बहुधा यह सवाल किया जाता हैं, तंत्र अन्ततः है क्या? इसकी विचारभूमि, इसका व्यावहारिक ज्ञान और इसकी सिद्धि का सीमान्त आखिर क्या है? इन सवालों के जवाब में यह कहा जा सकता है कि तंत्र क्या नहीं है। संसार का जो दृश्य स्वरूप है, इसमें जितना कुछ हो रहा है वह सब तंत्र के रूप में विख्यात ज्ञानधारा के प्रति हमारा कोई भी आग्रह हो सकता है, किन्तु इस शब्द के जितने अर्थ हो सकते हैं वे सारे मिलकर जिस स्थिति की सिद्धि करते है वही तंत्र है।
इस विषय की और अधिक व्याख्या करने के लिए हम विचार करें, चिंतन को कुछ अधिक सूक्ष्म ओर संवेदन को कुछ और सुकुमार बनाएँ तो लगेगा कि सारा विस्तार अपने आप में तंत्र है। वेद ने उदात्त चिंतन के रूप में जो ऋचाएँ दीं, वे बुद्धि की निर्मल ज्योत्सना में हमें समग्र से एकाकार हो जाने की प्रतीतियाँ थीं। हमारे अंतर्मन में झंकृत वीणा के अनुवाद की हार्दिक अनुभूति थीं। यही ऋक् जब बैखरी वृत्ति का विषय बनी तो साम की अनवरत गति बनी। वेदत्रयी का आत्मबोध संसार को कामना वितान का व्याख्याता बनकर अथर्व रूप में चतुर्थ वेद बना। यह विस्तार विशेषतः वेदत्रयी का चौथे वेद में प्रकट होना ही तंत्र की मूल परिभाषा है।
यही मूलज्ञान उपनिषदों में विस्तारित होता हुआ पुराणों में अत्यंत विकसित हो गया। गोत्र प्रवर्तकों की संहिताओं, अनुशास्ता ऋषियों की स्मृतियों और यज्ञ के प्रचार ने तंत्र का अर्थ विस्तार तो किया ही, नियंत्रण भी किया और कार्यविधि भी। दरअसल हमारी नजर संकीर्ण है और बहिर्मुखी भी। शब्द को हम नितान्त स्थूल मानकर उसका व्यवहार करते रहते हैं। उसमें जीते और मरते रहते हैं। उसके मर्म को समझाने की वृत्ति और क्षमता हमारे मन में उदित ही नहीं होती। शब्द वाक्देवी का ही श्री विग्रह है। सम्पूर्ण देवत्व की आधार भूमि और अवतार वेदी है। उनके लीला विलास इसी स्तर पर, इसी परिधि में सम्भव होते हैं। स्वयं अक्षर पुरुष क्षरित होकर इस संसार का सृजन-रक्षण-संहार करता है और यह त्रिविध वृत्ति शब्द को विस्तारित व अनुभूति को विस्तारित करती जाती है।
किसी रंगीन कपड़े को देखकर हम उसे ग्राह्य अथवा उपेक्षणीय कह दिया करते हैं। इसके पीछे हमारी उपयोगितावादी धारणा अथवा अन्य आग्रह हो सकते हैं, किन्तु उसके रंग संयोजन अथवा सूत्र (सूत) के रूप, गुणों का विश्लेषण तांत्रिक ही कर पाता है। यहाँ तांत्रिक शब्द रसायनशास्त्री के लिए प्रयुक्त हुआ है। पदार्थ के मूल रूप को जानना ही मंत्र है और उसके संयोग व मिश्रण से सम्भावित स्थितियों को जानना तथा मूर्त करना तंत्र की ही प्रक्रिया है।
एक ज्ञानातीत सत् है-निष्फल निर्विघ्न, अवाच्य। ऐसे अस्ति को हम परम कहते है। यह परम शिव के साथ जुड़ता है, तो परमशिव और ब्रह्म के साथ जुड़ने पर परमब्रह्म कहलाता है। इसमें जो कुछ हैं, वह शब्द या अनुभूति का विषय नहीं हो सकता, किन्तु इसी परम से इच्छा, ज्ञान और क्रिया की त्रिवेणी झरती है। यही निष्काम अपने ऐश्वर्य से विस्तारित होता हुआ जब ज्ञानमय अवस्था में आता है, तो मंत्र स्वरूप हो जाता है। यहीं इसका समागम अष्टपदी वाक् से होता है। यहाँ पर प्रमुख होता है, पदार्थ गौण। क्योंकि पदार्थ उसके स्थूल होने पर ही आकार ग्रहण करेगा। इस ज्ञानगम्य अवस्था को तत्त्वदर्शी लोग अर्थरूप शिव ओर शब्दरूप शक्ति का ऐक्य भाव कहते हैं किन्तु इच्छा, ज्ञान को यहीं निवृत्त नहीं करती, शिव और शक्ति का सायुज्य यहीं विरत नहीं होता, प्रत्युत और आगे बढ़ता और विकसित होता है। तब उस क्रियामय अवस्था को प्राप्त करना पड़ता है और यहाँ से तंत्र साधना प्रारम्भ होती है।
