शरीर आत्मा के अति समीप होने के वजह से उच्चस्तरीय दिव्य भावनाओं का आधार है। उसमें केवल भावनाएँ संचरित होती है। जिनका आन्तरिक अधःपतन अत्यधिक हो चुका है, उनको छोड़कर शेष सभी के कारण शरीर में दया, प्रेम, करुणा, संवेदना, धर्म, कर्त्तव्य, संयम जैसे उच्चभाव उठते रहते हैं। जिनने दुष्टता में परिपक्वता प्राप्त कर ली है, उन्हीं का करण शरीर नरपिशाचों जैसी कुचेष्टाएँ करने पर सहमत हो जाता है।

तीनों शरीरों का संक्षिप्त परिचय यहाँ इसलिए दिया गया है, ताकि तीनों शरीरों की त्रिविध साधना का सर्वांगीण स्वरूप समझने में सुविधा हो। युग-परिवर्तन की, नवनिर्माण की प्रक्रिया उन्हीं व्यक्तियों के द्वारा सम्पन्न होगी, जिनमें देवत्व का प्रकाश समुचित मात्रा में प्रखर हो चला है। तथाकथित लेखक, वक्ता, नेता, अभिनेता, आन्दोलनकारी, प्रतिभावान व्यक्ति अपने साधनों के आधार पर कुछ समय के लिए चमत्कार जैसा जादू खड़ा कर सकते हैं, पर उनमें स्थिरता तनिक भी न होगी। बालू की दीवार की तरह उनकी कृतियाँ देखते-देखते धूल-धूसरित हो जाती हैं और जिनका आज जयघोष था, कल उनके अस्तित्व का पता लगाना भी कठिन हो जाता है। स्थिरता तो सच्चाई और आत्मबल की गहराई में सन्निहित है। इक्कीसवीं सदी में अपने देव-परिवार के सदस्यों को जो महान कार्य करने हैं, वे प्रखर साधनाओं के आधार पर ही संभव हो सकते हैं। इन कार्यों का भारी उत्तरदायित्व वहन कर सकने की क्षमता केवल देवत्व-सम्पन्न महामानवों में ही मिलेगी। अतएव नवनिर्माण के कर्णधारों, सूत्र-संचालकों सेनानायकों को इन्हीं दिनों स्वयं के व्यक्तित्व को साधना की प्रचण्ड ऊर्जा से ओजस्वी बनाना आवश्यक है।

स्थूल, सूक्ष्म और करण शरीरों की चर्चा इसलिए करनी पड़ी, क्योंकि इन तीनों को ही समान रूप से देवत्व सम्पन्न बनाने से ही समग्र देवत्व की आवश्यकता पूरी होती है। इन तीनों को ठीक तरह साधने-संभालने का नाम ‘साधना’ है। साधना से ही मनुष्य में देवत्व का उदय होता है। यह बात ठीक तरह से समझ लेनी चाहिए कि उपासना शुरुआती शिक्षा है और साधना उच्चस्तरीय प्रशिक्षण। भजन-पूजन से मन की प्रवृत्ति माया से ब्रह्म की ओर मुड़ जाती है। ईश्वर के स्मरण और सान्निध्य की उपयोगिता प्रतीत होती है। आत्मकल्याण का मार्ग मिलता है। इससे आगे का प्रयोजन साधना के द्वारा पूर्ण होता है। मनोवृत्तियों की वासना-तृष्णा से विरत कर संयम-परमार्थ में प्रवृत्त करना साधना का उद्देश्य है। इस मार्ग पर जितना आगे बढ़ा जाता है, उतनी ही आन्तरिक पवित्रता निखरती है और ईश्वरीय प्रकाश का दिव्यदर्शन होता है।

