सूक्ष्म तत्व प्राण से विनिर्मित है। जड़ और चेतन का सम्मिश्रण प्राण है। जिस प्रकार नीला और पीला रंग मिलने से हरा रंग बनता है। पानी और मिट्टी का सम्मिश्रित स्वरूप कीचड़ के रूप में परिलक्षित होता है। ठीक उसी प्रकार प्रकृति और पुरुष, जड़-चेतन का सम्मिश्रण प्राण है। इसी के आधार पर जीवन स्थिर रहता है। जब वह शरीर से पृथक हो जाता है, तो मरण की स्थिति बन जाती है।
यह प्राणतत्त्व शरीर में भी विद्यमान है ओर उसका स्वरूप विश्व-ब्रह्माण्ड में भी व्याप्त है। जड़-चेतन की एक मात्रा जब आपस में गुँथ जाती है, तो उसे जीव की संज्ञा दी जाती है। वह शरीरगत अवयवों को गति प्रदान करता है, साथ ही अहम् की ग्रंथि बनकर चिंतन तंत्र के माध्यम से अपनी चेतना का परिचय देता है। चेतना का गुण है, चिन्तन। चिंतन को ही सजीवता का चिह्न माना जाता है। आस्था, आकांक्षा, भावना, कल्पना, विवेचना आदि उसी के भेद-उपभेद हैं। प्राणवान को साहसी समझा जाता हैं पराक्रमी, पुरुषार्थी और जीवट का धनी। महाप्राण प्रतिभावान होते हैं और अल्पप्राण कहकर दीन-दुर्बलों कायरों का तिरस्कार किया जाता है। वैभववान् होने की तरह प्राणवान होना भी किसी के समर्थ सौभाग्यवान होने का चिह्न है। ऐसों का वर्तमान सुव्यवस्थित होता है और भविष्य उज्ज्वल।
जिस प्रकार जमीन पर बिखरा हुआ रेत बिना किसी अड़चन के अभीष्ट मात्रा में बटोरा जा सकता है, जिस प्रकार विशाल जलाशय में अपनी आवश्यकता का पानी उपलब्ध पात्र में भरा जा सकता है, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड व्यापी महाप्राण में से प्राण-साधना के द्वारा अपनी सूक्ष्म सत्ता में प्राणतत्त्व को इच्छित मात्रा में धारण करके अपना चेतना पक्ष बलिष्ठ बनाया जा सकता है। इससे शरीर की भी शोभा-समर्थता बढ़ती है।
प्राण-साधना की सामान्य विधियाँ प्राणायाम के रूप में जन-सामान्य में प्रचलित हैं। अनेकों इसे करना भी जानते हैं, परन्तु यथार्थ में प्राण-साधना प्राणायाम की क्रिया के अलावा भी और कुछ है। इच्छा, भावना, संकल्प की विशेषताएँ जुड़ जाने से ही इसका यथार्थ मूल्य और महत्व प्रकट होता है। वैसे भी सामान्य क्रियाएँ भावना जुड़ जाने से समर्थ परिणाम प्रस्तुत करती हैं। जबकि भावनाविहीन होने पर इनका पूरा लाभ नहीं मिल पाता। भावना और संकल्प का चमत्कार तो सर्वत्र देखा और अनुभव किया जा सकता है। एक-सी क्रियाएँ करने पर भी परिणाम में भारी अन्तर देखे जा सकते हैं।
इस अन्तर की खोज-बीन करने पर एक ही निष्कर्ष निकलता है कि मात्र क्रियाओं को पूरा कर लेना ही पर्याप्त नहीं हैं। उसमें भावना और संकल्प का पुट नहीं जुड़ा तो अभीष्ट परिणाम निकलना संदिग्ध ही बना रहेगा। अपेक्षाकृत पहलवान से अधिक श्रम करते हुए भी मजदूर द्वारा सामर्थ्य अर्जित न कर पाने का एक ही कारण होता है कि उसकी क्रियाओं में संकल्प और भावना का समावेश नहीं होता। फलतः वह बलिष्ठ बनने का लाभ नहीं प्राप्त कर पाता। जबकि पहलवान की प्रत्येक क्रिया अपने लक्ष्य के लिए भावना एवं संकल्प से अनुप्राणित होती हैं। फलस्वरूप वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल होता है।
