ध्यान-साधना द्वारा कैसे हो इष्ट से एकाकार

December 1998

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ध्यान -साधना की अनगिनत प्रक्रियाएँ एवं प्रयोग हैं। उनमें से किसी को भी अपनाने से पहले उसके स्वरूप और परिणति के बारे में भली प्रकार विचार कर लेना चाहिए। अन्धश्रद्धा से प्रेरित होकर किसी तथाकथित मार्गदर्शक के कथन-प्रोत्साहन को आँखें बन्द करके अपना नहीं लेना चाहिए अन्यथा अनुपयुक्त चयन हानिकारक भी हो सकता। जिस लाभ की कल्पना की गयी थी, उसकी मिलना तो दूर, उल्टे हानिकारक परिस्थितियों में फँसना पड़ सकता है।

ध्यान के प्रथम चरण में साधक को अपना समर्पण-भाव इष्ट के साथ तादात्म्य करना पड़ता है। द्वैत को अद्वैत में बदलना पड़ता है। एकत्व और अद्वैत के स्तर तक पहुँचना पड़ता है। ईंधन जब अपने को आग में झोंकता है, तो वह कुछ ही देर में अग्निरूप हो जाता है। इष्ट के साथ तादात्म्य स्थापित करने पर उस दिव्य केन्द्र की दिव्यक्षमता का अवतरण साधक की समग्र सत्ता में होने लगाता है। समर्पण की प्रतिक्रिया अवतरण है। रबड़ की गेंद जिस कोण से जिस स्थान पर जितने जोर से फेंकी जाती है, वह लक्ष्य से टकराने के बाद उतनी ही तेजी से उस मार्ग से वापस लौटती है। ध्यान के साथ भी जुड़ी हुई श्रद्धा-शक्ति बनकर प्रयोक्ता के पास शब्द बेधी बाण की तरह वापस लौटती है। लौटते समय वह अधिक परिष्कृत स्तर की होती है। उसमें इष्ट की विशेषता भी जुड़ी होती है। इसका प्रयोग किस हेतु किया जाए, यह निर्णय करना साधक की अपनी विवेक-बुद्धि पर निर्भर करती है। भगीरथ, पार्वती, दधिचि, विश्वामित्र,

वशिष्ठ आदि ने अपने तपश्चर्या का प्रतिफल पुण्य-प्रयोजनों के लिए किया था।

आमतौर पर देवी देवताओं के ध्यान नहीं किए जाते हैं। आध्यात्मिक साधना में वह पुरातन प्रचलन है, पर देव वर्ग में से किसी को चुनने से पूर्व यह निरख-परख लेना चाहिए कि उपास्य की प्रकृति क्या है? अनेक देवी देवता तमोगुणी भी हैं। उनका स्वभाव व्यवहार, प्रयास चरित्र जैसे पक्षों में अनैतिकता की भरमार होती है। इसमें से कई मांसभोजी, मद्यपान, आक्रमणकारी और युद्धप्रिय होते हैं। उनकी उपासना साधक में उन्हीं दुर्गुणों का आविर्भाव करेगी। कुछ दिनों में उसकी प्रकृति में उन्हीं के दुर्गुणों की भरमार होने लगेगी।

वामाचार में कि जाने वाली ध्यान-साधनाओं में प्रायः यही देखने को मिलता है। उसमें तमोगुणी देवताओं की सिद्धि की जाती है और उस आधार पर मिले अनुदानों को मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, स्तम्भन जैसे हेय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। कर्म अपना प्रतिफल निश्चित रूप से देते है और लौटकर करने वाले स्वयं भी उस कुकृत्य के दुष्परिणाम से बचे नहीं रह सकते। इस तथ्य को समझते हुए प्रारम्भिक चयन में समुचित सावधानी बरती जानी चाहिए। सात्विकता का अवलम्बन ही श्रेयस्कर समझा जाना चाहिए। इस क्रम में आदर्शवादी उदारचेताओं में हनुमान, नारद, बुद्ध जैसों की गणना होती है और देवियों में सरस्वती, गायत्री जैसों को उच्चस्तरीय इष्ट माना जाता है। उनमें आदर्शवादी विभूतियों की विशिष्टता गिनी जाती है।

जिन्हें देवी-देवताओं में रुचि नहीं, वे किन्हीं आदर्शों को अपने में विकसित करने के लिए उनका प्रतीक कमल पुष्प भी मान सकते हैं। इस मान्यता में मात्र छवि का ध्यान नहीं करना चाहिए, वरन् उन आरोपित विभूतियों का भी समन्वय करना चाहिए। यह तथ्य प्रत्येक ध्यान केन्द्र के सम्बन्ध में लागू होता है। यदि मात्र छवि को ही आधार माना गया है और उसके साथ अभीष्ट गुणवत्ता का आरोपण नहीं किया गया है, तो छवि-दर्शन मात्र कुतूहल की ही पूर्ति करता है। साधक को वह अनुदान प्रदान नहीं कर सकता, जो गुणवत्ता का समन्वय करने पर मिल सकता था।

