भक्ति भावना से ओतप्रोत- श्री रामकृष्ण परमहंस

June 1985

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महामानवों का ऐसा प्रत्यक्ष घटनाक्रम स्वरूप होता है, जिसे आँखों से देखा और लेखनी से लिखा जा सके। उनकी प्रधान शक्ति प्रखर सूक्ष्म शरीर के रूप में होती है। उसी से वे ऐसे अदृश्य कार्य करते रहते हैं जो उनके दृश्य कार्यों की तुलना में असंख्यों गुने महत्वपूर्ण होते हैं।

एक ही आत्मा कबीर और समर्थ के शरीरों में गुजरती हुई बंगाल में रामकृष्ण परमहंस के रूप में प्रकट हुई। उनका कार्यकाल सन् 1836 से 1887 ईसवी तक है। वे कलकत्ता के पास हुगली जिले में कामारपुकुर गाँव में जन्मे। छोटी आयु में ही उनके पिताजी का स्वर्गवास हो गया। साधना उपासना के प्रति बचपन से ही बड़ी लगन थी। पर गाँव में आजीविका के स्त्रोत उपयुक्त नहीं थे। उनके बड़े भाई कलकत्ता रहते थे। उनने छोटे भाई को भी वहीं बुला लिया और कुछ बड़े होने पर दक्षिणेश्वर मन्दिर की पूजा-अर्चा का कार्य उन्हीं के जिम्मे आ गया।

रामकृष्ण का जन्म सर्वसाधारण को भक्ति भावना का वास्तविक स्वरूप समझाने के लिए हुआ। उनने ऐसा जीवन जिया जिसे देखकर अनुमान लगाया जा सके कि साधना में सिद्धि प्राप्त करने के लिए क्या करना पड़ता है और कैसा बनना पड़ता है।

उन दिनों भक्ति के नाम पर उपकरण धारण और पूजा पाठ की येन-केन-प्रकारेण चिन्ह पूजा ही चल रही थी। भक्त जन कहलाने वाले अपनी जीवनचर्या में आदर्शवाद का समावेश करने से कतराते थे। उसमें संयमी और तपस्वी की उदार उच्चस्तरीय जीवन जो जीना पड़ता है। यह न बन पड़ने पर थोथी पूजा-पत्री कुछ ठोस प्रतिफल उपस्थित नहीं कर पाती। फलतः या तो लोग निराश होकर नास्तिक बन जाते हैं या फिर झूठ-मूठ भगवान के दर्शन की सिद्धियाँ मिलने की विडम्बना रचकर भावुक लोगों से धन और सम्मान का अपहरण करते हैं। यही कारण था कि उन दिनों भी विचारशील वर्ग में भक्ति को भ्रम जंजाल या पाखण्ड माना जाने लगा था।

परमहंस ने भक्ति का वास्तविक स्वरूप जन-साधारण के सम्मुख रखा और बुद्धिवादियों की मान्यता का प्रवाह ही बदल दिया। इसी तथ्य को उन्हें व्यापक भी बनाना था और आस्तिकता की उपासना की यथार्थता का परिचय देकर फिर से भक्ति भावना की यथार्थता तथा परिणित सिद्ध करना था। यही उन्होंने जीवन भर किया भी।

वे रानी रासमणि के दक्षिणेश्वर मन्दिर में पूजा-अर्चा करते थे। साथ ही उस कार्य में गहन श्रद्धा विश्वास के साथ तल्लीन भी रहते थे। उन्होंने इसी आधार पर भक्त और भगवान के एक होने की उक्ति सही सिद्ध करके दिखा दी।

साधारणतया प्रतिमाओं में कोई चमत्कार नहीं होते पर जब तक रामकृष्ण पुजारी रहे तब तक उनकी प्रतिमा चमत्कारी ही सिद्ध होती रही। मीरा के गिरधर गोपाल भी इसी प्रकार जीवन्त बने थे। एकलव्य के मृतिका विनिर्मित द्रोणाचार्य भी शरीरधारी द्रोणाचार्य से अधिक सशक्त थे।

