अनासक्त कर्मयोग एवं उसकी सर्वसुलभ साधना

December 1998

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कर्म की धुरी पर ही सृष्टि का गतिचक्र अविराम चक्कर काट रहा है। संसार का दृश्यस्वरूप इसी गति प्रक्रिया पर अवलम्बित है। कर्म किए बिना यहाँ कोई नहीं रह सकता। जीवित रहने के लिए कर्म आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। अविकसित मनुष्येत्तर जीवों में यह प्रकृति प्रेरणा से परिचालित है। उदरपूर्ति और कामतुष्टि जैसे दो सीमित प्रयोजनों तक ही उनके सुख और आनंद की अनुभूतियाँ सीमित है। अतएव उनके लिए सुख-दुःख की उच्चस्तरीय वैचारिक और बन्धनमुक्ति की आत्मिक अनुभूतियाँ निरर्थक हैं।

मानसिक और बौद्धिक दृष्टि से सुविकसित होने के कारण मनुष्य ऐन्द्रिक सुख की निम्न परिधि में नहीं रह सकता। उसे उच्चस्तरीय शाश्वत आनन्द की खोज है, जिसके लिए वह सांसारिक मृग-मरीचिका में अज्ञानवश भटकता रहता है। ऋषियों ने इस भटकाव से बचने के लिए व जीवन के शाश्वत आनन्द की प्राप्ति के लिए ज्ञानयोग, भक्तियोग अथवा कर्मयोग का मार्ग अपनाने का निर्देश दिया है। कर्मयोग के पथ को राजमार्ग इसलिए माना गया है।, क्योंकि यह हर मनःस्थिति के व्यक्तियों एवं आज की परिस्थितियों के अनुकूल है। भटकाव की गुँजाइश कम है, जबकि ज्ञानयोग या भक्तियोग में एक निश्चित प्रकार की मनः स्थिति का होना अनिवार्य है। कर्मयोग सभी के लिए इस वजह से उपयुक्त है, क्योंकि मनुष्य जीवनपर्यन्त किसी-न-किसी रूप में कर्मों से जुड़ा रहता है। उनसे अलग होना सम्भव नहीं। अतएव यदि कर्मयोग की सर्वसुलभ साधना बन पड़े, तो इसी जीवन में स्वर्ग और मुक्ति का आनन्द लेना हर किसी के लिए सम्भव है।

‘कर्म’ आत्मा और परमात्मा को एकाकार कर देने वाला ‘योग’ तब बन जाता है, जब वह निष्काम हो। निष्काम आखिर क्यों-कामनायुक्त क्यों नहीं? क्योंकि मन की कामना ही समस्त भव-बन्धनों का कारण है। गीताकार ने भी इस रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा है- ‘मन एवं मनुष्याणां कारण बन्धमोक्ष्योः’ कामनायुक्त कर्म जहाँ बन्धनों में बाँधता है, वहीं निष्काम कर्म मुक्ति का साधन बन जाता है। एक क्षण के लिए भी कर्म से विरत रहना सम्भव नहीं है, साथ ही कर्म भवबन्धनों से भी जकड़ता है, फिर संसार में किस तरह रहा जाय? जीवनमुक्ति का आनन्द किस तरह उठाया जाय? यजुर्वेद का ऋषि इस समस्या का समाधान प्रस्तुत करते हुए कहता है- ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः अर्थात् संसार को भोगें, परन्तु निर्लिप्त होकर, निःसर्ग होकर, निष्काम भाव से।

कर्मयोग की सर्वसुलभ साधना को अपनाने वाला साधक अपनी समस्त इच्छाओं, आकांक्षाओं को परमात्मा को समर्पित कर देता है। कर्मफल के प्रति उसकी आसक्ति नहीं रहती। अपने कर्तव्यों एवं दायित्वों के प्रति वह तत्पर और सजग रहता है। उनके निर्वाह में सन्तोष की अनुभूति करता है। शरीर से कर्म और मन से चिन्तन करते हुए भी वह सांसारिक पदार्थों एवं व्यक्तियों के प्रति अनासक्त होता है। अर्जुन को सम्बोधित करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

योगस्थः कुरु कर्माणि सÄõत्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समोभूत्वा समत्वं योग उच्यते॥

अर्थात्- हे अर्जुन! आसक्ति छोड़कर सिद्धि और असिद्धि के विषय में समभाव योग में स्थित होकर कर्म करो। समत्व को ही योग कहते हैं।