महामानवों को भी इष्ट मानकर चला जा सकता है। विवेकानन्द, श्री अरविन्द, अपने आराध्य परमपूज्य गुरुदेव जैसे आदर्शों के धनी भी यदि अपनी ध्यान−धारणा के केन्द्र रहें तो हर्ज नहीं। गाय जैसे पशु हंस जैसे पक्षी, पीपल जैसे वृक्ष को आराधना के केन्द्र रखने पर अपनी सत्ता में समाहित विशेषताएँ साधक को प्रदान करते रह सकते हैं।

वेदान्त दर्शन में अन्तरात्मा की उत्कृष्टता को ही परब्रह्म माना गया है। सोऽहं, शिवोऽहम् अयमात्माब्रह्म, तत्त्वमसि जैसे सूत्रों में आत्मा और परमात्मा की एकता का सिद्धान्त स्वीकारा गया है। पर यहाँ ध्यान रखने योग्य है कि आत्मा का शुद्ध श्रेष्ठ उत्कृष्ट स्तर ही इस प्रतिपादन के अनुरूप बनता है। यदि दोष-दुर्गुणों के कीचड़ से सनी हुई चित्त चेतना को अपना स्वरूप मानने की भूल की गयी तो जुड़े हुए दुर्गुण भी परब्रह्म का स्वरूप बन जायेंगे और साधक अपनी निकृष्टता को भी अपनाए रहेगा और उनके निराकरण की आवश्यकता समझेगा जबकि वेदान्त का वास्तविक प्रतिपादन आत्मा में समाहित परमात्मा के दिव्यचेतना के साथ ही सम्बन्ध साधना है। उसके साथ मायाजाल की तरह गुँथ गई निकृष्टता के प्रति तो तिरस्कार का भाव रखना ही है। स्मरण रहे, दुष्प्रवृत्तियाँ बिना संघर्ष के हटती नहीं है। इसके लिए तप-तितिक्षा संयम-साधना और परमार्थ-परायणता के त्रिविध अभ्यास भी अनिवार्य रूप से करने होते है।

सोऽहम् साधना यों प्राणायाम के माध्यम से भी चलती है। श्वास खींचने के साथ सो और छोड़ते समय हम की ध्वनि एकाग्र के साथ ही यह भाव भी सघन रखना पड़ता है कि वह (परमात्मा) हम (आत्मा) दोनों के बीच सघन समन्वय और आदान प्रदान का जो उपक्रम चलता है, उसे अधिक स्पष्ट रूप से अनुभव किया जाय। इस प्रकार प्राणयोग द्वारा भी ध्यान-साधना हो सकती है। जपकाल में इष्ट की छवि को अन्तरात्मा के साथ अपनी आत्मा का समर्पण-विलय अनुभव करते रहने से भी यही परिणाम उपलब्ध किया जा सकता है।

छाया पुरुष या दर्पण के पीछे भी यही उद्देश्य जुड़ा हुआ है। धूप में या प्रकाश की ओर पीठ करे खड़ा होने पर शरीर की छाया सामने उपस्थिति समझा जा सकता है। इससे भी अधिक सुगम दर्पण साधना है। यमदूत शरीर का प्रतिबिम्ब दिखा सकने वाला आदमकद दर्पण हो तो उत्तम, अन्यथा उसका साइज इतना तो होना ही चाहिए, जिसमें बैठने पर चेहरे की प्रतिछाया समान आकार में दिख पड़। इसको विशुद्ध आत्मसत्ता की प्रत्यक्ष छवि माना जाए और उसमें दिव्यगुणों का सघन समावेश अनुभव किया जाए। साथ ही उसके दुर्गुण, कषाय-कल्मष हिमऋतु में झड़ने वाले पत्तों की तरह झड़ते जाने कि मान्यता को अधिकाधिक प्रखर बनाया जाए। यह आत्मदर्शन हैं इसकी महिमा देवदर्शन के समतुल्य है।

छवि निर्धारण एकाग्र समर्पण की अवधारणा एवं उत्कृष्ट का आरोपण इन तीनों का समन्वय होने पर ही ध्यान की पूर्णता बनती है। मात्र छवि पर कल्पना को केन्द्रित करने से अध्यात्मिक प्रगति का उद्देश्य पूरा नहीं होता, उतने भर से मात्र एकाग्रता सम्पादन भर की थोड़ी सहायता भर मिलती है। यों एकाग्रता साधन भी भौतिक और आत्मिक प्रगति के साथ काम आने वाली आवश्यक उपकरण जैसी उपलब्धि है, पर उतने तक सीमित रहने से आत्मिक प्रगति का महान प्रयोजन पूरा नहीं होता।

