साकार और निराकार उपासना की पृष्ठभूमि

June 1985

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भगवत् उपासना में जो कुछ करना होता है अपने लिए ही करना होता है। भगवान को न किसी वस्तु की आवश्यकता है और न उन्हें प्रसन्न करने के लिए कुछ देने का उपक्रम बन सकता है। तो भी नियत समय पर नियत उपासना का उपक्रम करते रहने की आवश्यकता होती है। ताकि मन को उसका अभ्यास बन पड़े और धीरे-धीरे वह परिपक्व होता चले, साँचे में ढलता चले।

उपासना का प्रथम चरण है- निकटवर्ती वातावरण में भगवान की उपस्थिति विशेष रूप से अनुभव करना, भगवान सर्वव्यापी हैं। रंच मात्र भी स्थान उनकी उपस्थिति से खाली नहीं। पर यह व्यापक भावना असीम वातावरण में अभ्यास में नहीं उतरती। जहाँ उपासना के लिए बैठा गया है उनमें बस उपस्थिति को विशेष रूप से अनुभव करने के लिए मन को अभ्यास डालना पड़ता है। इसका तरीका यह है कि जैसे किसी सम्मानित अतिथि के आगमन पर स्थान को स्वच्छ करते हैं। अतिथि सत्कार हेतु जो उपचार किये जाते हैं वे पूरी तरह तो नहीं हो सकते तो भी उनकी चिन्ह पूजा कर लेनी चाहिए। देवताओं के अतिथि सत्कार के लिए षोडशोपचार या पंचोपचार की परम्परा है। यह तभी हो सकती है जब इष्टदेव की कोई साकार छवि, चित्र अथवा प्रतिमा के रूप में स्थापित की जाय। यह एक मानसिक घेरा बन्दी है जिसमें भगवान की उपस्थिति विशेष रूप से मानी जाती है। यही उपस्थिति दर्शन मात्र से ठीक प्रकार नहीं बन पाती। इसलिए अतिथि सत्कार के षोडशोपचार या पंचोपचारों के माध्यम से समर्पण करना पड़ता है। धूप, दीप, नैवेद्य, अक्षत, पुष्प, अर्घ्य, पादम आचमन आदि का समर्पण इन उपचारों की परिधि में आ जाता है। स्थापित चित्र प्रतिमा का स्वागत सत्कार करने का प्रयोजन इतना ही है कि मन की मान्यता इस सीमित क्षेत्र में विशेष उपस्थिति का भाव अंगीकार कर ले।

उपासना में भक्ति का समावेश आवश्यक है। भगवान हमारे समीप हैं या हम भगवान के समीप हैं, यह कोरी कल्पना मात्र रहने से काम नहीं चलता। उसके साथ घनिष्ठ आत्मीयता का रिश्ता जोड़ना होता है, जिसके प्रति प्रेम भावना और श्रद्धा की अभिव्यक्ति की जा सके। यह रिश्ता अपने से बड़े का होना चाहिए। माता-पिता, स्वामी, सखा आदि। छोटा रिश्ता मानने से श्रद्धा की अभिव्यक्ति कठिन पड़ती है। सन्तान, सेवक, पत्नी आदि के रिश्ते स्थापित करने से काम नहीं चलता। वैसे भगवान निराकार होने से उसके साथ मानवी रिश्तेदारी ठीक तरह निभती नहीं। वह एकाँगी रहती है। तो भी उपस्थिति अनुभव करने और सदा ही घनिष्ठता भरी प्रेम की अनुभूति करने के लिए मानवी स्वभाव के अनुरूप ऐसी स्थापना किये बिना प्रेम की सघनता बनती भी नहीं और निभती भी नहीं।

इतना कर लेने पर स्थापना वाला चरण पूरा होता है। यह साकार उपासना के लिए तो आवश्यक है ही, निराकार मान्यता वाले भी इतना कर लें तो कुछ हर्जा नहीं। सीमित के साथ घनिष्ठता की स्थापना सुविधाजनक रहती है।

इसके आगे के चरण में भगवान की साकार और निराकार मान्यता के- उपासना के दो अध्याय आरम्भ होते हैं। दोनों में से जो भी रुचि कर हो, उसे चुन लेना चाहिए। ध्यान का केन्द्रीकरण करने की दृष्टि से साकार उपासना का चयन उत्तम रहता है। इष्टदेव को जिस भी रूप में जिस भी रिश्ते में चुना हो उसके साथ सघन निकटता की अनुभूति करनी चाहिए। भक्ति योग इसके बिना चरितार्थ नहीं होगा। प्रेम व्यवहार में जितनी अधिकतम निकटता होगी, उतनी ही घनिष्ठता का रसास्वादन बन पड़ेगा और उपासना में आनन्द आने लगेगा।

