मनोनिग्रह और कामुकता का निराकरण

June 1985

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अपना चेहरा अपनी आँखों से देख सकना सम्भव नहीं, पर वह दर्पण में प्रतिबिंब रूप से सहज ही देखा जा सकता है। मन सूक्ष्म है। उसकी स्थिति और प्रकृति की जाँच-पड़ताल करने के लिए वासना तृष्णा और अहंता के स्तर को परखते हुए यह जाना जा सकता है कि व्यक्ति का मानसिक स्तर क्या है?

आत्मा का शासन क्षेत्र मन है। आत्मा की पवित्रता और प्रखरता किस स्तर तक ऊँची उठ सकी, इस प्रगति का लेखा-जोखा इस आधार पर मिलता है कि मन को निग्रहित और सुनियोजित करने में कितनी सफलता प्राप्त हुई। मन का स्तर किस हद तक परिमार्जित हुआ इसे जाँचने के लिए तृष्णा और अहंता के सूक्ष्म क्षेत्र पर कसौटी लगाने से पहले वासना की प्रत्यक्षता की स्थिति समझना सरल है।

शरीर पर मन का आधिपत्य है और आत्मा का मन पर। मन कहाँ, क्या, कौतुक रच रहा है इसके लिए इन्द्रियाँ ही परीक्षा क्षेत्र हैं। इन्हें नियन्त्रित करना ही मोटे तौर से मनोनिग्रह की सच्ची कसौटी है। इन्द्रियों के साथ लौकिक मन गुँथा हुआ है। व्यक्तिगत चरित्र और चिन्तन का स्वरूप समझने के लिए यह देखना होता है कि इन्द्रियों की वासना वृत्ति को उच्छृंखलता बरतने छूट तो नहीं मिल गई है। इन्द्रियों का गणना क्रम स्वादेन्द्रिय से होता है, इसके बाद ही कामेन्द्रियाँ आती हैं। पाण्डवों में थे तो पाँच। पर पराक्रम की दृष्टि से अर्जुन और भीम मूर्धन्य माने गए हैं। इसी प्रकार मनोनिग्रह के प्रसंग में इन्द्रिय दमन की साधना करने वालों को दो मोर्चे फतह करने की प्रमुखता देनी होती है। जीभ का चटोरापन काबू में आ गया तो समझना चाहिए कि प्रथम चरण सही रूप से उठ गया। इसके साथ ही संयम युग्म में दूसरा चरण कामेन्द्रिय पर अनुशासन स्थापित करने का है। दोनों ने यदि शालीनता अपना ली हो तो समझना चाहिए कि मनोनिग्रह का प्रत्यक्ष, आरम्भिक और कठिन भाग पूरा हो गया। अब तृष्णा और अहन्ता पर अंकुश लगाना ही कठिन न रहेगा।

रसना का नियन्त्रण स्वाद जीतने से होता है। खाद्य पदार्थों में शकर, नमक, मसाले और चिकनाई मिलाने से आहार के अनेकों ललचाने वाले आकार-प्रकार बनते हैं। मिष्ठान्न पकवान और चाट-नमकीन जैसा आकर्षण उपरोक्त मिश्रणों में ही होता है, जो स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगी होना तो दूर नितान्त हानिकर ही है। इनकी आदत नशेबाजी जैसी पीछे पड़ जाती है और फिर छुड़ाये नहीं छूटती। इनके साथ कड़ाई बरतनी पड़ती है। संकल्प की कड़ाई। जैसे व्रत उपवासों के दिनों बरतनी पड़ती है कि नियम भंग करने से पाप पड़ेगा। बदनामी होगी। व्रत टूटेगा। देवता अप्रसन्न होंगे। पुण्यफल से वंचित रहना पड़ेगा। आदि-आदि। अस्वाद व्रत का पालन लम्बे समय तक किया जाय तो फिर वह भी अभ्यास में आ जाता है। सादी रोटी चबा-चबाकर खाई जाय तो वह बिना दाल शाक के भी बड़ी स्वादिष्ट लगने लगती है। इसी प्रकार शाक, दाल आदि के सम्बन्ध में भी है वे भी कुछ दिन के अभ्यास से अपने स्वाद विशेष से मनभावन लगने लगते हैं। जब अफीम, तमाखू, शराब जैसे कड़ुए पदार्थ कुछ दिन की आदत से स्वभाव के अंग बन जाते हैं और उनके बिना काम नहीं चलता तो कोई कारण नहीं कि अभ्यास से अस्वाद आहार प्रिय न लगने लगे। स्वभाव का अंग न बन जाय। यह मात्र निग्रहित मन के अभ्यास पर निर्भर है।

