है उदास कुछ अंतरतम यह, रत्नों का उपहार किसे दूं? पात्र बहुत छोटे दिखते हैं, पावस की जलधार किसे दूं??
सागर के तल तक जाकर मुश्किल से ही ये आ पाये हैं। किन्तु मिला न पहनने वाला, सोच, हृदयतल-घन छाये हैं॥
विजयी कंठ न दिखता कोई, रत्नों का यह हार किसे दूं??
हर मन की धरती प्यासी है, किन्तु न कोई पोली करता। पर-हित के बीजों से कोई अपना जीवन-खेत न भरता॥
उमड़ रही अंतर में, किन्तु महावट की बौछार किस दूं??
पीर गैर की नहीं समझता कोई-मन हैं कागज कोरे। संवेदन की भाषा खोयी, टूटे सद्भावों के डोरे॥
कौन लिखेगा गीत प्यार के, अंतर के उद्गार किसे दूं??
भौतिकता के आकर्षण ने, मनुज मात्र को भरमाया है। भक्ति, साधना और संयम के नाम मात्र से घबराया है॥
तप कर जिसे भरा जीवन भर, वह अक्षय भण्डार किसे दूं??
ले, पर लेकर के वह थाली, जो जन दीन-हीन को बांटे। जहां दरार दिखे उसको, अपने यत्नों से जो जन पाटे॥
मिल न सकेगा क्या ऐसा जन? अपना गुरुतर भार किसे दूं?? है उदास कुछ अंतरतम यह..................................
-माया वर्मा
*समाप्त*