समत्व का अर्थ हुआ- समान भाव, समभाव की एकरूपता से चित्तवृत्तियों की चंचलता पर स्वाभाविक रोकथाम लग जाती है। महर्षि पतंजलि ने भी इसे स्वीकारा है। भगवान श्रीकृष्ण ने महर्षि पतंजलि के समूचे योगदर्शन को एक ही शब्द ‘समत्व’ में अन्तर्हित कर दिया है। हर पल चित्त की चंचलता कर्मों को करने में बाधा डालती है। सुख-दुःख जय-पराजय हानि-लाभ के द्वन्द्व मानसपटल पर सतत् उभरते रहते हैं। जय होने पर घमण्ड होता है और पराजय से व्यक्ति हताशा के महागर्त में गिर जाता है। परिस्थितियों से जो मनः स्थिति को प्रभावित न होने दे, वह समत्व योग की ही उपासना करता है। बाह्य परिस्थिति जैसी भी बने, जिसकी वृत्ति में चंचलता नहीं है, वही कुछ कर्तव्यपालन कर सकते हैं।

निष्काम कर्मयोग का साधक वस्तुतः चित्तवृत्तियों पर नियंत्रण रखने वाला कठोर तपस्वी भी होता है। जो पल-पल अपनी मनःस्थिति पर पैनी नजर रखता है। सिद्धि हो चाहे असिद्धि, हम जीवनक्षेत्र में सफल हों या फिर असफल, कभी भी अपनी समस्वरता पर उसका प्रभाव न पड़ने देंगे- यही कर्मयोग के साधक का लक्ष्य होता है।

कर्मयोग के परम उपदेष्टा भगवान श्रीकृष्ण का सार जैसे त्यक्त्वा अर्थात् फल की आसक्ति को त्यागने पर देते हैं। सत्य यही है कि यही तो मानव आमंत्रित दुर्बुद्धिजन्य आपत्तियाँ हैं। संग से ही विषयासक्ति की कामना कामना से क्रोध, क्रोध से मूढ़ता, मूढ़ता से भ्रम व भ्रम से बुद्धि नाश होता है। बुद्धि का नाश ही मनुष्य के नाश का कारण है। इसीलिए कहा गया है कि-

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि स त्यक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥

“जो मनुष्य आसक्ति छोड़कर ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्मों को करता है, वह पानी में कमलपत्र की भांति पाप से लिप्त नहीं होता।” इसलिए फलेच्छा का त्याग करके किए गए कर्म ही सात्विक कहे जाते हैं। ऐसा व्यक्ति ही कर्मयोग परायण साधक कहा जा सकता है।

ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म बहुत अनिवार्य है। साधारण मनुष्य जो कर्म करता है, वह स्वार्थवश करता है। उस समय इस जीव को परमात्मा का विचार गौण होता है। यह अज्ञान का ही द्योतक है। इसलिए इस अज्ञान के निवारण तथा ब्राह्मण बुद्धि से कार्य करने से ज्ञान की प्राप्ति कराने वाले इस कर्मयोग को श्रेष्ठ कहा जाना अत्युक्ति नहीं होगी। पर इस कर्मयोग का आरम्भ वहीं से होता है, जिसे भगवान से त्यक्त्वा अर्थात् अनासक्ति कहते हैं।

कर्मफल के प्रति अनासक्ति का होना इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि मनुष्य का अधिकार मात्र कर्म करने पर है। फल पर उसका कोई अधिकार नहीं है। यह सच है कि कर्मों का फल अपने निश्चित समय पर मिलता है, पर यह भी उतना ही सत्य है कि यह प्रक्रिया किन्हीं अदृश्य के हाथों संचालित है। कई बार कर्मफल प्रक्रिया में व्यतिरेक पड़ते भी दिखाई पड़ता है। एक निश्चित प्रकार के कर्म करते हुए भी उसका परिणाम उल्टा देखकर मन में कर्मफल व्यवस्था के प्रति आशंका उठती है। प्रायः ऐसा कर्मफल के सिद्धान्त को सही रूप से न समझने के कारण की होता है। प्रत्यक्ष जीवन और उससे जुड़ी भली- बुरी उपलब्धियाँ मात्र इसी जीवन को ही नहीं, जन्म-जन्मान्तरों के उन संचित कर्मों का परिणाम होती हैं, जो पिछले जन्मों में किए गए होते हैं। वे ही कर्मफल के सुनिश्चित विधान के अनुसार कालान्तर में रोग-शोकों के रूप में प्रकट होते दिखाई देते हैं। अतएव कर्मफल का सिद्धान्त अक्षरशः सत्य होते हुए भी उसमें आसक्ति का न होना ही श्रेयस्कर है। फलासक्ति हो और उसके तद्नुरूप परिणाम न निकलने से भारी निराशा होती है।

श्रीमद्भागवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण-अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश देते हुए कहते हैं- जो सुख-दुख सर्दी- गर्मी, लाभ- हानि, जीत-हार यश-अपयश जीवन-मरण भूत-भविष्य की चिन्ता न करके मात्र अपने कर्तव्य कर्म में निरत रहते हैं, वही सच्चा कर्मयोगी है। कर्मयोगी इस सत्य से भली-भाँति परिचित होता है कि सांसारिक द्वन्द्व तो एक के बाद एक आते हैं और आते रहेंगे। इनका प्रभाव क्षणिक और अस्थाई है तथा मात्र नाशवान् शरीर तक ही सीमित है। स्थायी, शाश्वत तो आत्मा है, उसका उत्थान-पतन ही मनुष्य का वास्तविक उत्थान और पतन है। अतएव जो भी कर्म किए जाएँ, वे आत्मोन्नति को ध्यान में रखकर।

