संत कबीर के जीवन की प्रख्यात घटनाएं

June 1985

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अपने समय के क्रान्तिकारी सन्त कबीर का कार्यकाल से प्रायः साढ़े पाँच सौ वर्ष पूर्व का है। वे ई. सन् 1398 में जन्मे और सन् 1518 में 120 वर्ष की आयु में दिवंगत हो गए। उनके प्रत्यक्ष जीवन के सर्वविदित घटनाक्रम बहुत थोड़े हैं। अविज्ञात और अप्रकट प्रयास ही अधिक हैं।

एक विधवा समाज भय से अपने नवजात शिशु को काशी के अगरतला तालाब के किनारे पगडण्डी पर रख गयी थी ताकि उसे कोई दयालु राहगीर उठा कर पाल ले। बच्चे को एक मुसलमान जुलाहे ने उठाया और पाल लिया। यही उनके विज्ञात माता-पिता थे। माता का नाम नीमा एवं पिता नीरु जुलाहा। इसी परिवार में वे पले और बड़े हुए।

उन दिनों विधवाओं की दुर्दशा अब से कहीं अधिक थी। उन्हें या तो डरा-धमका कर पति की लाश के साथ जला दिया जाता था या छोटी-बड़ी भूल के कारण उन्हें विधर्मियों के सुपुर्द कर दिया जाता था। इस मूढ़ मान्यता के कारण हिन्दू सम्प्रदाय किस प्रकार क्षीण एवं उपहासास्पद बनता है, इस ओर समाज का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित करने के लिए ही सम्भवतः विधाता की मर्जी के अनुसार उनका जन्म ऐसी परिस्थितियों में हुआ। उनने इस बात को कभी छिपाया नहीं। वरन् हिन्दू समाज की संकीर्णता और मुसलमान जुलाहे की उदारता की ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयत्न किया। यह इस कारण कि समाज के कर्णधार विधवाओं की समस्याओं पर नये सिरे से विचार करें और सोचें कि अब विधुरों को दूसरे विवाह की पूर्ण स्वतन्त्रता है तो विधवाओं के लिए रोक क्यों हो? कबीर की यात्रा तत्कालीन धर्माचार्यों को रुची न होगी, किन्तु समझदारों को सदा झकझोरती, कचोटती रही और इस संदर्भ में कुछ कदम उठाने के लिए प्रेरित करती रही। कुछ करने लायक उस समय भले न हो पाया हो, पर वह सूक्ष्म प्रेरणा कुछ शताब्दी बाद अन्य महामानवों के द्वारा चलाए गये आन्दोलनों के रूप में उभरी।

कबीर कुछ समझदार हुए तो उन दिनों के प्रख्यात सन्त रामानन्द के सत्संग में जाने लगे। उनकी विचारधारा से वे प्रभावित हुए। गुरु तत्व की गरिमा अपने संस्कारों के कारण भली-भाँति जानते थे। उन्होंने उन्हीं को अपना गुरु बनाना चाहा। पर समाजगत प्रवचन के प्रतिकूल श्री रामानन्द एक जुलाहे को शिष्य बनाने के लिए सहमत न दिखे। कबीर ने तब एकलव्य का रास्ता अपनाया, जिसने द्रोणाचार्य की मिट्टी की प्रतिभा को गुरु बनाकर अपनी श्रद्धा बलबूते प्रवीणता प्राप्त कर ली थी।

एक दिन ब्रह्ममुहूर्त्त में रामानन्द जी गंगा स्नान को जा रहे थे। कबीर रास्ते में लेट गए। अंधेरे में स्वामी जी का पैर कबीर के सीने पर पड़ा। वे चौंके और राम-राम कहते हुए पीछे हट गए। कबीर की गुरु दीक्षा इतने में ही सम्पन्न हो गयी। इसमें गुरु का अनुग्रह नहीं, शिष्य का श्रद्धा विश्वास ही निमित्त कारण था, जो आगे चल कर फला-फूला। सत्संग के दिनों ही कबीर ने कुछ पढ़ना लिखना कविताएं बनाना और एकाकी बजाये जा सकते वाले वाद्य-यन्त्रों को बजाना सीख लिया था। वे साँय काल सत्संग में जाते। दिन भर पिता के साथ बुनने का काम करते।

