चरित्रनिष्ठा की परख

June 1985

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पुरन्ध्र एक सद्-गृहस्थ था। परिवार के सभी सदस्य नीति धर्म और कर्त्तव्य का पालन करते। घर में न कोई कमी थी न शोक-सन्ताप। सज्जनों के बीच उसकी अच्छी प्रतिष्ठा थी।

पाप से यह न देखा गया। वह उस परिवार के इर्द-गिर्द चक्कर काटता रहा किसी के मन में दुर्भावना पनपाये ओर किसी के आचरण में दुष्प्रवृत्ति बढ़ाये। पर सफलता न मिली। बहुत दिन उसे ऐसे ही बीत गये।

प्रयत्नों की निष्फलता पर पाप देव खिन्न बैठे थे। दुःख का करण उनकी पत्नी दरिद्रता ने पूछा, तो व्यथा कह सुनाई। पत्नी ने पति की प्रसन्नता के लिए एक कुचक्र रचा और उनके कान में कह दिया। पाप की बाछें खिल गईं, वे दूसरे दिन स्वयं ब्राह्मण और पत्नी को युवा कन्या का वेष बनाकर पुरन्ध्र गृह की ओर चल पड़े।

ब्राह्मण ने पुरन्ध्र से कहा- मुझे तुरन्त लम्बी यात्रा पर जाना है। मार्ग भयंकर है। रातों रात चलना पड़ेगा। आप कन्या को अपने पास रख लें। लौटने पर इसे ले जाऊँगा।

पुरन्ध्र ने अतिथि धर्म निभाया और सहज स्वभाव उस अनुरोध को स्वीकार कर लिया। कन्या परिवार के सदस्यों की तरह रहने लगी।

कन्या ने पुरन्ध्र से संपर्क बढ़ाना आरम्भ किया। वार्तालाप से लेकर समीप बैठने और कामों में हाथ बटाने का सिलसिला चल पड़ा ब्राह्मण लौटा नहीं।

काना-फूसी चली, सन्देह पनपे, आक्षेप लगे। परिवार का स्नेह सौजन्य घटा और अश्रद्धा बढ़ गई। फलतः कुटुम्ब में फूट पड़ी, सहयोग सद्भाव की कमी से व्यवस्था लड़खड़ाने लगी, पास-पड़ौस में प्रशंसा के स्थान पर निन्दा होने लगी।

पुरन्ध्र ने स्वप्न देखा कि सौभाग्य लक्ष्मी रूठकर जा रही है। अनुनय विनय उनने सुनी ही नहीं।

कुछ समय बाद दूसरा स्वप्न आया- यश लक्ष्मी के विदा होने का। रोका तो, पर रुकी ही नहीं। तीसरी बार के स्वप्न में कुल लक्ष्मी ने भी बिस्तर बाँधा और वह भी विदा हो गई। जाने वाला रुकता भी कहाँ है?

परिवार हर दृष्टि से जर्जर होता जा रहा था। पुरन्ध्र चिन्तित रहने लगे पर करते भी क्या? ब्राह्मण की धरोहर को कहाँ फेंक दें। उनके मन में कोई पाप नहीं था। बालक हँसता हुआ पास आये तो उसे झड़का कैसे जाय? लोकापवाद एक ओर- कर्तव्य दूसरी ओर। उनने सभी घाटे सहकर भी कर्तव्य धर्म के निर्वाह को उचित समझा और ब्राह्मण के न लौटने तक कन्या को घर में आश्रय देने दिये रहने का ही निश्चय रखा।

एक रात को स्वप्न में धर्म को देखा और वे भी चलने की तैयारी में थे। अब पुरन्ध्र से न रहा गया, वे कड़क कर बोले। सौभाग्य लक्ष्मी, यश लक्ष्मी, कुल लक्ष्मी को मैंने इसलिए नहीं रोका कि धर्म मेरे साथ है तो अकेले रहने पर भी मैं बहुत हूँ। वे भ्रम-वश गईं पर आप तो घट-घट के ज्ञाता हो, मैं कर्तव्य पर दृढ़ हूँ तो आप मुझे किस कारण छोड़ते हैं।

धर्म के पैर रुक गये। उनने जाने का विचार छोड़ दिया- “ठीक है, तुमने मुझे नहीं छोड़ा तो मैं ही तुम्हें क्यों छोड़ूँगा।” वे ठहर गये तो कुल लक्ष्मी, भाग्य लक्ष्मी और यश लक्ष्मी भी लौट आईं।

पाप परास्त हो गया। वह ब्राह्मण रूप में आया और कन्या बनी हुई पत्नी को साथ लेकर खिन्न मन से परास्त हो वापस लौट गया। स्थिति फिर पूर्ववत् हो गईं। अंततः नीतिमत्ता की- ब्राह्मण की निष्ठा की विजय हुई।


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