एक दिन मन्दिर की स्वामिनी रासमणि से किसी ने चुगली की कि पुजारी माता को लगाया जाने वाला भोग स्वयं वहीं बैठकर खा जाता है। रानी ने वस्तुस्थिति जानने के लिए मन्दिर के झरोखे से आँख लगाकर बैठ गई। उनने देखा कि परमहंस माता की प्रतिमा से कह रहे हैं कि माता- भोजन करो। जब उनने न किया तो परमहंस कहने लगे- अच्छा मैं समझा- पहले बेटा खा लेगा तब माता खायेगी। उनने थाली का आधा भोजन स्वयं कर लिया और कहा- आधा तुम खाओ। रानी ने देखा कि प्रतिमा के पत्थर के हाथ उठने लगे। पत्थर का मुँह खुलने लगा और उनने शेष भोजन खा लिया। थाली साफ हो गई। उसे लेकर परमहंस बाहर निकले, तो रानी उनके चरणों में गिर पड़ी और कहा- देव! आप ही काली हैं। अक्षम मनुष्य शरीर से प्रत्यक्ष देवता हैं।

रामकृष्ण परमहंस विवाहित थे। उनकी पत्नी शारदामणि उनके पास मन्दिर में आ गई थी। परमहंस जी ने उन्हें कहा कि आजीवन ब्रह्मचर्य रखकर हम लोग पति-पत्नि की तरह सहोदर भाई की तरह जीवन व्यतीत करें तो कैसा। पत्नी तुरन्त सहमत हो गई। दोनों ने आजीवन सन्त का जीवन परस्पर प्रेम और घनिष्ठता भरा जीवन जिया और एक आदर्श रखा स्त्री रमणी कामिनी ही नहीं साक्षात् देवी एवं वरदात्री भी होती है।

परमहंस उपासना के उपरान्त प्रवचन शंका समाधान, वार्त्तालाप के रूप में करते थे। उनसे दूर-दूर से भक्तजन आते। शारदामणि उन सबको अपने हाथ से भोजन बनाकर खिलाती। कभी-कभी इतनी भीड़ हो जाती कि उनका आधा दिन उसी में लग जाता और हाथ दुखने लगते पर कभी उनने उससे अनख न माना। उनका वात्सल्य इतना उभर आया था कि 19 वर्ष की आयु में ही लोग उन्हें माता कहने लगे थे।

वे परिव्राजक की तरह प्रचार में नहीं जा सकते थे। क्योंकि मन्दिर की व्यवस्था उनके कन्धे पर थी। पर अनेक जिज्ञासु और तत्त्वज्ञानी उनके अमृत वचन सुनने स्वयं ही परमहंस जी के पास पहुँचते थे। उनके सामने सरल हृदयग्राही और दृष्टान्त सहित शैली में असंख्यों को भक्ति का वास्तविक स्वरूप बताया और कहा उसके साथ आदर्श जीवन और लोक मंगल का पुरुषार्थ जुड़ा होना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। मात्र नाम रटने से ही भगवान नहीं मिलते।

रामकृष्ण परमहंस सिद्ध पुरुष के रूप में भी प्रख्यात हो गये। उनके पास आये दिन दीन-दुःखी आते और उनका आशीर्वाद पाकर संकट से मुक्त हो जाते। इस दृष्टि से उनके पास आने वालों की संख्या भी कम न थी।

वे सदा इस टोह में रहते थे कि कोई संस्कारवान् आत्माएँ उनके संपर्क में आये तो उन्हें सच्चा भक्त बनाकर उसका तथा संसार का कल्याण करायें। उनकी दृष्टि एक नरेन्द्र नामक लड़के पर पड़ी। वे उसकी ओर विशेष ध्यान देने लगे। लड़का भी उनके प्रति आकर्षित हुआ और आने-जाने लगा। घनिष्ठता बढ़ी और गुरु ने शिष्य का हाथ पकड़ा।

नरेन्द्र के पिता का स्वर्गवास हो गया। वे नौकरी की तलाश में थे। आशीर्वाद माँगने परमहंस जी के पास आये। उनने उसे काली की प्रतिमा के पास अपनी कामना कहने के लिए भेजा। नरेन्द्र के विवेक चक्षु खुले उनने काली का विराट स्वरूप देखा। रोमाञ्च हो उठा। कहा- मैं-भक्ति, शक्ति और शान्ति माँगने आया। कामना पूर्ण कराने नहीं। काली मुस्कराई और तथास्तु कहा।