पन्द्रह वर्ष की आयु में उनके अन्तराल में नयी प्रेरणा उठी- “तेरा जीवन महान प्रयोजनों के लिए है।” क्या करें, सोच विचारा और निश्चय किया कि भ्रान्त जनमानस को बदला जाय। वे प्रातःकाल जल्दी उठकर पिता का काम निपटाते और अपना पेट भरने जितना काम करके बाहर निकल पड़ते। घर-घर, गली-गली, गाँव-गाँव अलख जगाते। उनके विचारों को जिनने भी सुना हिल गये। थोड़े ही दिनों में हजारों प्रशंसक, समर्थक एवं सहायक बन गए। वे सन्त के रूप में प्रख्यात हो गए। किन्तु परिश्रम की रोटी से पेट भरने का काम न छोड़ा।

कबीर का धर्म प्रचार आचरण शुद्धि, लोक कल्याण, साम्प्रदायिक सद्भाव तथा दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन पर अवलम्बित था। निहित स्वार्थों ने अपने व्यवसाय को जब धक्का लगते देखा तो वे बौखलाने लगे। वेश और वंश के आधार पर जो मालोमाल हो रहे थे और पुज रहे थे, वे उनके प्राणों के ग्राहक हो गये। कई बार धर्मावलम्बियों के भयंकर आक्रमण हुए। उनसे लहूलुहान होते रहकर भी कबीर बिना डरे, बिना रुके अपना काम करते रहे। न उन्हें प्रशंसकों से राग था, न निन्दकों से द्वेष। उनकी पूरी दृष्टि अपने लक्ष्य पर टिकी थी और वे इस पर एकाकी चलते रहे।

जब उनका संपर्क क्षेत्र बढ़ गया तो आवश्यक समझा कि घर पर आने वालों की सुविधा की खातिर विवाह कर लिया जाय। ठीक उनके ही जैसे स्वभाव की युवती लोई मिल गयी। गृहस्थी बस गई। गृहस्थ रहते हुए अपने परिश्रम की कमाई खाते हुए सन्त का जीवनक्रम और भी अच्छी तरह सध सकता है, यही उन्हें प्रत्यक्ष कर दिखाना था। घर पर दूर-दूर से लोग आते। धर्म पत्नी उनके भोजन निवास का ही नहीं, सत्संग समाधान का भी प्रयोजन पूरा करती रही। अब कबीर सुदूर क्षेत्रों में धर्म प्रचार के लिए जाने लगे। यही उनकी तीर्थ यात्रा थी।

कट्टर मुसलमानों को भी यह बुरा लगा कि मुस्लिम जुलाहे का लड़का हिन्दू धर्म के अनुरूप प्रचार करे। उनकी सल्तनत होने के कारण यह उन्हें राजद्रोह जैसा कार्य लगा। जब रोकथाम अपने स्तर पर कारगर न हुई तो उन दिनों के बादशाह सिकन्दर लोदी के कान भरे। कबीर को मृत्यु दण्ड सुनाया गया। लोहे की हथकड़ी बेड़ी से कसकर गंगा के गहरे भाग में डुबो देने का आदेश हुआ। कबीर अपनी कार्य पद्धति बदलने को राजी न हुए और दण्ड सहर्ष स्वीकारते हुए डूबने को तैयार हो गए।

कबीर डूबे पर मरे नहीं। चमत्कार यह हुआ कि अन्दर जाते ही उनकी जंजीरें स्वतः टूट गयीं और वे बहते-बहते किनारे जा लगे। इस प्रकार जीवित निकलने के बाद कबीर ने एक पद गाया।

