बहिर्जगत का पर्यवेक्षण एवं रसास्वादन करने के लिए प्रकृति ने ज्ञानेन्द्रियाँ प्रदान की हैं। इनके द्वारा संसार के दृश्य श्रव्य स्वरूप को हम अनुभव करते हैं और अनुभव में आने वाली पदार्थ सम्पदा का लाभ उठाते हैं। यह भगवान का महान् अनुग्रह है। यदि आँख, कान, त्वचा आदि इन्द्रियाँ न होतीं तो संसार में उपयोगी पदार्थ भरा होने पर भी हम उसका उपयोग न कर पाते।
यह बाह्य कलेवर है जिसका लाभ हम सभी उठाते हैं। पर इतना ही सब कुछ नहीं है। इसके अतिरिक्त बहुत कुछ अन्तरंग भी है जो इन्द्रियों की पकड़ में तो नहीं आता पर उसकी सत्ता और महत्ता बहिरंग की तुलना में किसी प्रकार कम नहीं है। अन्तरंग में आमाशय, आँखें, गुर्दे, मूत्राशय, यकृत, फुफ्फुस, मस्तिष्क आदि की गतिविधियाँ एवं उपयोगिताएं इतनी अधिक हैं कि उनमें से किन्हीं के गड़बड़ा जाने से शरीर तन्त्र लड़खड़ाने लगते हैं। रोगों की व्यथा सहता है और किसी काम का नहीं रहता। इन अवयवों का स्वरूप, क्रियाकलाप एवं सक्षम होना संग्रहित ज्ञान के आधार पर विदित होता है यदि वे गड़बड़ाते हैं तो उनकी चिकित्सा के लिए बुद्धि का उपयोग करना पड़ता है। इसका अर्थ हुआ कि बुद्धि की पहुँच अधिक गहरी है। और जिन समस्याओं को इन्द्रियाँ नहीं सुलझा सकतीं उन्हें बुद्धि सुलझाती है।
अन्तरंग में चमड़े के खोखले में दबे ढके अवयव हैं। पर इतने से अन्तरंग की समूची व्याख्या नहीं हो जाती। व्यक्तित्व के साथ जुड़े हुए गुण, कर्म, स्वभाव के एक विशाल क्षेत्र हैं। जानकारियों से सम्बन्धित सुविस्तृत परिकर भी है। यह बुद्धि से भी गहन स्तर के विवेक अनुशासन के अंतर्गत आते हैं। शरीर स्थूल है। उसकी स्थिति का परीक्षण इन्द्रियों के सहारे जाना जा सकता है। शरीर का जो भाग अदृश्य है उसे बुद्धि समझती और सन्तुलित बनाये रहने के प्रयास अभ्यास करती है।
किन्तु यह नहीं समझ लेना चाहिए कि दृश्य या अदृश्य शरीर तन्त्र ही सब कुछ है। वह मात्र साँसारिक उपलब्धियों को संजोने भर के काम आता है। व्यक्तित्व इससे आगे की-गहराई की वस्तु है। साथ ही वह अधिक मूल्यवान महत्वपूर्ण भी है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का अन्तःकरण चतुष्टय मान्यता, आकाँक्षा, भावना और विचारणा से गठित है। साथ ही उसमें आदतें भी अभ्यास बनकर निवास करती हैं। संस्कार इन्हीं को कहते हैं। यह संस्कार ही प्रेरणाएं देते हैं। काम दिशाधारा निर्धारित करते हैं और जीवनचर्या में रीति-नीति का समावेश करने वाला ताना-बाना बुनते हैं। यही है हमारा गहन अन्तराल जिसके संकेतों पर व्यक्ति उत्कृष्टता एवं निकृष्टता अपनाता है। समूचा जीवन तन्त्र इसी आधार पर अपनी रुझान और प्रयास को गतिशील करता है। यह कार्य दूरदर्शी विवेकशीलता का है। यदि वह ठीक काम कर रही होगी तो मनुष्य भविष्य को उज्ज्वल बनाने वाला मार्ग चुनेगा और उस मार्ग पर चलेगा जिसमें वह अपना ही भला न होता हो, वरन् संपर्क में आने वालों का, स्तर भी ऊँचा उठ सके।
पवित्रता और प्रखरता यह दो गुण ऐसे हैं जो विवेकशीलता के आधार पर ही उपलब्ध होते हैं। अदूरदर्शी तात्कालिक लाभ देखते हैं भले ही पीछे उनके कारण कितनी ही बड़ी हानि क्यों न उठानी पड़े। इसके विपरीत दूरदर्शी अपने चिन्तन और कर्तव्य को इस कसौटी पर कसते हैं कि भविष्य में इसकी परिणति होगी। यह विवेक ही किसी के वास्तविक उत्थान और पतन का कारण होता है।