मानवीय व्यक्तित्व में देवत्व का अधिकाधिक समावेश करने के लिए हर श्रेयार्थी को साधना का अवलम्बन लेना पड़ता है। साधना के दो वर्ग हैं- (१) एक विशिष्ट लोगों की-विशिष्ट प्रयोजन के लिए विनिर्मित प्रक्रिया (२) सर्वसाधारण के लिए सहज, सुगम, सौम्य पद्धति। विशिष्ट प्रक्रिया योगी- यती, एकान्तवासी, सांसारिक उत्तर-दायित्वों से निवृत्त असाधारण मनोबल सम्पन्न, कठोर तपश्चर्या के लिए समुद्यत लोगों के लिए है। हठयोग, षट्चक्र-बेधन कुण्डलिनी जागरण, तन्त्र-योग प्राणयोग आदि साधनाएँ इसी प्रकार की है पर यह मार्ग अत्यन्त कठिन है। भूल होने पर इस राह में खतरे-ही-खतरे हैं। निश्चय ही उससे ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त होती हैं, पर उन उपलब्धियों से चमत्कार-प्रदर्शन द्वारा लोगों को विस्मित-चकित कर देने की आकांक्षा मात्र अहंकार ही बढ़ाती है। सिद्धियों द्वारा किसी का तात्कालिक कष्ट-निवारण भी सम्भव है और उसमें थोड़ा-बहुत आत्म–संतोष भी प्राप्त हो जाता है, लेकिन यह मार्ग है जोखिम भरा ही।

सौम्य साधना-पद्धति का मार्ग सर्वसाधारण के लिए सुगम है। आजीविका-उपार्जन तथा सामान्य गृहस्थ जीवनयापन करते हुए इस साधनाक्रम को अपनाया जा सकता है।

इस सौम्य साधना-पद्धति द्वारा स्थूल-सूक्ष्म-कारण तीनों शरीरों का संस्कार-परिष्कार परिमार्जन और परिवर्धन किया जाता है। इसके तीन प्रयोग हैं- (१) कर्मयोग, (२) ज्ञान योग, (३) भक्तियोग। तीनों की सन्तुलित क्रियापद्धति का अवलम्बन ही श्रेयस्कर हैं। श्रीमद्भागवतगीता व अन्य धर्म ग्रंथों में इसी प्रक्रिया का विवेचन है। अपनी विचारपद्धति-कार्यपद्धति और भावस्थिति में यदि इन तीनों आस्थाओं का समुचित समावेश कर या जाय, तो हम अपनी असह्य यंत्रणा की वर्तमान मनोभूमि से मुक्त होकर इसी जीवन में देवत्व के अभ्युदय की अनुभूति कर सकते हैं। इस क्रिया विधान में कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं भक्तियोग तीनों का इस ढंग से समावेश किया गया है कि व्यक्ति के तीनों शरीर परिपुष्ट होते चलें और समाज के विकास के पुण्यप्रयोजन का भी कार्य होता चले।

कर्मयोग की आधारशिला है- प्रातःकाल आँखें खुलते चारपाई पर पड़े-पड़े ‘हर दिन नया जन्म हर रात नयी मौत’ की विचारणा-प्रक्रिया को अपनाना तथा प्रस्तुत दिन के सर्वोत्तम सदुपयोग की तैयारी कर निश्चित कार्यक्रमों, गतिविधियों एवं विचार प्रक्रिया का निर्धारण। सम्पूर्ण दिन मन में किस स्तर की भावनाएँ, किस काम के साथ संयोजित की जाएँगी, यह भी निश्चित कर लेना अनिवार्य है। दिन भर इसी निर्धारण का दृढ़ता से पालन सामान्य जीवनक्रम को ही कर्मयोग की साधना का फल प्रदान करेगा। फिर रात्रि में शयन पूर्व बिस्तर पर पहुँचते ही दिन की गतिविधियों का लेखा-जोखा कर सफलताओं के लिए ईश्वर को धन्यवाद देना तथा भूलों के लिए सच्चे पश्चात्ताप के साथ क्षमा-प्रार्थना कर, पूर्ण निश्चिन्तता के साथ शान्तिपूर्वक निद्रा देवी की गोद में सो जाना।

कर्मयोग की इस साधना के साथ ही ज्ञानयोग की साधना भी जुड़ी है। उस हेतु मन में उत्कृष्ट विचारों का अनवरत समावेश आवश्यक है। प्रेरक स्वाध्याय ही इसका मार्ग है। रूढ़िवादी रीति से किन्हीं किस्से-कहानी जैसी किताबों का पढ़ना स्वाध्याय नहीं है। व्यवहारिक जीवन में आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता की दिशा दिखलाने वाला स्वाध्याय ही आवश्यक है और उसे दैनिक जीवन का एक नित्यकर्म मानकर किया ही जाना चाहिए।

