षट्चक्र एवं उनमें निहित अनूठी ऋद्धि-सिद्धियाँ

December 1998

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कुण्डलिनी योग के अंतर्गत षट्चक्रों एवं शक्तिपात विधान का वर्णन अनेक ग्रंथों में मिलता है। योगवाशिष्ठ, तेजबिन्दूपनिषद्, योगचूड़ामणि, ज्ञानसंकलिनीतन्त्र, शिवपुराण, देवी-भागवत, शांडिल्योपनिषद्, मुक्तिकोपनिषद्, हठयोगसंहिता, कुलार्णवतन्त्र, योगिनीतन्त्र घेरंडसंहिता, कंठरुति, ध्यानबिन्दूपनिषद् , रुद्रयामलतन्त्र, योगकुंडल्योपनिषद्, शारदातिलक आदि ग्रंथों में इस विद्या के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया हैं फिर भी वह सर्वांगपूर्ण नहीं है। उसे इस ढंग से नहीं लिखा गया हैं कि उस उल्लेख के सहारे कोई अजनबी व्यक्ति साधना करके सफलता प्राप्त कर सके। पात्रतायुक्त अधिकारी साधक और और अनुभवी सुयोग्य मार्गदर्शक की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ही ग्रंथों में इस गूढ़ विद्या पर प्रायः संकेत ही किये गये हैं।

तैत्तिरीय आरण्यक में चक्रों का देवलोक एवं देव संस्थान कहा गया है। शंकराचार्य कृत आनन्दलहरी के १वें श्लोक में भी ऐसा ही प्रतिपादन है।

योगदर्शन समाधिपाद का ३६ वाँ सू है-

“विशोकायाः ज्योतिष्मती।”

इसमें शोक-संतापों को हरण करने वाली ज्योति शक्ति के रूप में कुण्डलिनी शक्ति की ओर संकेत हैं

इस समस्त शरीर को, संपूर्ण जीव कोशों को महाशक्ति की प्राणप्रक्रिया सँभाले हुए है। उस प्रक्रिया के दो ध्रुव-दो खण्ड हैं एक को चय प्रक्रिया (एनाबॉलिक एक्शन) तथा दूसरे को अपचय प्रक्रिया (कैटाबॉलिक एक्शन) कहते है। इसी को दार्शनिक भाषा में शिव एवं शक्ति भी कहा जाता हैं शिव क्षेत्र सहस्रार तथा शक्ति क्षेत्र मूलाधार कहा गया है। इन्हें परस्पर जोड़ने वाली, परिक्रमण शक्ति का नाम कुण्डलिनी हैं षट्चक्र इसी पूरे क्षेत्र में सूक्ष्मशरीर में विद्यमान हैं

सहस्रार और मूलाधार का क्षेत्र विभाजन करते हुए मनीषियों ने मूलाधार से लेकर कण्ठपर्यन्त का क्षेत्र एवं चक्र संस्थान ‘शक्ति’ भाग बताया हैं और कंठ से ऊपर का स्थान ‘शिव’ देश कहा है।

मूलाद्धाराद्धि षट्चक्रं शक्तिस्थान मुदीरितम्। कण्ठादुपद्धि मूर्द्धातं शाम्ीवं सािनमुच्यते-वराहश्रुति

“मूलाधार से कण्ठपर्यन्त शक्ति का स्थान है। कण्ठ के ऊपर से मस्तक तक शाम्भव स्थान है।”

मूलाधार से सहस्रार तक की काम-बीज से ब्रह्मबीज तक की यात्रा को ही महायात्रा कहते है। योगी इसी मार्ग को पूरा करते हुए परमलक्ष्य तक पहुँचते है। जीव सत्ता-प्राणशक्ति का निवास जननेन्द्रिय मूल में है। प्राण उसी भूमि में रहने वाले रज-वीर्य से उत्पन्न होते है। ब्रह्मसत्ता का निवास ब्रह्मलोक में, ब्रह्मरन्ध्र में माना गया है यह द्युलोक-देवलोक-स्वर्गलोक है। आत्मज्ञान का, ब्रह्मज्ञान का सूर्य इसी लोक में निवास करता है। कमल पुष्प पर विराजमान ब्रह्माजी-कैलाशवासी शिव और शेषशायी विष्णु का निवास जिस मस्तिष्क मध्य केन्द्र में है- उसी न्यूक्लियस को सहस्रार कहते हैं। आत्मसाक्षात्कार की ब्रह्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया यहीं सम्पन्न होती है। पतन के, स्खलन के गर्त में पड़ी क्षत-विक्षत आत्मसत्ता जब ऊर्ध्वगामी होती है, तो उसका लक्ष्य इसी ब्रह्मलोक तक सूर्यलोक तक पहुँचना होता है। आत्मोत्कर्ष की महायात्रा जिस राजमार्ग से होती है, उसे देवयान मार्ग कहा गया है। इस यात्रा में बीच-बीच में विराम स्थल है। इन्हीं को ‘चक्र’ कहा गया है।