कर्मयोग की साधना के सम्बन्ध में कितने ही व्यक्तियों के मस्तिष्क में अनेकों प्रकार की भ्रांतियाँ बैठी हुई हैं। कितने ही अतिवादी यह कहते हैं कि “हम जो भी काम करते हैं वह वास्तव में हमसे कराए जाते हैं और वह कराने वाला परमात्मा है। हमारे द्वारा किया जाने वाला काम अच्छा है या बुरा, इसकी न तो हमें चिन्ता करनी चाहिए और न ही अपने ऊपर उत्तरदायित्व लेना चाहिए। सबके लिए जिम्मेदार परमात्मा है।” इस भ्रान्तियुक्त धारणा के कारण मनुष्य सत्कर्म एवं दुष्कर्म के बीच अन्तर नहीं करता और दोनों ही वे प्रवृत्त होता है। ऐसे में मन को अपनी निम्नगामी प्रवृत्तियों को तुष्ट करने की खुली छूट मिल जाती है। फलतः वह पतन के गर्त में गिरता चला जाता है।

सृष्टि का नियामक-संचालक होते हुए भी परमात्मा ने मनुष्य को अतिरिक्त रूप से विवेक-बुद्धि देकर उसे कर्मों का अधिष्ठाता बनाया है। उसे कर्म करने की पूरी-पूरी छूट दे रखी है। चाहे तो वह सत्कर्म का मार्ग अपनाकर आत्मिक प्रगति की ओर बढ़ सकता है अथवा दुष्कर्मों में प्रवृत्त होकर अपनी अवनति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। भले-बुरे कर्मों के लिए इस प्रकार पूर्णरूपेण उत्तरदायी मनुष्य ही है, न कि परमात्मा। थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाय कि कर्मों के लिए प्रेरणाएँ परमात्मा से मिलती हैं, तो इस सत्य की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती कि सत्यम् शिवम् सुंदरम् से युक्त परमात्मा कभी मनुष्य को दुष्कर्म करने की प्रेरणा देगा। ऐसी प्रेरणाएँ अपने ही मन की उपज होती हैं। उस महान सत्ता का प्रतीक- प्रतिनिधि आत्मा के रूप में अपने भीतर बैठा हुआ है, जो सदा उच्चस्तरीय प्रेरणा ही सम्प्रेषित करता है, पर मन द्वारा उनकी उपेक्षा-अवहेलना होने से वे व्यवहार में नहीं उतर पातीं। मन की अपेक्षा यदि सचमुच ही अपनी गतिविधियों आत्मप्रेरणा के अनुरूप परिचालित किया जाय, तो कभी दुष्कर्मों की ओर बढ़ने का अवसर ही न प्रस्तुत हो। अतएव सत्कर्म-दुष्कर्म का दायित्व अपने ऊपर न मानकर परमात्मा पर मानना कर्मयोग का गलत अर्थ लगाना है।

कर्मयोग शब्द स्वयं भी अपने वास्तविक अर्थ को प्रकट करता है। यह दो शब्दों से मिलकर बना है- कर्म और योग। कर्म में किया-प्रेरणा संकल्प, इच्छा की गतियाँ निहित हैं, लेकिन उसकी दिशा योग शब्द से तय होती है। अर्थात् इन सभी गतियों की दिशा परमात्मा से मिलने के लिए होनी चाहिए। वैसे भी गीता योग शब्द की व्याख्या इस प्रकार करती है। योगः कर्मसु कौशलम्- कर्म। से कुशलता ही योग है। कार्यकुशल वही हो सकता है जिसे उचित-अनुचित कर्मों के बीच स्पष्ट अन्तर का बोध हो। कुशल शब्द के अंतर्गत सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् का भाव समाहित है। इसलिए कार्यकुशलता में अशुभ कर्मों के लिए कोई गुँजाइश नहीं है। कर्मयोग की साधना का वास्तविक अर्थ यही है कि किसी भी काम को पूरी कुशलता के साथ कर्तापन का अभिमान छोड़कर किया जाय और उसके फल के प्रति निर्लिप्त-निस्पृह रहा जाय। निश्चित रूप से यदि इस तत्त्वदर्शन को हृदयंगम किया जा सके तो कर्मयोग की सर्वसुलभ साधना का अवलम्बन लेकर साधक जीवन के सामान्य दायित्वों का निर्वाह करते हुए भी स्वर्गमुक्ति का उच्च-स्तरीय आनन्द प्राप्त कर सकता है।


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