प्रगति एक पक्षीय न हो

June 1985

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यह एक सर्वविदित तथ्य है कि जीव सत्ता के दो पक्ष हैं- एक चिन्तन-चेतना से सम्बन्धित अन्तरंग एवं दूसरा काय-कलेवर तथा उसका बहिरंग व्यवहार। समग्र व्यक्तित्व इन दो घटकों का समुच्चय भर है। इन दोनों ही पक्षों को कुमार्गगामी न बनने देने के निमित्त सतर्कता परिष्कार प्रखरता की आवश्यकता पड़ती है, साथ ही प्रगति पथ पर सुनियोजन हेतु भावभरी तत्परता की। प्रगतिशीलता का आधार मात्र इसी एक केन्द्र पर केन्द्रीभूत है कि व्यक्तित्व का स्तर कितना ऊँचा उठाया गया? भौतिक सफलता भी उसकी ही परिणति है। यदि वे कहीं से जाकर थोप दी जायें तो दुर्गुणों-दुर्व्यसनों के माध्यम से किनारा करने का मार्ग स्वतः ढूंढ़ निकालती हैं।

आमतौर से जब भी, कभी प्रगतिशीलता की चर्चा होती है, भौतिक सफलताओं की- पद वैभव की- संचय उपयोग की बात ही सामने होती है। चर्म चक्षु मात्र दृश्य पक्ष ही तो देख सकते हैं। सामान्य बुद्धि के लिए इसी दिशा में सोचना सम्भव हो पाता है। किन्तु थोड़ी सी गहराई में प्रवेश करने पर नये तथ्य सामने आते हैं। सफलताएं वस्तुतः सद्गुणों और सत्प्रयासों के समन्वय की ही चमत्कृतियाँ हैं। वे ही स्थायी भी होती हैं, सुखद भी सराहनीय एवं सन्तोषजनक भी। इससे इतर उपाय अपहरण का है। छल, दबाव, प्रलोभन, आक्रमण जैसी अपराधी प्रवृत्तियाँ मनुष्य को कुचक्री, आतंकवादी बनाती हैं इस आधार पर जो कमाया गया है, प्रकारान्तर से वह असीम कष्टकारक परिणतियाँ लेकर कुछ ही समय उपरान्त सामने आ खड़ा होता है।

आत्म-प्रताड़ना, अंतर्द्वंद, पश्चात्ताप जैसे तत्व ऐसे हैं जिनसे कोई कुमार्गगामी बन नहीं सकता। अपनी आँख में जो गिरता है वह समीपवर्तियों से लेकर दूरवर्तियों तक की आँखों में गिरता चला जाता है। उनका न कोई स्नेही रहता है, न घनिष्ठ, न मित्र, न साथी, न प्रशंसक, न समर्थक। यह विभूतियाँ अन्तःक्षेत्र को प्रभावित करने वाली ऐसी विभूतियाँ हैं, जिनके बिना कोई व्यक्ति सच्चे अर्थों में आज तक ऊँचा उठने में सफल नहीं हुआ। दुष्ट दुराचारियों की चाण्डाल चौकड़ी, सज्जन समुदाय की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी रहती है। एक दूसरे के साथी होने का भी दम भरते हैं पर यह सहयोग समर्थन कागज की नाव की तरह, पानी के बबूले की तरह सर्वथा दुर्बल एवं उथला होता है। स्वार्थ सिद्धि में कमी आते ही अथवा टकराव का तनिक-सा कारण उपस्थित होते ही चाण्डाल चौकड़ी का कोई भी सदस्य दूसरे के लिए आक्रामक हो सकता है। कल की दाँत-काटी रोटी आज जानी दुश्मन का रूप धारण करती देखी गई है। करण स्पष्ट है श्मशान में जमा होने वाले प्रेत-पिशाचों और लाश कुतरने में लगे चील, कौओं की तरह वे लोग एकत्रित भर दिखते हैं पर आत्मीयता की गहराई नाम मात्र को भी न होने के कारण उनके विगठन में भी देर नहीं लगती। इतना ही नहीं इन दोस्तों को दुश्मन बनाने में किसी प्रकार की ग्लानि अनुभव नहीं होती। अनैतिक आधार पर जुड़े हुए जम घटे सदा इसी स्तर के होते हैं और उनमें सम्मिलित रहने वालों में से प्रत्येक को निराशा सहनी पड़ती है।