यह हुई ज्ञानयोग की निजी साधना। इसे ज्ञानयज्ञ का रूप देना चाहिए। समाज में सद्विचारों का सर्वाधिक अभाव है। विश्वव्यापी शोक-सन्ताप का यही कारण है। जनमानस का स्तर परिवर्तित करने का ही दुःख-दारिद्र्य की प्रचण्ड आग बुझेगी। विचार-क्रान्ति आज की सर्वोपरि आवश्यकता है। ज्ञानयज्ञ इसी आवश्यकता की पूर्ति करने वाला महान अभियान है। एक घण्टा समय और बीस पैसा नित्य खर्च करना देखने में तो एक छोटा-सा काम है, पर उसका सम्मिश्रण परिणाम अत्यधिक है। यह युगपरिवर्तन का एक सशक्त माध्यम है। साधक का आत्म-कल्याण एवं विश्व-कल्याण दोनों ही ज्ञान यज्ञ द्वारा सहज सम्भव हैं।

भक्तियोग का अर्थ है-अन्तरात्मा में दिव्य भावनाओं का अनवरत प्रवाह। परमब्रह्म से अपने अनन्य प्रेम का स्मरण, तादात्म्य की प्रचण्ड अनुभूति ओर अनन्य उभयपक्षीय प्रेम हिलोर की प्रखर अनुभूति का स्मरण-अभ्यास अवरुद्ध आन्तरिक रस स्रोतों को पुनः मुक्त करता है। इस गहरे प्रेम स्रोतों का प्रांजल प्रवाह सम्पूर्ण परिवेश में सरसता, सौमनस्यता तथा प्रफुल्लता की वृद्धि करता है। सच्चा साधक, सच्चा भक्त मात्र ईश्वरीय ध्यान छवि को प्यार नहीं करता, अपितु ब्रह्माण्ड में संव्याप्त ईश्वरीय सत्ता से प्राणिमात्र से अनन्य आत्मीयता भरा प्रेम सम्बन्ध स्थापित कर लेता है।

यह तादात्म्य भावना पग-पग पर करुणा, उदारता, सहृदयता, सहानुभूति, सेवा, सज्जनता के रूप में, कार्यरूप में प्रकट-परिणत होती रहती है। ईश्वर भक्त भला परिग्रही-स्वार्थी किस तरह हो सकता है? उसके लिए तो एक ही मार्ग है- अपनी समस्त उपलब्धियों को विश्वमानव के चरणों में व्यवहारतः समर्पित कर देना। इससे कम में कभी भी ईश्वरीय अनुकम्पा प्राप्त नहीं हो सकती। लोकमंगल में अपना सर्वस्व समर्पित करने वाला परमार्थ-परायण व्यक्ति ही सच्चा ईश्वरभक्त कहा जा सकता है। अपने परिवार का पालन भी वह इसी भावभूमि के आधार पर ही करता है, सभी लोगों के साथ उसके व्यवहार का भी यही आधार होता है। वासना-तृष्णा से सर्वथा रहित, निर्मल-निश्चित अन्तःकरण वाला व्यक्ति ही भक्तियोग का अधिकारी है। शबरी, मीरा, सूर, तुलसी आदि भक्तों ने तथा सभी ऋषि-मुनियों ने इसी भावभूमि पर पहुँचकर ईश्वर-दर्शन आत्मसाक्षात्कार का परमानन्द प्राप्त किया था और दूसरों के लिए भी वही राजमार्ग खुला है।

स्थूल शरीर का कर्मयोग से परिष्कार, सूक्ष्म शरीर का ज्ञानयोग द्वारा उत्कर्ष एवं कारण शरीर में भक्तियोग द्वारा परमेश्वर की प्रतिष्ठापना ही सार्वभौम मार्ग है। तीन शरीरों की यह त्रिविध साधना करने वाले का परिष्कृत जीवन स्वयं के लिए, परिवार के लिए और समस्त संसार के लिए मंगलमय होता है। निर्मल अन्तःकरण में ईश्वर के दर्शन होते है और उसे देखने पर वह सब उपलब्ध हो जाता है, जो कुछ इस संसार में पाने योग्य है।


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