सार्त्र की जीवन दर्शन पाठशाला

June 1985

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ज्यां पाल सार्त्र (फ्राँस) संसार के माने हुए दार्शनिक थे। उनने सारा जीवन परमार्थ प्रयोजनों में लगाया। साथ ही जीवन को आनन्द से भरा-पूरा बनाने के लिए उनने अपने अनुभवों का सार संक्षेप भी अनेक लेखों से लिखा है। उनके सामने कठिनाइयाँ भी कम नहीं रहीं। पर एक दिन के लिए भी कभी किसी ने उन्हें खिन्न, उद्विग्न या उदास नहीं देखा। वे परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाते थे और दूसरों को भी वैसी ही शिक्षा देते थे। उनकी शिक्षाओं ने अनेकों के मुरझाये जीवनों में उल्लास भरी किरणें उत्पन्न करने में सफलता पाई।

सार्त्र की एक आँख आरम्भ से ही खराब थी। दूसरी पर अत्यधिक दबाव न डालने के लिए डाक्टरों ने सलाह दी तो भी वे शिक्षा से वंचित नहीं रहे। पढ़कर सुना देने हेतु उनने अपने घर के लोगों को सहमत कर लिया। इसके उपलक्ष्य में कृतज्ञता व्यक्त करने और दूसरों के सामने प्रशंसा करने में कभी उनने कोताही न की। कर्कश और रूखा स्वभाव होने पर जो लाभ उठाना उनके लिए कठिन पड़ता वह उन्हें सरलतापूर्वक उपलब्ध होता रहा और उनने अपनी स्मरण शक्ति पर पूरा जोर देकर स्नातकोत्तर परीक्षा अच्छे डिवीजन में पास कर ली एवं अपने काम में जुट गये। लेखन कार्य में भी वे दूसरों की सहायता लेते रहे। आँखों के अभाव में जो कठिनाई किसी को हो सकती है वे सभी उनके सामने थीं। पर इसके कारण न तो कभी उनने चेहरे पर उदासी आने दी, न निराशा व्यक्त की और न अपना काम रोका। बुढ़ापे में दूसरी आँख ने भी जवाब दे दिया था पर वे इस पर भी सदा यही कहते रहे कि संसार में करोड़ों आंखें मेरी हैं। सहायता करने को इच्छुक और उत्सुक लोगों की कमी नहीं। मात्र हम अपनी कर्कशता के कारण ही उस सहयोग का लाभ नहीं उठा पाते।

सार्त्र सदैव मित्रों से घिरे रहते थे। उपयोगी ज्ञान का आदान-प्रदान क्रम वे सदा ही चलाते रहते। उनके मित्रों में वृद्ध कम थे और युवक अधिक। इस कारण वे बताते, मैं युवक जो हूँ। फिर अपने साथियों की संख्या अपनी आयु वालों के साथ ही क्यों न बढ़ाऊं। उन्हें बूढ़ों (मानसिक दृष्टि से) के प्रति चिढ़ थी। कारण कि वे सदा अपने अच्छे भूतकाल का वरदान करते रहते हैं और भविष्य को आशंकाओं से भरा अनुभव करते रहते हैं। जबकि बुढ़ापे में मनुष्य का आयुष्य और अनुभव परिपक्व होने के कारण वह अधिक उपयोगी होना चाहिए एवं जो उपयोगी है उसका मस्तिष्क उज्ज्वल होना चाहिए। सार्त्र ने परामर्श के लिए कई घण्टों का समय निर्धारित रखा था। उसमें वे उन्हीं प्रसंगों को छेड़ते थे जिसमें कठिनाइयों के बीच प्रसन्नता से रह सकना और सफलता के मार्ग पर चल सकना सम्भव हुआ हो। ऐसे घटनाक्रमों के लिए उनकी स्मृति एक विश्व कोष मानी जाती थी। जो भी परामर्श वे देते थे वे उनके पीछे सिद्धान्त की विवेचना थोड़ी और घटनाक्रमों की लड़ी बहुत लम्बी होती थी। उदाहरणों के माध्यम से वे यह गले उतरते थे कि साधन सम्पन्न व्यक्ति किस प्रकार अपनी क्षमताओं को सत्प्रयोजनों में लगाकर अपने क्षेत्र में प्रशंसा के पात्र बने। साथ ही उन्हें ऐसी घटनाओं की स्मृति भी कम नहीं थी जिनमें कठिनाइयों से घिरे हुए लोगों ने अपने धैर्य, साहस और अनवरत प्रयत्न के आधार पर इतना कुछ कर दिखाया जितना कि साधन सम्पन्न लोगों के लिए भी सम्भव नहीं थे। मनुष्य का पराक्रम कितना सामर्थ्यवान है और किसी को भी किस प्रकार आगे बढ़ाने ऊँचा उठाने में कारगर हो सकता है, इसके रहस्य में इतने अच्छे ढंग से समझाते थे कि किसी को उस परामर्श प्रतिपादन में सन्देह न रह जाता था। उनकी मित्र मण्डली में से एक भी ऐसा नहीं था जो अपने को अनेकों के लिए अनुकरणीय न बना सका हो। एक मित्र दूसरे अनेक मित्रों को साथ लेकर आता था। इस प्रकार उनकी नियत समय पर चलने वाली वार्ता एक प्रकार से जीवन दर्शन की पाठशाला बन गई थी। सुकरात भी ऐसी ही शिक्षा विधि के लिए प्रख्यात थे। सार्त्र को सुकरात का बीसवीं सदी संस्करण माना जा सकता है।


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