मानवी अन्तराल की बनावट में कुछ मौलिक तत्व हैं। उन्हें हटा या मिटा सकना किसी के बस की बात नहीं है। शालीनता इसी प्रकार का तत्व है। नीतिमत्ता, उदारता, उत्कृष्टता, सज्जनता जैसी सत्प्रवृत्तियाँ शालीनता का ही अंग है। उन्हें अपनाये रहने पर ही मनुष्य को अन्ततः सन्तोष मिलता है और शान्ति का अनुभव होता है। इस मार्ग से जो जितना च्युत होता जाता है वह अपने भीतर उतने ही जटिल अन्तर्द्वन्द्वों का अनुभव करता है और विभिन्न प्रकार के विक्षोभों से फिरता चला जाता है। यह विक्षोभ मानसिक स्वास्थ्य को बुरी तरह चौपट कर रख देते हैं। कई प्रकार की सनकें व्यक्ति को अर्ध विक्षिप्त बना देती हैं।

अन्तःजीवन ही वास्तविक जीवन है। क्योंकि व्यक्तित्व चेतना मूलक है और चेतना का, उत्कृष्टता का कार्यक्षेत्र अन्तराल ही है। अनैतिक आदतों एवं गतिविधियों का प्रभाव अन्तःजीवन को अस्त-व्यस्त करने के रूप में निश्चित रूप से पड़ता है और व्यक्ति निरन्तर मानसिक तनावों से घिरा रहता है। मनोविकारों के कारण उत्पन्न होने वाली अगणित शारीरिक मानसिक आदि-व्याधियों से ग्रसित होकर व्यक्ति अपंग असमर्थों जैसे- तिरष्कृत बहिष्कृतों जैसा हेय जीवन जीता है। यह है वह परिणति जो भौतिक सफलता की आतुरता में अनीति का मार्ग अपनाने पर उत्पन्न होती है। शान्त चित्त से पर्यवेक्षण करने पर ही पता चलता है कि अवाँछनीय मार्ग से उपलब्ध की गई सफलताएं अन्ततः कितनी महंगी पड़ी।

सम्पदा या सफलता अर्जित करना एक बात है और उसका सदुपयोग करके अपने लिए तृप्ति, तुष्टि एवं शान्ति अर्जित करना तथा दूसरों के लिए प्रगति प्रसन्नता का वातावरण उत्पन्न करना दूसरी। मात्र वैभव उपार्जन नितान्त अपूर्ण है। सदुपयोग की दृष्टि विकसित हुए बिना सम्पदा उलटी विकृत्तियों का कारण बनती और वातावरण में विक्षोभ उत्पन्न करके अनेकानेक संकटों का सृजन करती है।

चर्चा यह हो रही थी कि प्रगति की आन्तरिक आकाँक्षा क्या सम्पदा संचय से, सफलताओं के घटाटोप एकत्रित करने से पूर्ण हो सकती है? गम्भीर चिन्तन से निष्कर्ष वह नहीं निकलता जो मोटी दृष्टि से समझा या सोचा जाता है। सफलता या सम्पदा के सत्परिणाम उसी स्थिति में उपलब्ध हो सकते हैं जब सदुपयोग की शालीनता समर्थक सदाशयता की दृष्टि भी प्रखर परिपुष्ट बन सके।

प्रगति में इस स्तर की महत्वाकांक्षाएं भी मनुष्य को आगे बढ़ने की प्रेरणा देती और क्षमता बढ़ाने की उत्तेजना देती हैं। इस प्रक्रिया का औचित्य एवं सफलता का महत्व उसी सीमा तक स्वीकारा जा सकता है जिसमें कि वह व्यक्ति को प्रगति के लिए पुरुषार्थ करने की प्रेरणा प्रदान करे। किन्तु यदि धन को अनुचित रीति से कमाने और दुरुपयोग में खर्च करने की तरह यहाँ भी अवाँछनीयता अपनाई गई, दृष्टिकोण में निकृष्टता घुस पड़ी तो फिर उन्हें भी अनुचित रीति से उपार्जित किया जाने लगेगा। उपलब्ध होने पर अहंकार प्रदर्शन के लिए- दूसरों को आतंकित करने के लिए काम में लाया जाने लगेगा। ऐसा प्रायः देखा भी जाता है कि विशिष्टता उपलब्ध होते ही लोग उसका उपयोग विभिन्न प्रकार के अनुचित स्वार्थ साधने में करने लगते हैं और दुर्बलों को आतंकित करके अपनी शक्ति से अन्यान्य लोगों को प्रभावित चमत्कृत करने में जुट जाते हैं।

