साधनाक्षेत्र में समर्पण का असाधारण महत्व बताया गया है। अपने निज के पुरुषार्थ के बलबूते तो एक सीमा तक ही बढ़ा जा सकता है। बाह्य अनुदान न मिले होते तो मनुष्य का प्रगतिपथ पर एक पग भी आगे बढ़ा पाना संभव न रहा होता। गर्भस्थ शिशु की स्थिति से जन्म के बाद भी बहुत समय तक मनुष्य दूसरों के सहयोग के बल पर ही अपनी विकासयात्रा पूरी कर पाता है। माँ के अनुदान न मिलें तो वह गर्भ में दम तोड़ देगा एवं माता-पिता से लेकर समाज का उसे भिन्न-भिन्न रूपों में सहयोग न मिले तो वह जन्म के बाद की प्रगति व्यवस्था के क्रम में आगे बढ़ नहीं सकेगा। जो तथ्य लौकिक जीवन पर लागू होते हैं, वही आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करने पर भी लागू होते हैं। इस क्षेत्र में प्रगति करने के लिए व्यक्ति को आत्मशोधन की तपश्चर्या से तो गुजरना पड़ता है, किंतु समर्पणयोग-भक्तियोग की साधना बिना दैवी-अनुग्रह एवं परम लक्ष्य की प्राप्ति होती नहीं।
श्रीमद्भागवतगीता में यों तो कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग की त्रिवेणी बही है एवं तीनों को छह-छह अध्याय देकर त्रिपदा के माहात्म्य का वर्णन इसमें समाहित है, किंतु पूरी गीता में स्थान-स्थान पर भगवान एक ही बात अर्जुन से कहते हैं-वह है समर्पण का, शरणागति का आमंत्रण। अपनी व्यक्तिगत महत्त्वाकाँक्षाओं को, अहं को ईश्वर को समर्पित कर उनकी इच्छा अनुसार ही चलने की प्रेरणा श्रीकृष्ण बार-बार देते हैं। बारहवें अध्याय में वे कहते हैं-तू अपना मन मेरे में ही लगा। मेरे में ही बुद्धि को लगा। इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा। मुझको ही प्राप्त होगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं हैं।”
वस्तुतः व्यष्टि का समष्टि में, व्यक्तिवाद का समूहवाद में, संकीर्णता का उदारता में, निकृष्टता का उत्कृष्टता में विसर्जन ही समर्पण है। भक्तियोग में क्रियाकृत्यों, कर्मकाण्डों के मूल में भी समर्पण की भावनाओं को ही सर्वाधिक प्रधानता दी गयी है। समर्पण भक्ति की, निष्ठा की पराकाष्ठा वाला स्वरूप हैं। समर्पण के लिए भक्त को, साधक को इस भावना को सदैव परिपुष्ट करना पड़ता है-मैं पतंगे की तरह हूँ-इष्टदेव दीपक की तरह। अनन्य प्रेम के बलबूते द्वैत श्रद्धा को समाप्त कर अद्वैत की उपलब्धि के लिए मैं अपने इष्ट प्रियतम के साथ एकात्म होता चला जा रहा हूँ। जिस प्रकार पतंगा दीपक पर आत्मसमर्पण करता है, अपनी सत्ता को मिटाकर प्रकाशपुँज में लीन होता हैं, उसी प्रकार मैं अपने अस्तित्व-इस अहंकार को मिटाकर ब्रह्म में, समष्टि चेतना में विलीन हो रहा हूँ। मैं अपनी समस्त श्रद्धा के साथ अपना सर्वस्व प्रभु को समर्पित कर रहा हूँ।”
भक्ति का अर्थ ही है अपने आपे का समर्पण। ज्ञान से-अहं ब्रह्मास्मि” कहकर निर्वाण किसी को प्राप्त हुआ हो, चाहे योग के विभिन्न मार्गों से-एक ही चीज शाश्वत रही है-प्रभुप्रेम प्यार सभी में एक सार्वभौम घटक रहा है। इस प्यार का स्वरूप है-ईश्वर से, सिद्धान्तों से, आदर्शों से घनिष्ठ प्रेम। समष्टि में संव्याप्त, कण-कण में विराजमान सत्ता से प्रगाढ़ प्रीति। भगवान से प्रेम करने वाला ही सिद्धि वाली भक्ति पाता है। श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी जी ने कहा है-साधन सिद्धि राम पग नेहू। अर्थात् ‘प्रभु के चरणों में प्रति साधना भी है-सिद्धि भी।’ साधना जब सिद्धिदात्री बन जाए तो फिर चाहिए क्या एवं यह भक्तियोग के समर्पण वाले, विसर्जन वाले मार्ग पर चलकर प्राप्त करना अत्यन्त सरल है। प्रीति करें तो कैसे? प्रीति होती उससे है, जिसके हम पास रहते हैं- जिसकी हमें हर पल याद बनी रहती है। लौकिक दृष्टि से दो पड़ोसी भी एक साथ रहते हैं, तो लगाव पैदा हो जाता है-आपस में प्रीति भरे संबंध बन जाते हैं। प्रभु के पास रहना आध्यात्मिक दृष्टि से संतों की भाषा में ‘सुमिरन’ (स्मरण) द्वारा संभव है। सारे संसार के भक्त अपना सर्वस्व अर्पण करने के लिए भगवद्सुमिरन की बात कहते रहे हैं।
प्रेम जब कामनाओं से परे होकर, कामवासना से ऊपर चलकर भगवत्प्रेम बन जाता है तो जैविक नहीं, आध्यात्मिक स्तर की उच्चता प्राप्त कर रूपान्तरित हो भक्ति में-समर्पण में बदल जाता है। वैज्ञानिकों के लिए प्रेम एक जैविक तथ्य है। पाश्चात्य जगत कामवासना व प्रेम में, उच्चस्तरीय समर्पण में, समाज-राष्ट्र-परमात्मा के प्रति भक्ति के स्वरूप में कोई अंतर कर ही नहीं पाया, इसी कारण वहाँ का पारिवारिक जीवन असफल रहा है। प्रेम-भक्ति वस्तुतः संवेदना की एक प्रकार से खेती है। इसी से जीवन में इसका संचार होता है। यही दाम्पत्य जीवन में बिना किसी सौदे के समर्पण एवं सामाजिक क्षेत्र में मानवमात्र के प्रति करुणा के विस्तार के रूप में देखी जाती है। वस्तुतः प्रेम-भक्ति का पुष्प उसी तरह उगता, पुष्पित, पल्लवित होता है, जैसे कीचड़ में कमल। कमल व कीचड़ की रासायनिक संरचना में अंतर है, किंतु जैविक जीवन की भावनाओं की उच्चतम अभिव्यक्ति के रूप में दैनन्दिन जीवन की भोग-वासनाओं की जिंदगी रूपी कीचड़ से। यही प्रेम जब भक्ति का रूप लेता है, तो ऐसा प्रतीत होता है मानो हमारी जीवन वीणा से छेड़ा हुआ संगीत बज रहा हाँ। भक्ति में स्वर्गीय सौंदर्य है। भक्ति में वासनाओं का, कामवासनाओं का रूपान्तरित ईश्वरीय स्वरूप है।
भक्तियोग-समर्पण योग हमें इस तथ्य की जानकारी कराता है कि मनुष्य भगवान के एवं भगवान मनुष्य के अस्तित्व का एक अंश है। ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखरासी’ वाली भावना को ध्यान में रख अंश का-जीव का जब तक अविनाशी ब्रह्म में, ईश्वर में समर्पण-विलय न हो। तब तक लक्ष्य की पूर्णता कहाँ हो? किसी उर्दू शायर ने लिखा हैं-
तू है मुजि है बंकाराँ मैं हूँ एक आबजूँ। या तो मुझे हमकिनार कर या दरकिनार कर॥
मुजि है बेकराँ अर्थात् असीम विस्तार वाला महासागर, आबजूँ अर्थात् एक छोटा-सा झरना। हमकिनार करना यानी अपने में मिला लेना-दरकिनार करना यानी परे उठाकर फेंक देना। यहाँ सूफी शैली में साधक कहता है कि हे परमात्मा! तू तो निस्सीम महासागर है एवं मैं एक छोटा-सा झरना हूँ या तो मुझे अपने में मिला ले या मुझे पर हटा कर फेंक दे। समर्पण की यही इन्तिहाँ है। बूँद का समुद्र में, भक्त का भगवान में, क्षुद्र का महान में, पुरुष का पुरुषोत्तम में समर्पण, विलय, विसर्जन आकुलता की इसी सीमा पर जाकर होता है। अंश को पूर्णता मिलती है तो पूर्ण में समाकर ही।
वस्तुतः प्रभु से मिलन-सुधारस (भगवान से प्रेम) का पान ही जीवात्मा का लक्ष्य होना चाहिए-मृगतृष्णा में पड़ कर वह भटक जाता है एवं इसी कारण दुख, शोक, उद्वेग, अशान्ति का कारण बनता है। समर्पण एक प्रकार से अंतःकरण की समस्त व्याधियों के उपचार का शुभारंभ है।