यह निकटता इस स्तर की होनी चाहिए कि इष्टदेव की विशेषताएं अपने में प्रवेश करने लगे। भगवान मन को अपनी विशेषताओं से भरे दे रहे हैं, यह निकटता का स्वरूप है। आग ईंधन को अपने जैसा बना लेती है। नाला नदी में घुलकर नदी जैसा हो जाता है। दीपक और पतंगा आपस में लिपटते हैं तो दोनों एक रूप हो जाते हैं। पेड़ से लिपट कर बेल उतनी ही ऊँची चढ़ जाती है, जितना पेड़ होता है। पारस छूकर लोहा, लोहा नहीं वरन् सोना हो जाता है। भगवान से लिपट कर भक्त को भगवान जैसा महान होना चाहिए। उसकी स्थिति असाधारण हो जा जानी चाहिए, देव मानव जैसी। प्रेमाभिव्यक्ति की इस परिणित की भी पूरी-पूरी अनुभूति होनी चाहिए।

भगवान को निकटतम अनुभव करना, यही उपासना है। अध्यापक सबसे पास वाले लड़के को पढ़ाने का नम्बर लगाता है। पंक्ति में पहले स्थान पर बैठे हुए को भोजन पहले परोसा जाता है। भगवान के निकटस्थ होने से दिव्य विशेषताएं मिल भी रही हैं, साथ ही चौकीदारी भी हो रही है कि कोई दोष-दुर्गुण चिपका न रह जाय। पुलिस सामने हो तो जेबकतरा अपनी उस्तादी बन्द कर देता है। इसी प्रकार जब भगवान की निकटता बन गई तो समदर्शी, सर्वव्यापी भगवान की उपस्थिति में हेय चिन्तन, हेय चरित्र, हेय व्यवहार करने की सूझ भी नहीं सूझेगी। दण्ड देने वाला सामने जो खड़ा है। सिखाने वाला सटकर जो खड़ा है। इस प्रकार की भावनाएं उठे तो समझना चाहिए कि साकार उपासना ठीक चल रही है, अन्यथा भिखारी का, जेबकट का बाना पहन कर भगवान के पास जाया गया तो उसे निकृष्टता के कारण दुत्कार सहनी पड़ेगी। माता गोद में बच्चे को तब उठाती है, जब उसे अच्छी तरह धो लेती है। मलमूत्र से सना होने पर एवं उसे प्यारा होने पर भी गोदी में नहीं उठाया जाता। साकार उपासना के जितने भी फलितार्थ हैं, वे देवमानव बनाने वाले हैं। गन्दगी चिपटाये रहने पर तरह-तरह की मनोकामनाओं का ताना-बाना बुनना, पुरुषार्थ किये बिना लोभ लूटकर खजाने भर लेना यह तो उपासना के सिद्धान्त के विपरीत ही हो जाता है।

इसके उपरान्त तीसरा चरण निराकार साधना है। साकार प्रतिमाएं सभी कल्पित होती हैं। राम रहीम के जैसे चित्र बनाये गये, जैसी प्रतिमाएं गढ़ी गई हैं वे मनुष्य की अपनी कल्पना भर हैं। तथ्य से अवगत होने पर मन उस अवास्तविक के प्रति जमता नहीं और वास्तविकता खोजना ही वास्तविक उपासना है। सर्वव्यापी निराकार के अतिरिक्त वह किसी और के प्रति हो ही नहीं सकती। निराकार का भी कोई ध्यान तो चाहिए अन्यथा मन के जमने का कोई आधार ही न रहेगा। प्रकाश ज्योति को इस चरण में प्रयुक्त किया जाता है। प्रातःकाल का उदीयमान स्वर्णिम सूर्य ध्यान के लिए उपयुक्त बैठता है। दोपहर का सूर्य अत्यन्त प्रखर होने के कारण नेत्रों की पकड़ में नहीं आता। प्रकाश की तीव्रता से आँखों को नुकसान भी पहुँचता है इसलिए गायत्री महामन्त्र का ध्यान सविता के रूप में किया जाता है। सविता प्रातःकाल के उदीयमान स्वर्णिम सूर्य को कहते हैं। इस ध्यान का अभ्यास आसानी से किया जा सकता है। उगते सूर्य के सम्मुख बैठकर क्षण भर नेत्र खोलना और फिर बन्द करके उस ध्यान को यथास्थान जमाते रहने की क्रिया से दो चार दिन में ही मन सविता का ध्यान करने का अभ्यस्त हो जाता है फिर सूर्य के सम्मुख बैठने या आँखों से देखने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

