श्रीराम कृष्ण परमहंस ने जब महासमाधि ली तब उनके पास सम्पत्ति के नाम पर कुछ भी न था। वे स्वयं दूसरे के मंदिर में पुजारी थे। कोई मठ उनने नहीं बनाया। स्वामी विवेकानन्द व साथ के सभी गुरुभाइयों ने अपने अटूट गुरु-विश्वास के भरोसे सात वर्ष तक की अवधि पार की। कितनी ही बाधाएँ आयीं, पर विचलित नहीं हुए भारत में परिव्रज्या करते-करते विश्वधर्म संसद की जानकारी मिली व दैवयोग से अमेरिका जाने की व्यवस्था भी हो गयी। प्रतिकूलताओं के बावजूद -कोई औपचारिक निमंत्रण न होने पर भी भाषण देने का अवसर मिला। ‘ब्रदर्स एण्ड सिसटर्स ऑफ अमेरिका’ शब्द रूपी उनके संबोधन ने मानो जादू का काम किया। वहीं से उन्हें प्रसिद्धि मिलना जारी हुई।
जब अमेरिका से लौटे तो श्रीलंका मद्रास-कलकत्ता सब ओर उनका अभूतपूर्व स्वागत हुआ। कलकत्ता आते ही दक्षिणेश्वर के मंदिर गए एवं श्री रामकृष्ण के भतीजे रामलाल, जो उस समय वहाँ के पुजारी थे, के चरणों में गिर गए। श्री माँ के पास जाने से पूर्व वे काली को प्रणाम करने आए थे। श्री रामलाल को जब उनने प्रणाम किया तो सबने पूछा कि ऐसा क्यों? आप तो उनसे बहुत ऊँचे है। उनने कहा-गुरुवत गुरुपुत्रेषु-गुरु के समान ही गुरु के पुत्र को भी मैं मानता हूँ। सभी को मानना चाहिए। सभी सुनकर उनका श्री रामकृष्ण व परिवार के प्रति अनन्य भाव देखकर भावविभोर हो गए। -’मठ की डायरी’ से