गंगा माता गहरी गम्भीर। पटके कबीर बांधि जंजीर॥ लहरनि तोड़ी सब जंजीर। बैठि किनारे, हँसे कबीर॥

बादशाह ने यह चमत्कार सुना तो वह चकित रह गया। क्षमा माँगी और अपना सर्व धर्म समभाव प्रचार करने की छूट दे दी।

अनुयायियों ने उनकी जीवनचर्या देखी। रात को कपड़ा बुनना, सबेरे से प्रचार सत्संग में जुट जाना। भजन वे कब करते होंगे? भजन किये बिना संत कैसे? कबीर कपड़ा बुनते-बुनते ही रामनाम रटते थे, पर लोगों पर उनने यथार्थतावादी व्यंग्य करसे हुए कहा-

कबीर मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर। पीछे लगे हरि फिरैं कहत कबीर-कबीर॥ कबीर माला न जपों, जिह्वा कहौ न राम। सुमिरन मेरा हरि करें मैं पाऊँ विश्राम॥

उनके कथन का तात्पर्य यही था कि राम के नाम से राम का काम करना अधिक महत्वपूर्ण है। नाम तो काम करते-करते भी मन ही मन लिया जा सकता है।

कबीर ने अपनी प्रचार यात्राओं में अनेकों विचारशील लोगों से संपर्क किया और जाति-पाँति के नाम पर जो ऊँच-नीच की भावना चरम सीमा तक पहुँची हुई थी, उसके उन्मूलन का प्रयत्न करने के लिए सहमत कर लिया। उस प्रकार वे अकेले ही नहीं रहे, उनने अनेकों सन्त सुधारक पैदा किए।

उन दिनों काशी वास के नाम पर भावुक भक्त जनों को बुरी तरह ठगा जा रहा था और कर्म की अपेक्षा स्थान विशेष को, औंधे-सीधे कर्मकाण्डों का महत्व दिया जा रहा था। उन्हीं दिनों यह भी मान्यता थी कि गोरखपुर बस्ती की सीमा पर मगहर नामक स्थान पर मरने से नरक जाना पड़ता है। अन्तिम दिनों में कबीर वहीं चले गए। उनका अभिप्राय स्थान की महत्ता सम्बन्धी अन्धविश्वास को दूर करना था। अन्तिम समय में भी राम के स्मरण में ही तत्पर रहे- “‘मुआ कबीर मरत श्री राम।”

मृत्यु की पूर्व सूचना थी। हजारों भक्त जन उपस्थित थे। उनमें हिन्दू भी थे और मुसलमान भी। हिन्दू वैष्णव कहकर जलाना व मुस्लिम जुलाहा बताकर दफन करना चाहते थे। कबीर की आत्मा ने देखा कि जिस साम्प्रदायिक एकता के लिए उनने जीवन भर काम किया, वह नष्ट हो रही है तो उनकी लाश ही अदृश्य हो गयी। झगड़ा करने वालों ने उस स्थान पर मात्र फूल पड़े पाए। सभी इस सिद्धि पर चकित थे। आधे फूलों को हिन्दुओं ने जलाया और उस स्थान पर समाधि बनाई जबकि आधे फूलों को मुसलमानों ने दफनाया और उस स्थान पर मकबरा बनाया।

अभी भी देशभर में उनके अनुयायी हैं। कबीर जाति-पाँति की ऊँच-नीच के विरुद्ध थे। वे मनुष्य मात्र को समान अधिकार और समान देखना चाहते थे, इस लिए उनके पंथ में सभी वर्ग के लोग सम्मिलित होते थे, पर पिछड़ी जातियों को उन्होंने विशेष रूप से उत्साहित किया कि आत्म सम्मान जगाये बिना उन्हें उचित न्याय न मिलेगा। इसी प्रकार उन्होंने वंश और वेश के नाम पर लूटमार करने वालों की पोल खोलने में कोई कमी न रखी। कबीर निर्भीक थे, आदर्शवादी, चरित्रवान और लोकसेवी। एकाकी चलने पर विश्वास करते थे। उनने अपने समय की कुरीतियों के उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों के प्रचलन में कोई कमी न रखी। इसके प्रमाण में अनेकों घटनाओं का उल्लेख किया जा सकता है, पर सबके पीछे उद्देश्य ही थे।

