गुरु मंत्र- गायत्री मंत्र

June 1985

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गायत्री एक वैदिक छन्द है। श्रुतियों में अनेक छन्द गायत्री वर्ग के मिलते हैं, पर प्रख्यात गुरु मन्त्र गायत्री एक ही है। इसकी तुलना वेदों में उपलब्ध अन्य गायत्री छन्दों से नहीं की जा सकती। इसकी अपनी अलौकिकता और विशेषताएं हैं।

मन्त्रों की वेदों में प्रायः पुनरावृत्ति नहीं होती किन्तु गायत्री का चारों वेदों में समावेश है। ऋग्वेद के 3।62।10 में यजुर्वेद के 3।35 में- 30।2 में। तथा 36।3।3 में इसका समावेश है। सामवेद के 13।3।3 में यह विद्यमान है।

गायत्री के 24 अक्षर होते हैं। गुरु मन्त्र गायत्री में 23 अक्षर माने जाँय तो वह निचद् गायत्री बन जाती है। यदि उच्चारण वरेण्यम् का वरेणियम् किया जाय तो 24 अक्षर बन जाते हैं। अक्षरों सम्बन्धी मतभेद के कारण वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता गायत्री की महत्ता एवं क्षमता में कोई अन्तर नहीं आता।

गायत्री मन्त्र में सविता देवता से सद्बुद्धि की प्रेरणा का आग्रह किया गया है। शंकराचार्य कृत गायत्री पुरश्चरण पद्धति में उसे त्रिकाल संख्या में प्रयुक्त करने के लिए ब्राह्मी, वैष्णवी और शाम्भवी कहा गया है और ध्यान के लिए उन्हीं का निर्देश है। प्रातःकाल उपासना के लिए सर्वोत्तम है। उस समय ब्रह्म तेज का आह्वान उपयुक्त पड़ता है। इसलिए हंसारूढ़ा भगवती का सर्व-प्रचलित स्थान ही उपयुक्त है। एक मुख और द्विभुजा वाली बात मनुष्यों और देवताओं के लिए समान रूप से सार्थक है।

कहीं-कहीं उसके पाँच मुख और दस भुजाओं का वर्णन है। यह अलंकारिक व्याख्या एवं दार्शनिक विवेचना है। पाँच कोश, पाँच प्राण, पाँच तत्व का गायत्री में समावेश होने से उसे पाँच मुखी के रूप में भी चित्रित किया गया है और दस इन्द्रियों को दस भुजा के रूप में चित्रण है। अन्यथा अनेक मुखों, अनेक भुजाओं, अनेक पैरों वाली बात बड़ी विचित्र लगती है। यह विचित्रता समझ के बाहर एवं उपहासास्पद भी प्रतीत होती है।

छान्दोग्य और वृहदारण्यक उपनिषदों में गायत्री का माहात्म्य और रहस्य अधिक विस्तार से बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण में प्रमुखता के साथ और अन्य ब्राह्मण ग्रन्थों में उसका सामान्य विवेचन है। निसक्त में “गायन्नं त्रायते” अर्थ करते हुए कहा गया है कि वह गायन करने वाले परित्राण करती है। स्मृतियों में से अधिकाँश में उसकी आवश्यकता एवं अनिवार्यता का वर्णन है। गायत्री का देवता ‘सविता’ है। प्रातःकाल के उदीयमान स्वर्णिम सूर्य को सविता कहते हैं। इस महामन्त्र के जप काल में सविता का ध्यान ब्रह्मतेजस् का अभिवर्धन माना गया है। गीता में भगवान ने समस्त वेद मन्त्रों में गायत्री को अपना स्वरूप कहा है- “गायत्री छन्दसामहम्।”

पुराणों में ऐसे अगणित प्रसंग हैं जिनमें गायत्री उपासना के फलस्वरूप, आत्मकल्याण और लोक संसिद्धि के उभयपक्षीय प्रयोजनों की पूर्ति का विवरण है। यह मात्र सद्बुद्धि की प्रार्थना ही नहीं है वरन् उसकी अभीष्ट प्रेरणा देने में भी समर्थ है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन का रथ ही संचालित नहीं किया था वरन् उसकी बुद्धि जब भटक रही थी तब दबाव भरी प्रेरणा देकर भी उसे उपयुक्त रास्ते पर चलाया था। गायत्री मन्त्र में ऐसे ही प्रेरणा देने और साधक को सन्मार्ग पर चलाने की परिपूर्ण क्षमता है।


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