भली भई जो गुरु मिल्या, नहिं तर होती हाँणि। दीपक दिष्टि पतंग ज्यूँ, पड़ता यूँ ही जाँणि॥
माया दीपक नर-पतंग भ्रमि-भ्रमि इवै पडंत। कहै कबीर गुरु ग्यान थै, एक आध उबरंत॥ -कबीर
कबीरदास जी कहते हैं कि “बड़ा अच्छा हुआ जो हमें ठीक समय पर गुरु-सद्गुरु के रूप में मिल गया, नहीं तो बड़ी हानि होने की संभावना थी। कौन जानता है कि कबीर भी औरों की तरह मायारूपी दीपक को अपना पूर्ण लक्ष्य समझ कर पतंगे की तरह कूद न पड़ता। सारी दुनिया ही तो ऐसी है। कौन है जो इस माया दीपक का पतंग नहीं बन गया? ऐसे बड़भागी उँगलियों पर ही गिने जा सकते हैं जो गुरु की कृपा से उबर जाते हैं।”