दूसरा प्रसंग कामेन्द्रिय का है उसमें स्त्री की छवि में उत्तेजक आकर्षण देखने और रतिक्रिया की स्मृति को मस्तिष्क में घुमाने से उच्छृंखलता उत्पन्न होती है और वैसा अवसर बार-बार प्राप्त करने के लिए मन करता है। रति कर्म का योग तो जब-तब ही बैठता है। अनेक उत्तेजक मुद्राएं जो मस्तिष्क में घूमती हैं, उनकी निकटता तक सम्भव नहीं हो पाती। शरीर स्पर्श तक कठिन है। वे छवियाँ और उनके साथ अठखेलियाँ मात्र कल्पना चित्रों के रूप में ही मनःक्षेत्र में निरन्तर छाई रहती हैं। यह मानसिक व्यभिचार ही मस्तिष्क को अधिक उद्वेलित करता है। किसी उपयोगी काम में चिन्तन को केन्द्रीभूत नहीं करने देता। इसलिए कहा गया है कि यौनाचार का प्रत्यक्ष व्यवहार तो कुछ मिनटों में ही समाप्त हो जाता है पर शृंगारिक अश्लील चिन्तन ढेरों समय उन्माद की तरह छाया रहता है। ऐसी स्थिति में वह मनोविकार बन जाता है और उससे शरीर की अपेक्षा मन को अधिक क्षति पहुँचती है।

कई अविवाहित, विधुर अथवा तथाकथित ब्रह्मचारी प्रत्यक्ष काम सेवन से बचे रहने पर भी ब्रह्मचर्य के लाभ से कोसों दूर रहते हैं। उनकी आकृति प्रकृति मनोदशा और तन्दुरुस्ती गये बीते स्तर की देखी जाती है। इसका कारण एक ही है मन पर उन्माद की तरह कामुकता का बुखार चढ़ा रहना और चिन्ता, क्रोध, भय आदि मनोविकारों की तरह शारीरिक और मानसिक ढाँचे को लड़खड़ा देना। इसीलिए अविवाहितों की शारीरिक एवं मानसिक तन्दुरुस्ती विवाहितों की तुलना में और भी अधिक गई बीती देखी जाती है। इसका कारण कामुक चिन्तन का उन्माद मनोभूमि पर छाया रहता है।

इस प्रेत पिशाच से कैसे पीछा छूटे? उसका उत्तर भी मन को समझाने में सहमत करने पर निर्भर है। युवा शरीरों की शृंगारिक सज्जा, देखने या स्मरण करने में उद्वेग उत्पन्न होता है। पर इस समुदाय को संसार में- आँखों से सर्वथा पृथक नहीं किया जा सकता। जहाँ तक हो सके ऐसी छवियों की निकटता के अवसर चुकाने चाहिए। घरों में ऐसे चित्र नहीं टाँगने चाहिए। इन दिनों ऐसे कलैंडर खूब छपते हैं और मनचले लोग घरों में उत्साह पूर्वक उन्हें टाँगते हैं। अश्लील चित्रों और कामुक विवरणों वाला साहित्य भी खूब बिकता है। जो कमजोर मनोभूमि पर बड़ा घातक प्रभाव डालता है। सिनेमाओं में ऐसे कृत्य गायनों, हाव-भावों की भरमार रहती है। इसके अतिरिक्त यौनाचार के चित्र एवं ब्लू फिल्मों के रूप में जहर गैर कानूनी होते हुए भी लुक-छिपकर खूब बिकता है। ऐसे उपकरणों की विषाक्त परिणति को समझते हुए साँप बिच्छू की तरह दूर रहने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए पर यह सामयिक एवं अधूरे प्रयत्न मात्र हैं।

होना यह चाहिए कि अपने परिवार की माता, बहिन या पुत्री की स्वस्थ और वयस्क छवियाँ मस्तिष्क में बिठानी चाहिए। यदि अन्य किसी महिला का कल्पना चित्र मस्तिष्क में आये तो उन्हीं पारिवारिक सम्बन्धों वाली महिलाओं का चित्र उस अन्य कल्पना चित्र के स्थान पर अड़ा देना चाहिए। हममें से प्रत्येक का निजी एवं सगे सम्बन्धों का परिवार होता है। उनमें बहिनें और पुत्रियाँ कुछ न कुछ ऐसी होती हैं जिनकी छवि उत्तेजक हो। इतने पर भी अपने मन में उनके प्रति कोई अश्लील विचार नहीं उठते। बहिनें राखी बाँधती हैं उनमें से प्रायः युवा ही होती हैं। बेटियों का कन्यादान देते उन्हें पढ़ाते, लिखाते एवं बुलाते चलाते हैं। इस संपर्क में कोई मोहित विचार पास भी नहीं फटकने पाता। यहाँ तक कि इन सगी बहिन, बेटियों की ओर कोई पास-पड़ौस वाला लड़का कुदृष्टि से देखता है तो उसका सिर तोड़ने के लिए प्रतिशोध से भभक उठते हैं। ठीक ऐसी ही कल्पना हमें उन सभी छवियों के साथ जोड़नी चाहिए जो अश्लील वेष-भूषा या भाव भंगिमा के साथ हमारे मनःक्षेत्र में प्रवेश करती है।