प्राण-साधना में भी प्राणायाम की क्रिया से अधिक महत्व भावना, इच्छा, संकल्प का है। प्रायः देखा जाता है कि एक जैसे साधना विधान पूरे करते हुए भी एक व्यक्ति चमत्कारी सामर्थ्य अर्जित कर लेता है, जबकि दूसरा कोई विशेष लाभ नहीं उठा पाता। साधना के परिणामों में भारी अन्तर का कारण स्पष्ट है। जिसे भावना एवं संकल्प के होने-न होने के रूप में समझा जा सकता है।
प्राण-साधना के चमत्कारी परिणामों का वर्णन योग ग्रंथों में मिलता है। उसे अनेकों प्रकार की सिद्धियों का एक समर्थ माध्यम माना गया है। योगियों में विलक्षण विलक्षण सामर्थ्य विकसित हो जाने का वर्णन पढ़ा-सुना और देखा जाता है। यह संकल्प-युक्त प्राण-साधना का ही परिणाम है। व्यक्तित्व में प्राण का संचय करते रहने से अनेकों प्रकार की शक्तियाँ अपने आप ही विकसित हो जाती हैं। योगीगण इस तथ्य से भली प्रकार परिचित होते हैं कि प्राण का विपुल भण्डार सर्वत्र भरा पड़ा हैं, पर सामान्य जीवनधारी मात्र उस भण्डार में से जीवनयापन करने की आवश्यकता पूरी करने योग्य अल्प मात्रा ही उससे प्राप्त कर पाते हैं। जिस प्रकार बूँद-बूँद के मिलने से घड़ा भरता है, उसी तरह योगी प्राणतत्त्व का संचय और अभिवर्द्धन करते रहते हैं।
प्राणतत्त्व की प्रचुरता भौतिक सफलताओं का कारण बनती है और आध्यात्मिक प्रगति की भी। भौतिक जीवन में प्राणवान व्यक्ति का सर्वत्र वर्चस्व होता है। व्यक्तित्व की प्रभावोत्पादक क्षमता सहज ही अपने अनुयायियों, सहयोगियों एवं समर्थकों की संख्या बढ़ाती है। प्राण-बल से सम्पन्न व्यक्ति ही सार समर में विजय हासिल कर पाते हैं तथा कुछ महत्वपूर्ण कहा जाने योग्य काम कर पाते हैं। मनोबल-संकल्पबल की दृढ़ता प्राणतत्त्व के आधार पर ही बनती है। जो हर प्रकार की सफलताओं का आधार बनती है। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी प्राणवान ही सफल होते और कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ अर्जित कर पाते हैं। कुछ को यह सम्पदा जन्म-जन्मान्तरों की साधना को फलस्वरूप अनायास ही मिल जाती है। पर विशिष्ट साधना प्रक्रिया अपनाकर हर कोई प्राण के लहलहाते महासागर में से अपनी झोली भर सकता और प्राण सम्पन्न बन सकता है।
विविध प्रयोजनों के लिए प्राण प्रक्रिया के अनेकों भेद-उपभेद हैं। परन्तु इन सबमें श्रेष्ठ और समर्थ साधना वह है, जिससे अपने भीतर पड़े शक्ति के भाण्डागार को जाग्रत किया जा सके। कुण्डलिनी के रूप में यह महाशक्ति हर मनुष्य के रूप में सुप्तावस्था में पड़ी रहती है परन्तु प्राण-साधना के अभाव में इसके विशेष लाभ नहीं उठाए जा पाते। कुण्डलिनी जागरण के लिए प्राणशक्ति का प्रचण्ड आघात आवश्यक होता है। शरीर में विद्यमान प्राण की मात्रा से इस प्रयोजन की पूर्ति नहीं हो पाती। निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त प्राणतत्त्व को आकर्षित करना तथा अपने भीतर भरना पड़ता है। कुण्डलिनी जागरण की साधना में सूर्यबेधन स्तर की प्राणसाधना की आवश्यकता पड़ती है।
प्राण के प्रहार से जीवाग्नि के उद्दीपन-प्रज्ज्वलन का उल्लेख अनेकों साधना ग्रंथों में अनगिनत स्थानों पर हुआ है। यह वही अग्नि है जिसे योगाग्नि, प्राणऊर्जा जीवनशक्ति अथवा कुण्डलिनी कहते हैं। अग्नि में ऐसा ही ईंधन डाला जाता है, जिसमें अग्नितत्त्व की प्रधानता वाले रासायनिक पदार्थ अधिक मात्रा में? होते हैं। कुण्डलिनी प्राणाग्नि है उसमें सजातीय तत्वों का ईंधन डालने से ही उद्दीपन होता है। सूर्यबेधन प्राणायाम द्वारा इड़ा-पिंगला के माध्यम से अन्तरिक्ष से खींचकर लाया गया प्राणतत्त्व मूलाधार में अवस्थित चिंगारी जैसी प्रसुप्त अग्नि तक पहुँचाया जाता है, तो वह भभकती है और जाज्वल्यमान लपटों के रूप में सारी सत्ता को अग्निमय बनाती है।
