अध्यात्म दर्शन की दिशा और एकता

June 1985

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‘दि फ्लेम एण्ड दि लाइट’ ग्रन्थ के प्रणेता ने गीता और धम्मपद का तुलनात्मक विवेचन करते हुए लिखा है कि दोनों में ही बुद्धि की पवित्रता का उद्देश्य एक है- चिन्तन में उच्चस्तरीय आदर्शों का समावेश। यों व्यक्तिगत जीवन में इस प्रयोग की चर्चा हुई है पर वह समाज पर भी समान रूप से लागू होती है। जो व्यक्तिगत जीवन में पवित्र है वह सामूहिक प्रयोजनों में दुष्टता या भ्रष्टता को नहीं अपना सकता। इसी ज्ञान के कारण कृष्ण, कृष्ण हुए और बुद्ध, बुद्ध। स्थित प्रज्ञता से दोनों का मतलब है ‘थियोसोफिकल फिलासाफी।”

“लाइफ्स डीपर आस्पेक्ट्स” ग्रन्थ के प्रणेता थियासाफिस्ट एन. श्रीराम ने कहा है “जड़ के भीतर चेतन की अनुभूति ही मानवी चिन्तन की उत्कृष्टता है प्रतीकों एवं प्रतिमाओं के प्रति श्रद्धा को केन्द्रित करना और उसे देवता के रूप में श्रद्धा प्रदान करना यह सामान्य तथ्य नहीं है। जड़ को चेतन के समतुल्य मान्यता देना यदि अन्धविश्वास नहीं है तो फिर उसे दर्शन की चरम सीमा ही कहा जायेगा।”

सृष्टि गतिशील है। यह गतिशीलता प्रकारान्तर से चेतना ही है। अन्यथा इच्छा शक्ति के अभाव में कोई जड़ पदार्थ गतिशील कैसे हो सकता है। यह इच्छा पदार्थ की न सही उसके साथ जुड़े हुए प्रेरक की ही सही, जब दोनों मिल जाते हैं तो ही वे चेतनवत् प्रतीत होते हैं। इस आधार पर जड़ और चेतन की एकता का सहज प्रतिपादन होता है वही अध्यात्म दर्शन को अभीष्ट भी है।

भौतिक विज्ञानी एडमंड मोरियर ने अपनी पुस्तक “ह्वाट इज लाइफ” में विस्तार पूर्वक लिखा है कि जिन्हें हम जड़ कहते हैं, वस्तुतः वे जड़ नहीं हैं। उनकी हलचलें स्पष्ट हैं। उनमें सम्वेदना भी हो सकती है। इस संवेदन को अनुभव करना दर्शन का काम है।

उपनिषद्कार ने बाइबिल के स्वर में स्वर मिलाते हुए ही कहा है कि- “ए मनुष्य! तू ही सृष्टि का निर्माता है।” सृष्टि में जो सौंदर्य है, श्रेयस्कर है और सद्भाव है वह मनुष्य का ही आरोपित किया हुआ है। अन्यथा ब्रह्मांड के अन्य ऊबड़-खाबड़ ग्रह-नक्षत्रों की तरह अपनी पृथ्वी भी रही होती। इसमें जो कुछ भी भाव संवेदन है उसे मनुष्य द्वारा आरोपित ही समझा जाना चाहिए। यदि मनुष्य स्वयं सम्वेदनशील न हो तो यह सम्भव नहीं था कि पदार्थों को देखने का प्रयोग में आने पर उन्हें भाव सम्वेदनाओं की अनुभूति होती। इस दृष्टि से यों भी कहा जा सकता है कि सृष्टि में चेतना का संचार करके जड़ को चेतन बनाने का श्रेय मनुष्य को ही है।

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की “फिलॉसफी ऑफ उपनिषदाज” में कई स्थान पर कई तरह से यह सिद्ध किया गया है कि सृष्टि की सुन्दरता एवं कुरुपता- उपयोगिता एवं अनुपयोगिता का आरोपण मानवी बुद्धि की कलाकारिता है। इस कला को पृथक कर देने पर यह संसार पदार्थ का एक टीला भर रह जाता है। तब ऐसा कुछ नहीं रहता जिसके स्पर्श से उल्लास उमंगे।