परब्रह्म को सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय मानना और उन विभूतियों का भक्तिभावना के माध्यम से जीवनचर्या में समावेश होना, यही है ध्यान साधना का वास्तविक स्वरूप यही है देव-अनुग्रह और अध्यात्मिक प्रगति का स्पष्ट चिन्ह। इसी स्थिति को प्राप्त करने के लिए अनेक आकार-प्रकार की विविध विधि ध्यान-साधनाएँ की जाती हैं। इस तथ्य को कभी विस्मृत नहीं करना चाहिए।

सर्वथा निराकार का ध्यान जिन्हें अभीष्ट हो, वे नादयोग की ध्यान-साधना कर सकते है

कानों को बन्द करके अनाहत दिव्यध्वनियाँ सुनी जाती है। गहराई में उतरने और अन्तराल में उठती दिव्यध्वनियों के साथ सम्बन्ध जोड़ने पर कई प्रकार के चित्र-विचित्र शब्द सुनायी पड़ते हैं। शंख, घंटा, घड़ियाल मृदंग, नफीरी आदि से मिलते-जुलते ये शब्द होते हैं। आरम्भ में ये ध्वनियाँ काफी मन्द होती हैं और रुक-रुककर सुनायी पड़ती हैं पर अभ्यास करते रहने से उनमें स्पष्टता, समस्वरता आती है। किसी स्तर की कोई भी ध्यान-साधना क्यों न हो, उसके साथ उत्कृष्टता की पक्षधर भाव-संवेदनाओं का जुड़ा रहना आवश्यक है, क्योंकि आत्मपरिष्कार की बात इसी समन्वय के आधार पर बनती है।

इस क्रम में सविता देवता का ध्यान सर्वोत्तम माना गया है। सविता अर्थात् प्रातःकाल का उदीयमान स्वर्णिम सूर्य। यही गायत्री शक्ति का देवता भी है। सविता ध्यान का विधान यह है कि अपने को निश्चल बालक जैसा माना जाए और ध्यान किया जाए कि उसकी धीमी किरणें अपने सम्पूर्ण शरीर पर बिखर रही हैं। मात्र बिखरती ही नहीं,, शरीर के सभी अवयवों में प्रवेश भी करती हैं।

भाव यह रहे कि स्थूल शरीर में किरणों का प्रवेश बलवर्धन करता है। सूक्ष्मशरीर मस्तिष्क प्रदेश में उनका प्रवेश बुद्धि-वैभव और प्रज्ञा अनुदान की वर्षा करता है। कारण शरीर-हृदय देश को श्रद्धा-सहृदयता और सद्भावना से सरोवर करता है। इसी प्रकार काया के भीतर वाले छोटे-बड़े सभी अंग-प्रत्यंग सविता की किरण प्रवेश द्वारा लाभान्वित होते हैं। सभी को उनकी आवश्यकता के अनुरूप बल मिलता है। उनके भीतर जो अंधकाररूपी विकार थे, वे इस प्रकाश के प्रवेश से तिरोहित होते हैं। अपना व्यक्तित्व निखरता है और स्थूलशरीर को ओजस, सूक्ष्मशरीर को तेजस और कारण-शरीर को वर्चस उपलब्ध होता है। जैसे सूर्योदय के समय कमल पुष्प खिलने लगते हैं, वैसे ही अपनी समग्र सत्ता इस सविता साधना से विकसित उल्लासित-प्रफुल्लित एवं तरंगित होती है।

इस ध्यान का अभ्यास करते समय सविता को निर्जीव अग्निपिण्ड मात्र नहीं मानना चाहिए। अध्यात्मिक भाव मान्यताओं के अनुरूप यह परब्रह्म का तेजस्वी प्रतीक है, प्राणशक्ति का सृजेता प्राणियों का प्राण और पदार्थों का गतिधर्म। आध्यात्मिक मान्यताओं के अनुसार सूर्य मात्र भौतिक पदार्थों का ही उपहार नहीं देता, अपितु चेतना को जीवन्त बनाए रखने वाले पंच प्राण भी उसे से आते है। उसके ध्यान से हम अपने आन्तरिक चुम्बकत्व संकल्पशक्ति से अभीष्ट मात्रा में अभीष्ट स्तर के प्राण आकर्षित और धारण कर सकते है। सूर्य में असीम ऊर्जा है। उस ऊर्जा का चेतना पक्ष जितना अभीष्ट हो, जितना धारण करने की क्षमता हो उतना प्राप्त कर सकते हैं। सविता का ध्यान सर्वोत्तम है। इसी ध्यान-साधना से हमें प्रत्यक्ष लाभ भी प्राप्त कर सकते हैं। भौतिक ऋद्धियाँ भी और आत्मिक सिद्धियाँ भी। अपनी अंतरात्मा भी शनैः-शनैः परमात्मा का सायुज्य पा लेती है।


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