चक्रों की व्याख्या दो रूपों में होती हैं, एक अवरोध के रूप में, दूसरे अनुदान के रूप में। महाभारत में चक्रव्यूह की व्याख्या अवरोध के रूप में हैं, अभिमन्यु उसमें मारा गया। वेधन कला की समुचित जानकारी न होने से वह मारा गया था। चक्रव्यूह में सात परकोटे होते है। इस अलंकारिक प्रसंग को आत्मा का सात चक्रों में फँसा होना कह सकते है। भौतिक आकर्षणों की, भ्रान्तियों की, विकृतियों की चारदीवारी के रूप में भी चक्रों की गणना होती है। इसलिए उसके वेधन का विधान बताया गया है। रामचन्द्रजी ने बाली को मार सकने की अपनी क्षमता का प्रमाण सुग्रीव को दिया था। उनने सात ताड़ वृक्षों को एक बाण से बेध कर दिखाया था। इसे चक्रवेधन की उपमा दी जा सकती है। भगवान माहात्म्य में धुन्धकारी प्रेत का बाँस की सात गाँठें फोड़ते हुए सातवें दिन कथा प्रभाव से देव देहधारी होने की कथा है। इसे चक्रवेधन का संकेत समझा जा सकता हैं

चक्रों को अनुदान केन्द्र इसलिए कहा जाता है कि कहा जाता है कि उनके अंतराल में दिव्य संपदाएँ भरी पड़ी है। उन्हें ईश्वर ने चक्रों को तिजोरियों में इसलिए बन्द करके छोड़ा है कि प्रौढ़ता-पात्रता की स्थित आने पर ही उन्हें खेलने-उपयोग करने का अवसर मिले, चक्रवेधन, चक्रशोधन, चक्रपरिष्कार चक्रजागरण आदि नामों से बतायें गये विवेचनों एवं विधानों में कहा गया है कि इस प्रयास से अदक्षताओं एवं विकृतियों का निराकरण होता हैं जो उपयुक्त है उसकी अभिवृद्धि का पथ-प्रशस्त होता है।

‘शारदा तिलक’ ग्रन्थ में कहा गया है-गुदा और लिंग के बीच चार पंखुड़ियों वाला आधारचक्र हैं वहाँ वीरता ओर आनन्द भाव का निवास हैं इसके बाद स्वाधिष्ठान चक्र लिंग मूल में हैं उसकी छह पंखुड़ियाँ है। इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गुणों का नाश होता है। नाभि में दस दल वाला मणिपुर चक्र है। यह प्रसुप्त पड़ा रहे तो तृष्णा, ईर्ष्या, लज्जा, चुगली, भय, घृणा, मोह आदि कषाय-कल्मष मन में जड़ जमाये पड़े रहते है। हृदय स्थान में अनाहत चक्र है। यह बारह पंखुड़ियों वाला है। यह सोता रहे तो अंतःकरण लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़ कुतर्क, चिन्ता, मोह, दंभ, अविवेक, अहंकार से भरा रहेगा। जागरण होने पर यह सब दुर्गुण हट जाएँगे। कण्ठ में विशुद्धाख्य चक्र, यह सरस्वती का स्थान है। यह सोलह पंखुड़ियों वाला है। यहाँ सोलह कलाएँ-सोलह विभूतियाँ विद्यमान है। भ्रूमध्य में आज्ञाचक्र है, यहाँ, ‘ऊँ’ उद्गीय हूँ, फट, विषद, स्वधा, स्वाहा, अमृत, सपत स्वर आदि का निवास हैं इस आज्ञाचक्र का जागरण होने से यह सभी शक्तियाँ जाग पड़ती है।

चक्रों की जाग्रति मनुष्य के गुण, कर्म, द्वेषभाव को प्रभावित करती है। स्वाधिष्ठान चक्र की जाग्रति से मनुष्य अपने में नवशक्ति का संचार हुआ अनुनीव करता है उसे बलिष्ठता बढ़ती प्रतीत होती है श्रम में उत्साह और गति में स्फूर्ति की अभिवृद्धि का आभास मिलता है। मणिपुर चक्र से साहस ओर उत्साह की मात्रा बढ़ जाती है।संकल्प दृढ़ होते है और पराक्रम करने के हौंसले उठते है। मनोविकार स्वयमेव घटते है और परमार्थ-प्रयोजनों में अपेक्षाकृत अधिक रस मिलने लगता है भारतीय योगियों की दृष्टि से अनाहत भाव संहित हैं कलात्मक उमंगें, रसानुभूति एवं कोमल संवेदनाओं का उत्पादक स्रोत यही हैं आत्मीयता का विस्तार सहानुभूति एवं उदार सेवा-सहकारिता के तत्व इस अनाहत चक्र से ही उद्भूत होते है। कंठ में विशुद्धिचक्र है। इसमें बहिरंग स्वच्छता और अंतरंग पवित्रता के तत्व रहते है। दोष-दुर्गुणों के निराकरण की प्रेरणा ओर तद्नुरूप संघर्ष-क्षमता यहीं से उत्पन्न होती हैं। इसमें अतीन्द्रिय क्षमताओं के आधार विद्यमान है लघुमस्तिष्क सिर के पिछले भाग में है। अचेतन की विशिष्ट क्षमताएँ उसी स्थान पर मानी जाती है। मेरुदण्ड में कंठ की सीध पर अवस्थित विशुद्धिचक्र इस चित संस्थान को प्रभावित करता है। तदनुसार चेतना की अतिमहत्त्वपूर्ण परतों पर नियंत्रण करने और विकसित एवं परिष्कृत कर सकने के सूत्र हाथ में आ जाते हैं नादयोग के माध्यम से दिव्यश्रवण जैसी कितनी ही परोक्षानुभूतियाँ विकसित होने लगती है।