सर्वस्व के समर्पण में अंततः बाधक क्या है-सारे महात्मा, ज्ञानी-ऋषिगण एक ही तथ्य बताते आए हैं कि अहं को गलाए बिना समर्पण संभव नहीं। अहं प्रकृति व आत्मा के मध्य एक गाँठ है। जब अहं आत्मा को परे धकेलकर अपने को ही सब कुछ मान लेता हैं, तब यह घातक बन जाता है एवं सारी प्रगति के मार्ग अवरुद्ध हो जाते है। हम अपने अस्तित्व के बारे में भ्रमित होकर जो करते हैं, उसका अभिमान करते हैं-यहीं अहंकार है। आध्यात्मिक प्रगति के क्षेत्र में एक तथ्य सदा ध्यान में रखने योग्य है कि जहाँ कहीं भी अहं का बीज मौजूद होगा, उसे गलाकर, परिष्कृत कर समर्पण की स्थिति नहीं लायी जाएगी, तब में प्रगति तो रुकी ही रहेगी, अवनति-ही-अवनति होने का भय है। पहली गड़बड़ होते ही आत्मजगत में निगाह जानी चाहिए कि कहाँ गड़बड़ी हैं। हमारे भीतर कौन-सा ऐसा असामंजस्य है जो बाहर फलीभूत हो राह है। यह असामंजस्य अहंरूपी अवरोधक तत्व के कारण हो सकता हैं, जिसके कारण भगवत्चेतना अंदर कभी प्रवेश नहीं कर पाती। अहं का अर्थ होता है-व्यक्ति के अंदर भाव आना कि सृष्टि का केन्द्र मैं हूँ। औरों को मेरे साथ तालमेल बिठाना चाहिए।
बिनोवा लोकसेवी के लिए साधना क्षेत्र में प्रवेश करने वाले के लिए कहते थे कि उन्हें यश का दान करना चाहिए। वे कहते हैं कि हम सबसे दान माँगते फिरते हैं, क्या हम कुछ दान दे सकते हैं। हम जो कुछ काम करते हैं उसका यश हमें न लेकर दूसरों को देना चाहिए। श्री रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि “यदि तुम्हारा अहं नहीं गया तो तुम्हारा गुरु स्वयं ब्रह्मा हो तो भी वह तुम्हारा कल्याण नहीं कर सकता।”
समर्पण हानि-लाभ देखे बिना-नाम-यश की कामना रखे बिना किया जाता है। परमपूज्य गुरुदेव बाँसुरी का उदाहरण देते हुए कहते थे कि पोली बाँस में अहं की गाँठ ही बाधक है। जैसे ही वह गाँठ निकली, राग निकलने लगते हैं एवं श्रीकृष्ण के होठों से सटने की पात्रता उसे मिल जाती है। अहं बड़ा सूक्ष्म होता हैं, किंतु समूची आध्यात्मिक प्रगति की अवरुद्ध कर देता हैं। अहं वाणी की मधुरता का भी हो सकता है, लेखनी का भी, विद्वत्ता का भी, सिद्धि का भी एवं वैराग्य का भी। अहं हर दृष्टि से बाधक है। भक्तियोग का पहला सोपान है-अहं का विसर्जन-विलय कोई भी महान कार्य इस सृष्टि में बिना समर्पित सेवा के संभव नहीं हुआ। हर साधक का पहला लक्ष्य होना चाहिए-अंतर्जगत पर एक दृष्टि डालकर अहंकार रूपी नाग को कुचलना। यह एक कठिन साधना है, पर सर्वस्व को समर्पित करके ही तो सर्वस्व की प्राप्ति की जा सकती है। यदि यह तथ्य ध्यान में रहे एवं कबीर के इन पदों का मर्म समझ में कही कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। संत कबीर कहते हैं-
तू तू करता तुझ गया मुझ में रही न हूँ। वारी फेरि बलि गई जित देखीं तित तू॥
जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नाहिं। प्रेम गली अति साँकरि ता में दुई न समाइ।
समर्पण की यह पराकाष्ठा है। इस स्तर पर भक्त व भगवान, साधक व इष्ट, शिष्य व गुरु की चेतना एक-दूसरे में मिल जाती है एवं फिर साधक सर्वस्व को प्राप्त करने का अधिकार पा लेता है।