जड़ में भी चेतन होता है।

June 1985

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जड़ और चेतन के बीच भी कोई आन्तरिक सम्बन्धों की एक अविभाजित कड़ी का अस्तित्व हो सकता है, इस कथन की पुष्टि में दो उदाहरण विशेष रूप से प्रख्यात हैं इनसे हमें एक विचार करने को विवश होना पड़ता कि एक इस्पात और काष्ट से विनिर्मित जहाज जैसी जड़ वस्तु भी अपनी स्वयं की कोई इच्छा शक्ति से प्रेरित हो सकती है? ये घटनाएं एक जहाज और एक मछली पकड़ने की बड़ी नौका से सम्बन्धित है जिनने अपने स्वामियों की सेवा विशेष रूप से व अनोखे प्रकार से समर्पित भाव से की। इनमें प्रथम एस.एस. हमवोल्ट नामक जहाज था जिसके एक मात्र कैप्टन का नाम इलिजाह जी. बौफमेंन था। इस जहाज ने अपने जीवन में किसी अन्य कैप्टन को नहीं देखा और न ही इस कैप्टन ने किसी अन्य जहाज पर पैर रखे। हमवोल्ट ने अपनी जीवन वृत्ति एक यात्री और माल वाहक जहाज के रूप में सीटल और अलास्का के मध्य सन् 1898 में आरम्भ की। कैप्टन बौफमेंन के कथनानुसार अलास्का में स्वर्ण की बड़ी माँग होने पर इस जहाज के द्वारा दस करोड़ डालर मूल्य का स्वर्ण फिर से वापस लौटकर लाया गया था। उन मद भरे वर्षों की समाप्ति पर हमवोल्ट प्रशान्त महासागर के उत्तर-पश्चिमी बन्दरगाहों पर अपना कार्य सुचारु रूप से चलाता रहा। किन्तु जैसा कि प्रत्येक के जीवन में एक ऐसा समय भी आता है जबकि वह अपनी जीवन वृत्ति से मुक्ति पा लेता है, सन् 1934 में वह समय आ गया जबकि कैप्टन बौफमेंन और उसके प्यारे जहाज ने एक साथ ही निवृत्ति ले ली। बौफमेंन सीटल से सेनफ्रांसिसको चला गया और हमवोल्ट को वहाँ से सेन पेड्रो को, जो कि दक्षिण में पर्याप्त दूरी पर था, उसकी जर्जर स्थिति को देखते हुए विघटित करने के लिए भेज दिया गया।

दिनाँक 8 अगस्त 1935 को कैप्टन बौफमेंन ने इस संसार से अन्तिम विदा ली। ठीक उसी समय उसी रात्रि को उस केलीफोर्निया के समुद्र तट से 400 मील की दूरी पर स्थित सेन पेड्रो बन्दरगाह में लंगर डालकर खड़े हुए हमवोल्ट नामक उस पुराने जहाज ने अपने सारे बन्धन तोड़ फेंके और खुले समुद्र की ओर अपनी यात्रा आरम्भ कर दी। उस जहाज पर कोई भी व्यक्ति नहीं था और न ही उसके इंजन को चलाने के लिए किसी ने उसमें कोयला डाला था। इस जहाज को रात्रि में केवल उसकी लाल बत्ती के कारण ही पहिचाना जा सका कि वह वहाँ से भाग निकला और उसे जहाज के एक कैप्टन ने एक अन्य जहाज की सहायता से वापस लाने में सफलता प्राप्त की। क्या अपने बन्धनों को तोड़कर समुद्र में उत्तर की ओर अपने पुराने स्वामी के अन्तिम समय में मिलने के लिए तैर जाना और उसके प्रति अन्तिम सम्मान प्रकट करने की चेष्टा करना हमवोल्ट का उद्देश्य नहीं था? इसका उत्तर खोजने के प्रयास कईयों ने किये। अन्ततः वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि मालिक की आत्मा इस जहाज से अन्तिम समय तक अविच्छिन्न रूप से जुड़ी रही।

इसी सीटल नामक बन्दरगाह की ही एक अन्य रहस्यमयी घटना है जिसमें मनुष्य और नौका के मध्य के गहन सम्बन्धों का बोध होता है। कैप्टन मार्टिन ओलसेन एक मछुआ था जो कि ‘सी लॉयन’ नामक अपनी नौका का अनेक वर्षों तक सैमन मछली को पकड़ने के लिए पुगेट साउण्ड की गहरी किन्तु सकरी खाड़ी में सदैव प्रयोग करता रहा। सी लॉयन जैसी नौकाओं का उपयोग आज भी वाशिंगटन और ब्रिटिश कोलम्बिया के तटों पर मछली पकड़ने के लिए किया जाता है। कैप्टन मार्टिन ओलसेन ने अपनी आजीविका से मुक्त होने पर अपनी इस प्रिय नौका को किनारे से दूर अपने मकान के पास सीटल में ही बालू में ही रख दिया। यह नौका इसी स्थान पर दस वर्षों तक खड़ी रही। इतने वर्षों तक एक ही स्थान पर रहने से वह बालू में और अधिक गहरी धँस गई थी।