सूक्ष्म गतिविधियाँ-

सन्त कबीर का जन्म पिछड़े लोगों को ऊँचा उठाने और साम्प्रदायिक सद्भाव बढ़ाने, पाखण्डों का खण्डन करने के निमित्त हुआ था। यह कार्य वे जीवन काल में सूक्ष्म शरीर से भी करते रहे। अपने प्रचण्ड आत्मबल के दबाव में असंख्यों के विचार बदले। साथ ही जो बलिष्ठ आत्माएं संपर्क में आईं, उन्हें अपने वर्चस्व से अधिक ऊँचा उछालते रहे और अधिक सफलताएं उपलब्ध कराते रहे।

कबीर की समकालीन प्रतिभाओं में रैदास और नामदेव का नाम विशेष रूप से उल्लेखित है। रैदास एक चमार कुल में काशी में ही जन्मे। उनका कार्यकाल सन् 1350 से 1436 ईसवी का है। काशी क्षेत्र कबीर के लिए छोड़कर वे राजस्थान में अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति में लगे रहे। मीरा उनकी शिष्य बनीं व राजदरबार के षड़यंत्रों से बचकर प्रभु भक्ति में लगने का सत्परामर्श उन्हीं से पाती रहीं। कितनी ही सिद्धियों और चमत्कारों के लिए वे प्रख्यात थे। गंगा का उनकी कठौती में प्रकट होना, उनके भेजे दो पैसे गंगा जी द्वारा हाथ निकाल कर ग्रहण करना, जलाशय में से निकाले सभी पत्थरों को पारस बना देना उनकी सिद्धियों में प्रसिद्ध हैं।

कबीर के दूसरे समकालीन थे- सन्त नामदेव, जो जाति के दर्जी थे। उन्होंने भी वही कार्य पद्धति अपनायी जो कबीर की थी। वे महाराष्ट्र में जन्मे थे। दक्षिण भारत में उनका प्रचार कार्य बड़ी सफलतापूर्वक चला। प्रसिद्ध है कि अलावली महाराष्ट्र मन्दिर में वे कीर्तन कर रहे थे, तो पण्डितों ने उन्हें शूद्र कहकर बाहर निकाल दिया, तब वे मन्दिर के पीछे बैठ कर कीर्तन करने लगे। कहते हैं कि मन्दिर का दरवाजा और प्रतिमा का मुख पीछे की तरफ उलट गया और लोगों ने सच्चे भक्त का सच्चा मार्ग पहचाना और उनका विरोध छोड़कर उनके साथ हो गए।

मरने के बाद कबीर की आत्मा चैतन्य महाप्रभु, जगद् बन्धु, एकनाथ, सन्त दादू जैसे लोगों के घनिष्ठ संपर्क में रही। इन लोगों ने भारत में फैले जातिगत ऊँच-नीच के कलंक को धोने के प्रयत्न किये। इनके अतिरिक्त उस मध्यान्तर काल में अनेकों समाज सुधारक, भक्त जन ऐसे जन्मे जिनने अन्धकार युग के अन्धविश्वास को दूर करने में असाधारण प्रयत्न किए और वातावरण बदला। इन कार्यों के पीछे कबीर की शाश्वत आत्मा की सूक्ष्म प्रेरणा का परोक्ष विशिष्ट सहयोग था।

साईं मेरा बानियाँ, सहज करे व्यापार। बिनु तखरी बिनु पालड़े, तोले सब संसार॥ जिन खोजा जिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ। हों बौरी ढूँढ़न गई रही किनारे बैठ॥


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