उदीयमान सूर्य की दिव्य किरणें अपने शरीर में भीतर तक घुसती चली जाती हैं और अपनी रोशनी तथा गर्मी से अंग-प्रत्यंगों को प्रभावित करती हैं। यह ध्यान निराकार साधना के लिए निर्धारित है। सूर्य किरणें स्थूल शरीर में प्रवेश करके उसमें ओजस भर देती हैं। आरोग्य बलिष्ठता तथा दीर्घजीवन का लाभ बरसाती हैं। इन्द्रियों में जो विषय विकार हैं, उन्हें जला देती हैं। दुष्कर्म करने में, दुर्व्यसनों में लिप्त होने की जो बुरी आदतें थीं वे इस सविता के प्रकाश से जलभुन कर नष्ट हो जाती हैं।

यह स्थूल शरीर का ध्यान हुआ। अब सूक्ष्म शरीर की बारी आती है। सविता का तेजस् सूक्ष्म शरीर में प्रवेश करता है और दूरदर्शी विवेकशीलता मेधा को मस्तिष्क में भर देता हैं। मस्तिष्क ही सूक्ष्म शरीर है। मानसिक दोष-दुर्गुणों में अगणित नाम आते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर यह षट् रिपु मनःक्षेत्र में ही अपना घोंसला बनाये छिपे रहते हैं। कुकल्पनाएँ यहीं से उठती हैं। जब प्रातःकाल सविता की किरणों का प्रकाश सूक्ष्म शरीर में प्रवेश करता है तो एक और मेधा, बुद्धि का बाहुल्य बरसता है दूसरी ओर मानसिक दुर्गुणों को भी जलाकर नष्ट करता है। जिस प्रकार अन्धकार दूर होते ही निशाचर भाग खड़े होते हैं उसी प्रकार मनोविकारों का इस प्रक्रिया से अन्त होता है।

तीसरा शरीर कारण शरीर है। कारण शरीर अर्थात् अन्तःकरण, भावनाएं, मान्यताएं, विचारणाएं, इच्छाएं यह चारों अन्तःकरण में बसती हैं। व्यक्तित्व इन्हीं के आधार पर विनिर्मित होता है। इस क्षेत्र में सविता की किरणें जब प्रवेश करती हैं तो अपनी ऊष्मा तथा आभा से इन चारों क्षमताओं को उत्तेजित एवं परिष्कृत करती हैं। साथ ही इन विशेषताओं के प्रतिकूल जो दुर्भावनाएं हैं, उन्हें जलाकर समाप्त करती हैं। प्रज्ञा का उदय होना जीवन में अभिनव चेतना का उदय होना है। व्यक्ति जब कुछ नये स्तर की दिशाधारा में रुचि लेता है, उन्हें अपनाता है और इस प्रकार का नवनिर्माण करता है मानों सविता पुत्र का ही जन्म हुआ है और उसी की विशेषताओं का समावेश अपने में किया है।

तीन शरीरों में सविता की तीन ऊर्जाओं को प्रवेश का अभ्यास एक-एक करके करने में सुविधा रहती है। जब स्थूल शरीर का अभ्यास पूरा हो जाय, तब तक अगले अभ्यास के लिए रुकना चाहिए। इसके बाद सूक्ष्म शरीर का अभ्यास अपनाये रहा जाय और कारण शरीर की साधना के लिए चरण बढ़ाया जाय तो जब जब सूक्ष्म शरीर परिपक्व हो जाय। इनमें एक-एक महीना भी लगाया जा सकता है। इसके बाद फिर इनकी पुनरावृत्ति आरम्भ कर देनी है। निराकार साधना का क्रम जिनने अपनाया है उन्हें वह आजीवन चलाना है। इसी प्रकार बनता है कि उलट-पुलट कर एक महीना तीनों शरीरों में ऊर्जा प्रकाश की, सविता की स्थापना का क्रम चलाते रहा जाय।

रुचि परिवर्तन की दृष्टि से यह भी अच्छा है कि कुछ समय साकार और कुछ समय निराकार का प्रयोग करके देखा जाय। दोनों में से जो जिसे जितना रुचिकर लगे उसे उतने समय प्रयोग में लेते रहा जाय, बाद में बदल दिया जाय।

भगवान साकार भी हैं और निराकार भी। सर्वव्यापी होने के कारण वे निराकार हैं और समस्त प्राणियों में- समस्त दृश्यमान पदार्थों में अपना आकार प्रकट करने के कारण वे साकार भी हैं। शरीर में काया साकार है और उसके भीतर प्राण चेतना निराकार है। दोनों के समन्वय से ही यह ब्रह्मांड चल रहा है। इसलिए इसमें मतभेद या विवाद का कोई कारण नहीं है। उपासना करते समय भी इन दोनों का उपयोग हो सकता है। फिर भी सुविधा की दृष्टि से पहले साकार का और पीछे निराकार का अभ्यास किया जाय तो सरलता रहेगी। यह तथ्य सभी धर्म सम्प्रदायों पर समान रूप से लागू होता है।


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