प्रकृति क्रियामयता के कारण विस्तारित होती है और जड़-चेतन में अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों का सृजन करके ही शान्त नहीं होती, उनको नियतकाल तक क्रियाशील रखकर पुनः स्व स्वरूप में संवरित करके शान्त हो जाती है। इस व्यापार में कितना विस्तार होता हैं, इच्छा का बल क्रिया को कितनी तत्परता से विक्षुब्ध करता हुआ, मथता हुआ संसार का रूप और नाश का वृत्त लिखता हैं प्रवृत्ति के रहस्यों का अनावरण करते हुए उसे व्यक्ति के लिए उपयोगी बनाना तंत्र साधना का व्यावहारिक पक्ष है और विस्तार का ज्ञान प्राप्त करके उसके मूल रूप को जानना तंत्र साधना का ज्ञान मार्ग है। जिसे आत्मपक्ष कहा जाता है।
भगवान महाकाल की यह इच्छामयता जो रूप धारण कर रही है, जिस तरह कार्य कर रही है, उसमें व्यवस्थित एवं संगत पद्धति है और यह व्यवस्था ही नानाविधि देह और स्थितियों की कारक है। एक ही शक्ति स्थानभेद से क्रिया भिन्न दिखती है अन्यथा शक्ति के स्तर पर कहीं कोई अन्तर नहीं। स्थान के कारण देवत्व मुक्ति के निकट रहता है और दानवता बन्धन के निकट। इसी स्तरवैषम्य के कारण सुरासुरों का द्वन्द्व निरंतर चलता रहता है।
तंत्र इस संघर्ष का कारण भी बतलाता है और उसके प्रवर्तन की स्थितियों से परिचित भी कराता हैं इसीलिए वह लोक को समर्पित है और व्यक्ति का त्राण करता है। तंत्र साहित्य को पढ़कर हम आश्चर्यविमूढ़ हो जाते हैं। हमारे पूर्वज महर्षियों ने प्रकृति की कार्यविधि को समझने के लिए कितना श्रम, कितनी साधना और कितने परीक्षण किए थे, इसका ठीक-ठीक अनुमान भी लगा सकना हमारे लिए असम्भवप्राय है। उन्होंने पशुओं और पक्षियों की देह रचना का, उनकी चेष्टाओं और देहगत भिन्नताओं का सूक्ष्म निरीक्षण करके प्रकृति के ग्रह पक्ष को, उसकी कार्यप्रणाली के रहस्य को समझा था। किसी पशु के पेशाब में क्या गुण है, किसी पक्षी की जीभ में क्या विशेषता हैं, किसी जीव के रोम अथवा पंखों में क्या प्राकृतिक विचित्रता है और उनका उपयोग किस काम के लिए, किस तरह से किया जा सकता है, ये सारे निष्कर्ष तंत्र साधना को व्यावहारिक विस्तार देते हैं।
किसी व्यक्ति से कोई काम कराना है अथवा उसे रोगादि से मुक्त करना है तंत्र-साधक अपनी ही शैली से उसका उपचार करता है। आयुर्वेद स्वास्थ्यशास्त्र है, वह व्यक्ति को स्वस्थ रखने के अलावा कुछ सोचता ही नहीं, किन्तु तंत्र तो महाव्यापक है। वह रोगी भी कर सकता है और रोगमुक्त भी। जिन्होंने तंत्र-साधना की गहराइयाँ जानी हैं, वे जानते हैं कि वेद मुक्तिमार्ग हैं इसलिए व्यक्तिपरक है, क्योंकि मुक्ति सामूहिक स्तर पर सम्भव नहीं। किन्तु तंत्र-साधना प्रवृत्ति और निवृत्तिपरक होने के नाते व्यक्ति और समाज दोनों के लिए समान रूप से उपयोगी है। संग में विस्तार है और विस्तार की अपनी आवश्यकताएँ हैं, इसलिए तंत्र प्रवृत्तिपरक है किन्तु उस प्रवृत्ति मूल में वह एकत्व को ढूँढ़ता है, इसलिए निवृत्ति उसका चरम है।
जिन्होंने भी तंत्र साधनाएँ की हैं और उसकी सिद्धियों का अनुभव पाया हैं, वे जानते हैं कि वर्तमान का रसायन विज्ञान और भौतिक विज्ञान कितना भी अभिमान करें किन्तु वह प्राचीन तंत्र विद्या से बहुत-बहुत पीछे हैं। इसके अतिरिक्त एक आपत्तिजनक तथ्य यह भी है कि इस विज्ञान में और आविष्कार पद्धति में आगे चलकर मनुष्य गौण ही नहीं, तिरोहित हो जाता है, इसलिए सारा संसार निष्प्राण हो जाता है। जबकि मनुष्य की महिमा सर्वोपरि है, उसकी उपस्थिति एक आश्वस्ति है किन्तु वैज्ञानिक विकास की विडम्बना यह है कि उसने मानव को अनुपस्थित करके उसका अभीष्ट साधन करने की स्वचालित एवं जड़ प्रक्रिया का विस्तार कर डाला है। परिणाम यह है कि व्यक्ति आत्मविमुख हो गया है। उसकी उपलब्धियाँ। एक प्रश्नचिह्न बन गयी हैं।
