तथागत उन दिनों श्रावस्ती विहार में थे। जैतवन की व्यवस्था अनाथ पिण्डक सम्भालते थे। दक्षिण क्षेत्र की प्रव्रज्या से लौटे दारुचीरिय वापस लौटे और बड़े विहार जैतवन में जा पहुँचे।
दारुचीरिय की भाव-भंगिमा और विधि-व्यवस्था वैसी नहीं रह गई थी, जैसी कि आते समय उन्हें अभ्यास कराया गया था। वे जहाँ भी गये बुद्ध की गरिमा और उनकी प्रतिभा का सम्मिश्रण चमत्कार दिखाता रहा सम्मान बरसा, धन बरसा, प्रशंसा हुई, आतिथ्य की कमी रह रही।
पा लेना सरल है, पचा लेना कठिन। प्रतिष्ठा सबसे अधिक दुष्पाच्य है। उसे गरिष्ठ भोजन और विपुल वैभव की तुलना में आत्मसात कर लेना और भी अधिक कठिन है। दारुचीरिय की स्थिति भी ऐसी ही हो रही थी। अपच उनकी मुखाकृति पर छाया हुआ था।
अनाथ पिण्डक ने पहले दिन तो आतिथ्य किया और दूसरे दिन हाथ में कुल्हाड़ी थमा दी- जंगल से ईंधन काट लाने के लिए। सभी आश्रम वासियों को दैनिक जीवन को कठोर श्रम से संजोना पड़ता था। अपवाद या छूट मात्र रोगी या असमर्थ ही हो सकते थे।
दारुचीरिय इतना सम्मान पाकर लौटे थे वे अपने को दूसरे अर्हन्त के रूप में प्रसिद्ध करते थे। कुल्हाड़ी उन्होंने एक कोने में रख दी। मुँह लटकाकर बैठ गये। श्रमिकों जैसा काम करना अब उन्हें भारी पड़ रहा था। यों आरम्भ के साधना काल में यह अनुशासन उन्हें कूट-कूट कर सिखाया गया था।
अनाथ पिण्डक उस दिन तो चुप रहे। दूसरे दिन कहा- अर्हन्त को तथागत के पास रहना चाहिए। यहाँ तो हम सभी श्रवण मात्र हैं।
दारुचीरिय चल पड़े और श्रावस्ती पहुँचे। विहार में तथागत उपस्थित न थे। वे भिक्षाटन के लिए स्वयं गये हुए थे। तीसरे प्रहर लौटने की बात सुनकर उनको अधीरता भी हुई और आश्चर्य भी। इतने बड़े संघ के अधिपति द्वार-द्वार भटकें और भिक्षाटन से मान घटायें। यह उचित कैसे समझा जाय?
बेचैनी ने उन्हें प्रतीक्षा न करने दी और वहाँ पहुँचे वहाँ तथागत भिक्षाटन कर रहे थे। साथ ही मार्ग में पड़े उपले भी दूसरी झोली में रख रहे थे ताकि आश्रम के चूल्हे में उनका उपयोग हो सके।
अभिवादन उपचार पूरा भी न हो पाया था कि मन की जानने वाले युद्ध ने दारुचीरिय से कहा- अर्हन्त ही बनना हो तो प्रथम अहन्ता गलानी और छोटे श्रम में भी गरिमा प्रधान करनी चाहिए। इसके बिना पाखण्ड बढ़ेगा और सत्य पाने का मध्यान्तर बढ़ेगा।
दारुचीरिय का समाधान हो गया। अहन्ता गली, और श्रवण व्रत फिर से निखर आया। तथागत ने इस प्रसंग को शाम के सत्संग में दुहराते हुए विहार में उपस्थित भिक्षुओं एवं अन्य भक्तों को बताया कि लोक सेवी की वरिष्ठता की कसौटी विनम्रता पर निर्भर है। आम्र वृक्ष जितना अधिक फलों से लदा होगा, उतना ही झुकेगा। विभूतियाँ पाकर साधक को भी झुकना, स्वयंसेवी स्तर विकसित करना सीखना चाहिए। इसके अभाव में तो प्राप्त सिद्धि भी दुष्पाच्य आहार के रूप में सड़े मल की भाँति निकलती एवं वातावरण दूषित करती, स्वास्थ्य बिगाड़ती है। समाज निर्माण मात्र विनम्र साधक ही कर सकते हैं। यदि लोकसेवी ही अहन्ता के मद में चूर बने रहे तो वे विधेयात्मक प्रगति तो दूर, अपने साथ सारे समुदाय को ले डूबेंगे। दारुचीरिय के साथ ही सबने इस तत्त्वदर्शन को समझा व लोक सेवा के मर्म को साधना के सही स्वरूप को- हृदयंगम किया।