यों आवश्यक तो यह भी है कि युवा लड़कियों को उत्तेजक वेष-भूषा बनाने से रोका जाय। उन्हें सादा जीवन उच्च विचार की महत्ता बताई जाय। प्राचीनकाल के उन प्रचलनों का स्मरण दिलाया जाय जिनमें युवतियाँ लज्जा को अपनी कुलीनता का चिन्ह मानती थीं- नीची आंखें करके चलती थीं और सीना, पेट, पैर आदि को इस प्रकार कपड़ों से ढ़ककर रखती थीं, जिससे किसी की कुदृष्टि न पड़े। इस सम्बन्ध में उच्छृंखल प्रचलन जैसे-जैसे हुआ है वैसे-वैसे बलात्कार, अपहरण, छेड़छाड़, व्यभिचार की घटनाएं अनेक गुनी बढ़ गई हैं। अच्छा हो हम अपनी बहिन बेटियों को और प्रभाव क्षेत्र की लड़कियों को इस कुप्रचलन को अपनाने से बचायें, जो प्रकारान्तर से रास्ता चलने वालों की आँखों में अकारण ही विषाक्तता उभारता और अनुचित आक्रामक कदम उठाने के लिए आमन्त्रित करता है।

मुख्य बात असत्य नियन्त्रण की है। हर युवती को वैश्या समझने और उसके साथ अश्लील सम्बन्ध बनाने की कल्पना करना भी जननेंद्रियों का दुराचार है। हमें इस कल्पना से मन को बचाना चाहिए। साथ ही यौनाचार के घृणित पक्ष को मन से सदा बाहर करते रहना चाहिए। मल, मूत्र के अतिरिक्त अन्य छिद्रों से कफ भी निकलता है। आँख से कीचड़, नाक और गले से कफ भी कई बार बाहर आता है। वह देखने में कितना घृणित और चित्त को खराब करने वाला होता है। मल मूत्र के स्थान शरीर भर में सब में कुरूप होते हैं। उन्हें दृष्टि से ओझल रखने के लिए प्रकृति ने घने बालों से ढक रखा है। यह संरचना सोद्देश्य है। मूत्र प्रवाहित करते रहने के कारण वे दुर्गन्धित भी होते हैं। इसके अतिरिक्त मासिक धर्म में कई-कई दिन तक रक्त प्रवाहित होता है। आजकल कामोपचार की मर्यादा भंग करने या दूसरे मानसिक कारणों से अधिकाँश युवतियों को श्वेत प्रदर की शिकायत भी रहती है और वह प्रवास तीसों दिन चलता ही रहता है। इन घिनौने स्रावों की, प्रकृति द्वारा बनाई भौंड़ी बनावट की यदि घृणा उत्पादक दृष्टि से यथार्थवादी कल्पना की जाय तो सहज ही उस ओर आकर्षण उत्पन्न होने के स्थान पर विरक्ति होती है और मन अकारण उन प्रसंगों की ओर दौड़ लगाना बन्द कर देता है।

ब्रह्मचर्य की महत्ता समझने के लिए हनुमान, भीष्म पितामह, शंकराचार्य, दयानन्द, विवेकानन्द आदि की छवियाँ मस्तिष्क में घुमानी चाहिए। व्यभिचारी किस प्रकार हर दृष्टि से खोखले हो जाते हैं। इसकी भी कल्पना करनी चाहिए। साथ ही दोनों के मध्य बनने वाली आकाश-पाताल जैसी खाई को अपनी मान्यता में स्थान देना चाहिए। पत्नी को सगा भाई मानकर उसकी उपयोगिता एक दूसरे को अधिक समुन्नत, सुसंस्कारी, संयमी शालीन बनाने की दृष्टि से समझना चाहिए। धर्मपत्नी को भी रमणी, कामिनी की दृष्टि से देखा जाता रहेगा तो वह भी नागिन, बाघिन की तरह तप तेज को नष्ट करेगी। फिर बाहर की अन्यान्य महिलाओं के बारे में कुकल्पना करने के दुष्परिणामों का तो कहना ही क्या? यहाँ जो बात पुरुषों को नारी के सम्बन्ध में कही गई है। ठीक वही नारी को नर के सम्बन्ध में समझनी चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118