सहस्रार मस्तिष्क के मध्य भाग में हैं शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थियों से सम्बद्ध रेटीकूलर एक्टीवेटिंग सिस्टम का अस्तित्व है। वहाँ से जैवीय विद्युत का स्वयं ही प्रवाह उभरता है वे धाराएँ मस्तिष्क के अगणित केन्द्रों की ओर दौड़ती हैं इसमें से छोटी-छोटी चिनगारियाँ तरंगों के रूप में उड़ती रहती है। उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो सकती, पर वे हैं हजारों। इसलिए हजार या हजारों का उद्बोधक ‘सहस्र’ शब्द प्रयोग में लाया जाता है। सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर हुआ है। सहस्र फन वाले शेषनाग की परिकल्पना का यही आधार है। यह संस्थान ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ संपर्क साधने में अग्रणी हैं इसलिए उसे ब्रह्मरंध्र या ब्रह्मलोक भी कहते हैं रेडियो एरियल की तरह हिंदू धर्मानुयायी इस स्थान पर शिखा रखाते और उसे सिर रूपी दुर्ग पर आत्म-सिद्धान्तों को स्वीकृति किए जाने की विजय पताका बताते हैं। आज्ञाचक्र को सहस्रार का उत्पादन केंद्र कह सकते है। उपर्युक्त सभी चक्र सुषुम्ना नाड़ी के अन्दर स्थित है, तो भी वे समूचे नाड़ी-मण्डल को प्रभावित करते है। स्वचालित और ऐच्छिक दोनों ही संचार प्रणालियों पर इनका प्रभाव पड़ता है।

नदी-प्रवाह में कभी -कभी कहीं भँवर पड़ जाते है। उनकी शक्ति अद्भुत होती है। उनमें फँसकर नौकाएँ अपना सन्तुलन खो बैठती है और एक ही झटके में डूबती दृष्टिगोचर होती हैं। सामान्य नदी-प्रवाह की तुलना में इन भँवरों की प्रचण्डता सैकड़ों गुनी अधिक होती हैं शरीरगत विद्युत-प्रवाह का एक बहती हुई नदी के सदृश माना जा सकता है और उसमें पाये जाने वाले चक्रों की भँवरों से तुलना की जा सकती हैं।

गर्मी की ऋतु में जब वायुमण्डल गरम हो जाता है, तो जहाँ-तहाँ छोटे-छोटे चक्रवात-साइक्लोन उठने लगते हैं वे नदी के भँवरों की तरह ही गरम हवा के कारण आकाश में उड़ते हैं उनकी शक्ति देखते ही बनती है पेड़ों को, छतों को, छप्परों को उखाड़ते-उछालते से बन्दर की तरह जिधर-तिधर भूत-बेताल की तरह नाचते-फिरते हैं साधारण पवन प्रवाह की तुलना में इन चक्रवातों की शक्ति भी सैकड़ों गुनी अधिक होती है। शरीरगत सूक्ष्मचक्रों की विशेष स्थिति भी इसी प्रकार की है। यों नाड़ी गुच्छकों-प्लेक्सस आदि में भी विद्युतसंचार और रक्तप्रवाह के गतिक्रम में कुछ विशेषता पाई जाती है किंतु सूक्ष्मशरीर में तो वह व्यक्तिक्रम कहीं अधिक उग्र दिखाई पड़ता है। पवन-प्रवाह पर नियंत्रण करने के लिए नावों पर पतवार बाँधें जाते है, उनके सहारे नाव की दिशा और गति में अभीष्ट परिवर्तन करते है। पनचक्की के पंखों को गति देकर आटा पीसने, जलकण चलाने आदि काम लिये जाते हैं जलप्रपात जहाँ ऊपर से नीचे गिरता है वहाँ उस प्रपात तीव्रता के वेग को बिजली बनाने जैसे कार्यों के लिए प्रयुक्त किया जाता है समुद्री ज्वार-भाटों से भी बिजली बनाने का काम लिया जा रहा है। ठीक इसी प्रकार शरीर के विद्युत प्रवाह में जहाँ चक्र बनते हैं, वहाँ उत्पन्न उग्रता को अध्यात्म प्रयोजनों में प्रयुक्तकर ऋद्धि सिद्धियों का स्वामी बना जाता है।


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