यह संसार अपनी जगह बहुत शानदार है। प्रकृति की अगणित शक्ति यों का उसमें समावेश है। एक घटक दूसरे घटक को आगे धकेल कर सृष्टि का गति चक्र भी बनाता है। इतने पर भी उसमें ऐसा कहीं कुछ नहीं है जिसमें कला एवं संवेदन का दर्शन हो सके। यह मनुष्य की अपनी चेतना की विशेषता है जिसे आरोपित करके पदार्थ को सरस एवं सुन्दर बनाया गया है।

यह अंतर्दृष्टि सबमें एक जैसी नहीं होती। वह व्यक्ति विशेष के मानसिक धरातल के अनुसार उत्कृष्ट, मध्यम और निकृष्ट स्तर की हो सकती है। किसी पदार्थ या प्राणी को बहुत अधिक महत्व देना अथवा निरर्थक मान लेना, यह मनुष्य की अपनी समझ के ऊपर निर्भर है। यह समझ भी सबकी एक जैसी नहीं होती। उसकी परख प्रक्रिया अपनी निजी सम्वेदनाओं के विकास पर निर्भर है।

थियोसाफी की प्रख्यात दार्शनिक पुस्तक ‘लाइफस् डीपर आस्पेक्ट’ जिसका हवाला ऊपर दिया गया, में लिखा है मनुष्य अपनी चेतना को कितना परिमार्जित एवं सम्वेदनशील बनाता है, यह उसका अपना प्रयास है। इसे ईश्वरीय अनुदान तब कहा जायेगा जब मनुष्य साधनारत रहकर अपने दृष्टिकोण को मानवी गरिमा के अनुरूप विकसित कर ले।

यह संसार एक दर्पण है। इसमें हम अपनी ही छवि देखते हैं। प्रमुदित एवं खिन्न निराश होने की स्थिति दर्शक की अभिरुचि ही उत्पन्न करती है। दर्पण तो एक पदार्थ मात्र है। उसे स्वयं सौन्दर्य की परिभाषा का ज्ञान नहीं है और न देखने वाले से कोई लगाव। दर्शक का दृष्टिकोण ही “दर्शन” है। उसका स्तर ऊँचा हो तो यहाँ जो कुछ है सभी सुन्दर अति सुन्दर लगेगा।

आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी की एक शोध शाखा “रिलीजियस एक्सपेरिएन्स रिचर्स यूनिट” ने अपने लम्बे प्रयोगों से यह सिद्ध किया है कि मनुष्य की अपनी भावनाएं एवं मान्यताएं ही विभिन्न लोगों को एक ही वस्तु के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार की अनुभूतियाँ कराती हैं। एक की दृष्टि में जो प्रिय हो सकता है यदि वही दूसरे को शत्रु प्रतीत हो तो इसमें आश्चर्य नहीं।

सर एलेस्टर हार्डी ने “द स्प्रिचुअर नेचर आफ मैन” में लिखा है कि पदार्थों या व्यक्तियों के गुण अवगुण स्वतः सिद्ध नहीं हैं। वे मनुष्य के द्वारा आरोपित हैं। जिसे जिससे अनुकूलता अनुभव होती है वह उसे प्रिय लगता है, किन्तु प्रतिकूलता प्रतीत होने पर वही प्रतिकूल या उपेक्षित प्रतीत होने लगता है। इसलिए किसी वस्तु या प्राणी के सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता कि वह कैसा है। यहाँ तक कि ईश्वर तक के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उसका स्वरूप संसार श्रद्धा करने योग्य है या अश्रद्धा करने योग्य।

परिस्थितियों और पदार्थों के सम्बन्ध में मनुष्य कैसा दृष्टिकोण अपनाये और मनुष्यों के आपसी सम्बन्ध कैसे हों, इसका कोई निश्चित मापदण्ड नहीं है। यह मनुष्य के अपने दृष्टिकोण पर निर्भर है कि किस के संपर्क में आकर वह किस प्रकार की प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है। इस दृष्टिकोण का परिमार्जन ही दर्शन शास्त्र का मूलभूत प्रयोजन है। गीता, धम्मपद, बाइबिल आदि धर्मग्रन्थों ने विभिन्न उदाहरण देते हुए एक ही बात सिखाई है कि अपने चिन्तन का स्तर कैसे परिमार्जित किया जाय, जिससे संसार को अच्छी दृष्टि से देखना सम्भव हो और सुखद अनुभूतियों से भरा-पूरा समझा जा सके।


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