भक्तियोग की साधना व उसका मर्म

December 1998

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अध्यात्म क्षेत्र की दो धाराएँ प्रमुख हैं-ज्ञान व भक्ति। प्रचलित मान्यता यही रही है कि ये दोनों हो धाराएँ परस्पर विरोधी हैं। दोनों में कोई समन्वय नहीं हैं। ज्ञानमार्ग का एकमात्र लक्ष्य तत्त्वदर्शन व विश्लेषण-गवेषणाएँ आदि होता है, जबकि भक्तिमार्गी का अनुयायी भक्ति-भावना में अपने को तन्मय रखना चाहता है, दर्शन की बौद्धिक उलझनों में अपना समय व श्रम नहीं लगाता। ये दोनों ही मान्यताएँ एकाँगी एवं अपूर्ण है। शरीर में भगवत्सत्ता ने मस्तिष्क के साथ हृदय को भी सर्वोपरि स्थान पर रखा है। बुद्धि है तो भावसंवेदनाएँ भी हैं। दोनों परस्पर विरोधी नहीं, एक-दूसरे की पूरक हैं। हृदय की भाव-संवेदनाएँ ही अपनी कोमलता द्वारा विचारों में वह गुणवत्ता जोड़ती हैं, जिससे कि बुद्धि प्रज्ञा बन सके। विचार कितने ही सशक्त व प्रभावशाली क्यों न हों, संवेदनशीलता जुड़े बिना वे कल्याणकारी नहीं हो सकते। इसीलिए भक्ति-साधना का महत्व सर्वाधिक बताया गया है।

ज्ञानमार्ग, योगसाधना एवं कर्म-योग को यदि एक पलड़े पर रखें व दूसरे पर भक्ति को, तो भक्ति वाला पलड़ा ही भारी लगता है। ज्ञान में वेदान्त को शीर्षस्थ माना गया हैं वेद का शीर्ष है-वेदान्त जिस में उपनिषद्, श्रीमद्भागवतगीता एवं ब्रह्मसूत्र के रूप में ‘प्रस्थनत्रयी’ के तीन घटक बताए गए है। ज्ञानमार्ग में वेदान्त के चार महावाक्य हैं-तत्त्वमसि सोऽहम्, अयमात्मा ब्रह्म, सर्व खिल्विदं ब्रह्म। इन चार महावाक्यों को जीवन में प्रतिष्ठित कर लेना सामान्य व्यक्ति के लिए एक बहुत अत्यन्त ही कठिन कार्य है। देह के रहते आज के इस भौतिकवादी युग में किसी एक की भी प्रतिष्ठा लगभग असंभव है। कोई बिरला आचार्य शंकर, रमण महर्षि, विवेकानन्द, गुरुदेव श्रीराम शर्मा आचार्य जी अथवा श्री अरविन्द जैसा प्रकट हो जाय तो बात अलग हैं। इसमें शुद्ध बुद्धि की आवश्यकता पड़ती है। बुद्धि आज छल-कपट से भरी हुई है। बुद्धि की सही प्रखर धारणा हो एवं धारणा के बाद वह प्रज्ञा रूप में प्रतिष्ठित हो तो ही ज्ञान-योग सध पाता है।

काकभुशुण्डि-गरुड़ संवाद में श्रीरामचरितमानस में आया है-ज्ञान के पंथ कृपाण के धारा। परत खगेश लगे नहिं वारा।’ अर्थात् हे खगेश! ज्ञान का रास्ता दुधारी तलवार पर चलने के समान है। इसका वार पलटकर लगते देर नहीं लगती। इसलिए आज के इस संक्रान्ति काल में ज्ञानयोग के मार्ग से भक्तियोग का मार्ग ही श्रेष्ठ बताया गया है। दूसरा एक मार्ग योगसाधना का बताया गया हैं, जिसकी विशद व्याख्या भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म की पराकाष्ठा के रूप में गीता के छठवें अध्याय में ‘आत्मसंयम योग’ नामक अध्याय में की है। योग में पतंजलि द्वारा बताया राजयोग एवं गोरखनाथ द्वारा बताया गया हठयोग सुप्रसिद्ध हैं। दोनों के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है-समय की सुव्यवस्था, खानपान का संयम, नियमित योगाभ्यास। आजकल के प्रदूषण भरे भौतिकता प्रधान युग में संयम कितना सध सकता है, इसे अपने अंदर झाँककर देखा जा सकता है। पत्र-पत्रिकाएँ समाचार पत्र, केबल टीवी-फिल्मों से भरी बहिरंग की दुनिया में सतत् चिंतन क्षेत्र पर कुविचारों का आक्रमण होता रहता है। आज योग के नाम पर बहिरंग का कर्मकाण्ड मात्र ही संपन्न हो रहा है-पूज्यवर गुरुदेव को अनुसार शरीर के तल से साधना कर पाना आज संभव नहीं है-मन के तल से आरंभ कर अंतःकरण की ओर जाना व समर्पण भाव से परमात्मचेतना में स्वयं को प्रतिष्ठित कर सकना भक्तियोग से ही संभव है। गीता में योग को साधने की अनिवार्य शर्तों के रूप में जो वर्णन आया है। उसमें बताया है-

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥

अर्थात् “उचित आहार-विहार कर्मों से उचित चेष्टा-उचित जागरण व शयन ही दुःखहरण करने वाला योग सिद्ध होता है।” देखने योग्य है कि इनमें से कितना आज के इस विज्ञान की पराकाष्ठा वालों युग में साधा जा सकता है।