शरीर से बलिष्ठ लोगों को गुण्डागर्दी अपनाते- सौन्दर्यवानों को कामुकता का जाल बिछाते- नेताओं को अकारण हड़तालें कराते- पदवी धारियों को स्वागत कराते प्रशस्ति संचय करने के लिए आडम्बर खड़े करते कहीं भी देखा जा सकता है। मध्यकाल के सम्पन्नों ने जिस प्रकार के अनाचार आतंक फैलाये थे उनके रोमाँचकारी वर्णन कत्लेआमों-अपहरणों-उत्पीड़नों की अगणित घटनाओं के इतिहास के रक्त रंजित पृष्ठ पढ़कर भली प्रकार समझा जा सकता है। इसमें विलासिता की असीम सामग्री समेटने की हविश तो प्रधान थी ही पर अपनी समर्थता बलिष्ठता से सर्वसाधारण को आतंकित करने की महत्वाकांक्षा भी कम नहीं थी। उन्हें लगता होगा शूर सामन्त होना- सर्व सर्वश्रेष्ठ होने का यह तरीका सस्ता और सुलभ है। साधन रहित लोग- साधन सम्पन्न लोगों के सशस्त्र गिरोह का मुकाबला तो कर नहीं सकेंगे फलतः सफलता बात की बात में मिलती चलेगी। जिसकी भी बेटी, सम्पत्ति छीनने का मन होगा उसी में प्रतिरोध न रहने के कारण बेरोक-टोक दाल गलती चलेगी। मध्यकालीन सामन्त जो कार्य संगठित रूप से खुलेआम करते थे उसी को इन दिनों डाकुओं द्वारा लुक-छिपकर अपनाया जाता है। हत्यारों के लिए पैसा लेकर किसी का भी कत्ल कर देना एक व्यवसाय बन गया है।

कलाकारों गायकों, वादकों, अभिनेताओं का वर्ग भी इसी प्रकार का है जिनकी प्रतिभा का लाभ जन साधारण को मिला? पीढ़ियाँ इनकी विभूतियों से क्या कुछ ग्रहण कर सकीं, इसका लेखा-जोखा लेने पर निराशा होती और खीज उठती है। साहित्यिक प्रतिभा, चित्रकार, कवि इन दिनों समाज को क्या कुछ दे रहे हैं, उनके अनुदान समाज के उत्थान-पतन में क्या योगदान दे रहे हैं- इसका दूरगामी परिणाम सोचने वालों को लगता है, यदि प्रतिभाएं यदि जन्मी ही न होतीं तो मनुष्य जाति अधिक भाग्यवान रहती। ठीक है उन प्रतिभावानों ने स्वयं सम्पत्ति और वाहवाही कमाई- अपने पालन कर्ताओं को भी धन कुबेर बना दिया। इतने पर भी देखना यह होगा कि उन विशेषताओं ने उन विभूतिवानों का इतिहास क्यों बनाया? पीढ़ियों के लिए क्या आदर्श? छोड़ा और अपने आप में कितना आत्म-सन्तोष उपलब्ध हुआ। विलक्षणता सम्पन्न तो भूत-पलीत और प्रेत-पिशाच भी होते हैं। लोकप्रिय तो मदिरा भी है। वैश्याओं के चकले भी कितनों को ललचाते रहते हैं। इन सभी में कुशलता और विशिष्टता का चमत्कार झाँकता देखा जा सकता है। इतने पर भी वे सभी चमकीले यमदूतों की तरह मानवी चेतना को कलुषित करने और भविष्य को अन्धकार के गर्त्त में धकेलते देखे जाते हैं।

समझा जाना चाहिए कि प्रगति एवं सफलता एकपक्षीय नहीं है। भौतिक उपलब्धियाँ आँखों को कितनी ही लुभावनी क्यों न प्रतीत हों। उनसे विलास लूटने एवं आतंक जमाने में किसी को कितना ही अवसर क्यों न मिले? अन्ततः वह समूची विडम्बना विश्व मानव के लिए अभिशाप बनकर ही रहेगी।

सोचा इस प्रकार जाना चाहिए कि संपदाओं एवं सफलता के साथ-साथ यदि उपलब्ध कर्ता ने शालीनता की रीति-नीति अपनाई है तो वह उस पुरुषार्थी को आत्म-संतोष, चिरस्थायी यश और दूरगामी श्रेय प्रदान कर सकेगी। यदि उन उपार्जनों का उपयोग उत्कृष्टता के समर्थन, अभिवर्धन में हो सका तो ही उससे सुखद सम्भावनाओं का द्वार खुल सकेगा। प्रगति का यही स्वरूप सच्चा है और अपनाने योग्य है।


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