दस वर्षों के पश्चात कैप्टन ओलसेन की मृत्यु हो गई। उस दिन समुद्र शान्त था, उस वक्त न तो कोई तूफान था और न ही कोई ज्वार आया था। कहा गया है कि बालू के उस गड्ढे में से निकलकर वह पुरानी नाव उस खाड़ी में तैरती रही। तीन दिनों के पश्चात बने ब्रिज आयरलैंड के तट तक तैरते हुए यह नौका वहाँ पहुँची जहाँ समीप ही कब्रिस्तान में कैप्टन ओलसेन को दफनाया जाने वाला था। ओलसेन को दफनाने के पश्चात यह ‘सी लॉयन’ वहाँ से स्वतः ही रवाना हो गई और तैरते हुए कुछ दिनों में ठीक उस स्थान पर जाकर खड़ी हो गई जहाँ कि वह पिछले दस वर्षों से खड़ी रही थी। नौका के इस प्रकार के व्यवहार को अपने स्वामी के प्रति अन्तिम सम्मान प्रकट करने की चेष्टा कहा तो जा सकता है पर वैज्ञानिक जड़ पदार्थों के साथ घटने वाले इन वैचित्र्यपूर्ण संयोगों के कारण को समझा पाने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं।

इस भूमण्डल पर महासमुद्रों व सागरों में अनेक घटनायें ऐसी होती हैं जिन्हें लोग प्रायः एक संयोग मात्र कह कर भुला देते हैं। वास्तविकता और रहस्य तो केवल सागर ही जानता है। किन्तु इन घटनाओं को केवल संयोग कहना उचित नहीं होगा।

एस.एस. सेक्सिलबी नामक एक जहाज नवम्बर 1933 में न्यू फाइण्डलैण्ड से दक्षिणी वेल्स के लिये अपनी यात्रा पर निकला। यह जलपोत उत्तरी अटलांटिक महासागर में कही लुप्त हो गया। इस पर कुल 29 व्यक्ति सवार थे इसे खोजने के समस्त प्रयास असफल ही सिद्ध हुए। सन् 1936 के प्रारम्भ में ही अबेराबोन के अंतर्गत वेल्श नामक ग्राम के निकट ही किनारे पर एक कोको का डिब्बा तैरता हुआ पाया गया। इस डिब्बे को खोलने पर उसमें एक सन्देश प्राप्त हुआ जिसमें लिखा था। आयरलैण्ड के तट से दूर कहीं एस.एस. सेक्सिल बीपोत डूब रहा है, मेरी बहिन को, भाइयों को और डिनाह को प्यार- जोओकेन। जोओकेन नामक यह व्यक्ति इस लुप्त जलपोत के कर्मी दल का एक सदस्य था, जो कि अबेराबोन का निवासी था। उसने अपने सम्बन्धियों जो अबेराबोन में निवास कर रहे थे, को सम्बोधित कर यह सन्देश भेजा था, जो कि उसके गाँव से केवल एक मील की दूरी पर बहते हुए पहुँचा था। इसे संयोग नहीं कहा जा सकता।

अपने घर वालों को सन्देश भेजने की अचेतन प्रेरणा व उसके पहुँच जाने का उदाहरण ग्रन्थों में मिलता है। न्यूजीलैण्ड के रॉस एलेक्झेण्डर ने सेना के एक जलपोत को समुद्र को सौंपा था उसका सैनिक जलपोत डर्बिन (आस्ट्रेलिया) के उत्तर में एक समुद्रीय चट्टान से टकरा गया था। रॉस ऐलेक्झेण्डर ने जहाज पर से ही एक शराब की खाली बोतल में अपने घर वालों को सम्बोधित कर एक सन्देश लिखकर डाल दिया। संयोग से उस दुर्घटना में रॉस एलेक्झेण्डर बच गया।

एक अन्य घटना के अनुसार सन् 1934 में डायले ब्राँसकम ने अपना स्वयं का एक चित्र एक बोतल में सुरक्षित रखकर उस बोतल को अर्कनसास नामक नदी में डाल दिया। चौबीस वर्ष बाद सन् 1958 में विल हेड स्ट्रीम नामक एक व्यक्ति को जो कि डायले ब्रांसकम का बचपन का एक मित्र था, यह बोतल अपने ग्राम लार्गो में मिली जो कि फ्लोरिडा के अंतर्गत आता है। विल हेड स्ट्रीम को अपने बचपन के इस मित्र के विषय में कोई जानकारी पिछले 24 वर्षों से नहीं थी। हेड स्ट्रीम ने अपने इस मित्र को उस चित्र में लिखे पते पर एक पत्र के साथ उसका यह चित्र भी भेजा था एवं उससे उन बीते हुए वर्षों के जीवन के उतार-चढ़ाव सम्बन्धी विविध घटनाक्रमों का ब्यौरा लिखने को कहा गया था।

समुद्र विशाल है, सृष्टि विराट् है। किन्तु इस जगती के घटनाक्रम बड़े निराले हैं। जड़ व चेतन के बीच लकीर खींचने वाले वैज्ञानिक भी यह कहते पाये जाते हैं कि दोनों में परस्पर गहन तारतम्य है। ऊपर वर्णित व ऐसे अनेकों घटनाक्रम इसकी पुष्टि करते हैं, साथ ही उस अद्भुत विधाता के कार्य व्यापार की, लीला जगत की एक झलक दिखाते हैं।


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