नरेन्द्र ने अपनी जीवन दिशा बदल दी और स्वामी विवेकानन्द हो गये। वे विदेशों में प्रचार करने गये। अमेरिका के धर्म सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व करने भी। उन्हें भाषण का अभ्यास न था। पर जो उन्होंने कहा उससे अमेरिका के धार्मिक और विज्ञानी चकित रह गये। वे सदा कहते रहते थे कि मेरे मुख से परमहंस बोलते हैं। मैं तो उनके हाथ का खिलौना-अबोध बालक भर हूँ।

परमहंस ने स्थूल शरीर से कम और सूक्ष्म शरीर से अधिक काम किया। उनने बंगाल की अनेक प्रतिभाओं को चमकाया और उनसे बड़े महत्व के काम कराये। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के माध्यम से विधवा विवाह के प्रचलन तथा सती-प्रथा बन्द कराने का, विधवाओं को नव जीवन देने वाला कार्य कराया।

केशवचन्द्र सेन का ब्रह्म समाज भी उन्हीं के परोक्ष सहयोग से फला फूला उसके अंतर्गत आत्म-कल्याण और समाज सुधार की अनेक प्रक्रियाएँ सम्पन्न होती रहीं।

गुजरात वीरपुर के जलाराम वापा के उनका सूक्ष्म सम्बन्ध था। उन्हें भी उन्होंने उच्चकोटि का सन्त बनाया। पति पत्नी मिलकर वे भी वही कार्य करते जो परमहंस जी ने किया। वा की परीक्षा लेने भगवान स्वयं उनके घर आये थे और अक्षय अन्न भण्डार की झोली उन्हें उपहार में दे गये थे। जिस माध्यम से जलाराम के सामने से भी अधिक बढ़ा-चढ़ा अन्न क्षेत्र वीरपुर आश्रम में चलता रहता था।

परमहंस जी अपने अन्तरंग सहचरों को बताया करते थे कि इस समय सच्ची भक्ति भावना को फलती-फूलती देखने के लिए गुजरात की भूमि देश भर में सबसे अधिक उर्वर दृष्टिगोचर होती है। अब हमें उस क्षेत्र को नन्दन वन बनाने और देव मानव उगाने के लिए सर्वतोभावेन जुटना चाहिए। परमहंस अपने जीवन काल में तथा उपरान्त उस क्षेत्र पर अपना ध्यान एकाग्र किये रहे और उच्च आत्माओं को उस क्षेत्र में अवतरित करने का परिपूर्ण प्रयत्न करते रहे।

इस प्रकार उनके अपने जीवन काल में और मरणोपरान्त अनेकानेक ऐसे सन्त उत्पन्न किये जिनने भक्ति का वास्तविक स्वरूप अपनाया और प्रचार कार्य द्वारा आध्यात्म का वास्तविक स्वरूप लाखों को समझाया। बंगाल में तो उनसे उच्च आत्माओं का उन दिनों भण्डार भर दिया था। उसके अतिरिक्त उनका ध्यान गुजरात पर विशेष रूप से रहा और उस क्षेत्र में भी यथार्थवादी सन्तों की कमी न रहने दी।

परमहंस जी की मृत्यु गले के केन्सर से हुई। लोगों ने पूछा आपके आशीर्वाद से असंख्यों का कल्याण हुआ। फिर आपको यह रोग कैसे हुआ। उनने उत्तर दिया- मेरे पास पुण्य कम था और लोगों की सहायता में ज्यादा खर्च करता रहा। उसी कमी की पूर्ति में मुझे यह कष्ट भुगतना पड़ रहा है। इस सम्भावना को मैं पहले से भी जानता था। पर जन-कल्याण के लिए यह कष्ट उठाते हुए मुझे तनिक भी दुःख नहीं, वरन् प्रसन्नता है।

परमहंस जी का स्वर्गवास 1887 में 16 अगस्त को हुआ। मरते समय उन्होंने अपनी धर्मपत्नी जिन्हें वे माताजी कहते थे, यह कार्य सौंपा कि वे भक्तजनों की जिज्ञासा पूर्ति मेरी ही भाँति करती रहें और अपनी साधना के प्रतिफल दीन दुःखियों में वितरित करती रहें, उन्होंने आजीवन अपने पति का आदेश पालन किया। उन्हें वे औरों की तरह बाबा कहती थीं। सभी भक्तजन उन्हें साक्षात् देवी की प्रतिमा मानते थे। उनका व्यक्ति त्व भी ऐसा ही था।


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