जब हम प्रकृति के सीमाबंधन से मुक्त हो ही नहीं सकते तो प्रकृति को ही प्रमाण क्यों नहीं मानते? प्रकृति को आधार मानने से हम सम्भावित विकृतियों के समाधान भी उसी प्रकृति में ढूँढ़ सकेंगे। मूलतः प्रकृतिपूजक चिंतन व्यक्ति को सहजता से ऊपर उठाकर विशिष्टता के स्तर पर ले जाता है। तंत्र-साधना भी व्यक्ति की क्षुद्रता एवं पाशविक बन्धन-शीलता पर विजय जाने का मंत्र देती है और आश्चर्य यह कि यहाँ विकृतिमय संसार में विकृतियाँ ही चिकित्सक बनती हैं। आप काम के रजोगुणी आवेश से ग्रस्त हैं, तो उसके लिए दूसरा पक्ष भी काम की उत्तेजना से प्रेरित होकर आपको शान्त कर सकेगा। रावण के क्रोधमत् रूप का उपचार राम के रौद्ररूप से ही सका। यह विकृतियों का गणित था, प्रकृति का इससे भिन्न है और ये प्रकृति व विकृति मिलकर ही सम्पूर्ण बनती हैं।
तंत्र-साधनाएँ प्रकृतिपरक हैं, इसलिए आत्मपक्षी हैं। यह देह ही इनकी प्रयोगशाला है। इस देह-यंत्र की तांत्रिक व्यवस्था को समझने पर समष्टि पर नियंत्रण की एवं स्थूल को इच्छानुसार बनाने की प्रभुता हमें प्राप्त ही जाती है। विज्ञान को इस यथार्थ पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि क्रिया में कोई अन्तर नहीं, अन्तर है उपादानों की दृष्टि में। अणु ऊर्जा को प्रयोग में लाने के लिए व्यापक सरंजाम जुटाने पड़ते हैं। इसके विपरीत तंत्र-साधनाएँ व्यक्ति के देह कोशों को ही इसके लिए उपयोगी बनाते हैं, ताकि विखण्डन की ऊर्जा को दिशा एवं प्रयोजन के अनुरूप शक्ति के आवेग एवं प्राकट्य को सह सके। यह सब साधना-विधि में बोले जाने वाले विनियोग एवं न्यास से सिद्ध हो जाता है।
निश्चित रूप से हम कह सकते हैं कि जिस तरह बिजली से अनेकों काम होते हैं, उसी तरह तंत्र-साधना एवं सिद्ध मंत्र अनेक काम कर देते हैं। विशेष बात यह है, इसके लिए उपकरणों के जंजाल की जरूरत नहीं। यद्यपि ऊर्जा को पाने के लिए हमें भी उतनी ही श्रम-साधना करनी पड़ती है। शब्द में अन्तर्हित शक्ति के बीज, न्यूक्लियस का विखण्डन करने के लिए उसे सूक्ष्म से सूक्ष्मतर एवं शुद्ध अवस्था में लाने के लिए जप करना होता है। इस जप से हमारा अन्तःशरीर शक्ति के प्रबल आवेश को सहन करने की क्षमता प्राप्त करना है और मंत्र की नाभिकीय शक्ति प्रकट होने की योग्यता मिलती है।
मंत्र के अलावा टोटके जैसी पद्धति भी तंत्र के ही अंतर्गत आती है। किसी व्यक्ति के अंग से स्पर्श की हुई वस्तु अथवा उसका पसीना, नाखून आदि पदार्थों को लेकर जो प्रयोग किए जाते हैं, वे भी तंत्र-साधना के अंतर्गत आते हैं। वास्तविकता यह है कि तंत्र-साधना का क्षेत्र इतना विस्तृत है कि उसमें कुछ भी छूटा नहीं हैं। सारा स्थूल और ज्ञानेन वचसा अगम्य महाकाल भी इसी तंत्र-साधना के विस्तार में आते हैं। तंत्र-साधना के द्वारा परकाया प्रवेश, अणिमा आदि सिद्धियाँ, कायाकल्प आदि सब कुछ सम्भव है। सत्य तो यह है कि साधना है ही असम्भव को सम्भव बनाने वाला विज्ञान, परन्तु इसको करने के लिए आवश्यक पात्रता चाहिए। कुपात्र में तो अमृत भी विष बन जाता है। सत्पात्र विष को भी औषधि के रूप में प्रयुक्त पात्र हैं उनके लिए यह द्वार आज भी खुला रहेगा।