तीसरा है-कर्मयोग यदि कर्म भक्ति से विहीन है-समर्पण भाव से रहित है, तो कर्मयोग नहीं है। फिर तो वह कर्म आसक्ति मात्र हैं। कितना ही हम कहें-अकर्ता अनासक्त भव से कर्म कर रहे हैं-कहाँ कर पाते हैं। अकर्ता का भाव कठिनाई से ही आ पाता है। चर्चा चाहे जितनी ही ज्ञान बघारने के रूप में कर ली जाय, किंतु निष्काम कर्मयोग कठिनाई से ही सध पाता है। जो ईश्वर के मन्दिर के रूप में शरीर को माने, लिप्साओं को शत्रु समझे, औषधि रूप में सात्विक आहार ग्रहण करे एवं संतुलित श्रमसाधना का स्वयं के लिए निर्धारण करे उसका कर्मयोग सध भी जाता है एवं आरोग्य-दीर्घायुष्य के रूप में फलित भी होता है। आज की परिस्थितियों में यह भी बड़ा दुष्कर कार्य है।

अंत में यदि कोई सर्वसुलभ है- तत्त्वज्ञानियों ने, गीतकार ने, रामायण-रामचरितमानस के रचयिता ने जिसकी व्याख्या की है-वह भक्तियोग ही है, जो बड़ी सरलता से सध जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने तीनों योगों की चर्चा श्रीमद्भागवतगीता में की है। प्रथम छह अध्याय में कर्मयोग की, द्वितीय छह अध्याय में भक्तियोग की, अंतिम छह अध्याय में ज्ञानयोग की। किंतु सबके बाद एक ही तथ्य कहा है-

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

अर्थात् हे अर्जुन! तू ज्ञान को, योग को, कर्म को सभी रास्तों को छोड़कर मेरी शरण में आ जा-मेरी भक्ति कर। मैं तुझे सभी तरह के पापों से मुक्त कर दूँगा। तू शोक किसी भी स्थिति में मत कर।

भक्ति में शुद्ध व समर्पित भावों की आवश्यकता पड़ती है। भक्ति के प्रभाव से वनवासिनी शबरी, पाषाण रूप अहिल्या, राक्षस कुल के विभीषण, केवट, निषादराज, ब्रज की गोपियाँ, बाल-ग्वाल सभी का उद्धार हो गया। इसीलिए समस्त योग साधनाओं, तांत्रिक साधनाओं, ज्ञानमार्ग के ग्रन्थों रो अधिक भक्तियोग को महत्व दिया गया है। भक्ति का अर्थ है-सत्य को बुद्धि से नहीं हृदय से पाइए। विचारों से नहीं भाव से पाइए। चिन्तन से नहीं प्रेम से पाइए। भक्ति-सिद्धि में आक्रामक चित्त-ईर्ष्यालु मन एक बाधा को समान है। अतः एक प्रेयसी की तरह ही प्रभु को पाया जा सकता है। प्रभु को पाना है तो अत्यन्त शान्त-निष्काम भाव वाली दशा हो। न अपना पता रहे, न उसका पता। वस्तुतः चेतना को परिष्कृत सतोगुणी स्थिति एक पहुँचाने की भावविभोरता ही भक्ति है। इसी को भगवत्प्रेम कहा गया है।

अद्वैत वेदान्त के महान पण्डित मधुसूदन वेदान्त के मर्मज्ञ माने जाते थे। उनने अंत में भक्तिमार्ग को अपना लिया। लिखा है-

अद्वैत वीथी पथिकै रुपास्या। स्वराज्य सिंहासन लब्धदीक्षा॥ शठेन केनापि वयं हठेन। दासीकृता गोपवधू विटेन॥

अर्थात् “अद्वैत वेदांत की वीथियों-गलियों में भ्रमण करने वाले आत्मराज को उपलब्ध कर चुके- मुझ को दृढ़तापूर्वक गोपकुमारियों के स्वामी श्रीकृष्ण ने अपना भक्त बना लिया है।’ इसके पीछे भी एक कथा है-मधुसूदन सरस्वती के पाण्डित्य का लोहा सारा भारतवर्ष मानता था। रामचरितमानस के लोकभाषा में लिखे जाने पर भी उन दिनों काफी वितण्डावाद मचा था, जिसे मधुसूदनजी ने ही सुलझाया था। उन दिनों उनके समकालीन एक भक्त थे नाभादास। दोनों एक-दूसरे से मिलते रहते थे। एक ज्ञानमार्गी, दूसरा बिना पढ़ा-लिखा अष्टछाप के आठ कवियों में से एक बल्लभाचार्य संप्रदाय का भक्त। नाभादास की मस्ती व भक्ति देखकर मधुसूदन सरस्वती उनसे कहते थे-तुम्हें कृष्ण नजर आते हैं या यूँ ही रट लगाते रहते हो। तुम अद्वैत की साधना करो-जीवो ब्रहमेव ना परः’ से ही तुम्हारा कल्याण होगा।” एक दिन नाभादास ने उन्हें भावजगत में ले जाकर गोलोक धाम की सारी लीलाएँ दिखाई। यह आभास कराया कि भक्ति का मार्ग ज्ञानमार्ग से कितना ऊँचा है। नाभादास की सरलता-निष्कपट व्यवहार, कृष्ण सखा वालों स्वरूप ने मधुसूदन को ज्ञानी से भक्त बना दिया। उपर्युक्त संस्कृत श्लोक इसके बाद ही मधुसूदन सरस्वती ने लिखा था। चैतन्य महाप्रभु द्वारा समस्त ग्रंथ-निबंध गंगा नदी में बहाकर खड़ताल हाथों में ले भक्तिमार्ग का आश्रय ले पूरे बंगक्षेत्र ही नहीं, समूचे भारत में भक्ति की गंगा बहा उसका कल्याण कर देना जगतविख्यात है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118