इसके लिए किसी शान्त-एकान्त स्थान में सुखपूर्वक बैठकर स्थिर चित्त हो अभ्यास करना चाहिए। आसन सहज, मेरुदण्ड सीधा, नेत्र अधखुले, घुटनों पर दोनों हाथ, यह प्राणमुद्रा कहलाती है। इस अध्यास के लिए प्रातः व सायं बेला ठीक है।
इस अभ्यास का प्रारम्भ करते हुए दाईं नासिका का छिद्र बंद करके धीरे-धीरे श्वास खींचना चाहिए। भावना यह हो कि वायु के साथ प्राणऊर्जा की प्रचुर मात्रा मिली हुई है। वह प्राणऊर्जा को सुषुम्ना मार्ग से वाम मार्ग के ऋण विद्युत प्रवाह इड़ा धारा द्वारा मूलाधार तक पहुँचाना, वहाँ अवस्थित प्रसुप्त चिंगारी को झकझोरना, जाग्रत करना, यह सूर्यबेधन प्राण-साधना का पहला भाग है। उत्तरार्ध में प्राण को पिंगला (मेरुदण्ड के दक्षिण मार्ग के धन विद्युतप्रवाह) में से होकर वापस लाया जाता है। जाते समय अन्तरिक्ष स्थित प्राण शीतल होता है। ऋणधारा भी शीतल मानी जाती है। इड़ा को-पूरक को चंद्रवत् कहा जाता है। इड़ा को चंद्रनाड़ी कहने का यही प्रयोजन है। लौटते समय अग्नि उद्दीपन-प्राण प्रहार की संघर्ष प्रक्रिया से ऊष्मा बढ़ती और प्राण में सम्मिलित होती है। लौटने का पिंगला मार्ग धन विद्युत का क्षेत्र होने से ऊष्ण माना गया है। दोनों ही कारणों से प्राणवायु ऊष्ण रहता है इसीलिए उसे सूर्य की उपमा दी गयी है।
प्राणसाधना में साधक को अपने भाव के अनुरूप लाभ मिलता है। श्वास द्वारा खींचे गए प्राण को मेरुदण्ड मार्ग से मूलाधार चक्र तक पहुँचाने का संकल्प दृढ़तापूर्वक करना पड़ता है। यह मान्यता परिपक्व करनी पड़ती है कि निश्चित रूप से अन्तरिक्ष से खींचा गया और श्वास द्वारा मेरुदण्ड मार्ग से प्रेरित किया गया प्राण मूलाधार तक पहुँचता है और प्रसुप्त कुण्डलिनी को-प्राणाग्नि को अपने प्रचण्ड आघातों द्वारा जगा रहा है। प्रहार के उपरान्त प्राण को सूर्य नाड़ी पिंगला द्वारा वापस लाने तथा समूची सूक्ष्म सत्ता को प्रकाशित-आलोकित करने की भावना परिपक्व करनी पड़ती है।
दूसरी बार इससे उल्टे क्रम में अभ्यास करना पड़ता है। अर्थात् दाहिनी नासिका से प्राण को खींचना और बायीं ओर से लौटाना होता है। इस बार पिंगला से प्राण का प्रवेश कराना तथा इड़ा से लौटाना पड़ता हैं मूलाधार पर प्राणप्रहार तथा प्राणोद्दीपन की भावना पूर्ववत् करना पड़ती है। एक बार इड़ा से जाना-पिंगला से लौटना। दूसरी बार पिंगला से जाना-इड़ा से लौटना। यही है सूर्यबेधन प्राणायाम का संक्षिप्त विधि-विधान कहीं-कहीं यौगिक ग्रंथों में सूर्यबेधन प्राणायाम को ही अनुलोम-विलोम प्राणायाम भी कहा गया है। लोम कहते हैं सीधे को, विलोम कहते हैं उल्टे को। एक बार सीधा एक बार उल्टा। फिर उल्टा, फिर सीधा। यह सीधा-उल्टा चक्र ही लोम-विलोम कहलाता है। लोम-विलोम की पूरी प्रक्रिया से एक पूरा सूर्यबेधन प्राणायाम होता है।
इस प्राणसाधना का अतीव महत्व है। कुण्डलिनी महाशक्ति के जागरण के लिए प्राणऊर्जा की प्रचुर परिमाण में आवश्यकता पड़ती है। यह प्रयोजन इसी से पूरा होता है। प्राण-साधना के द्वारा प्राणऊर्जा का अभिवर्द्धन साधक की भौतिक एवं आध्यात्मिक सफलताओं का मार्ग प्रशस्त करता है।