सौर-परिवार का ही एक सदस्य धूमकेतु भी है, जो प्रायः प्रति 76 साल के अन्तर पर उदय होता रहता है। इसकी बनावट ऐसी है जो पृथ्वी के वातावरण को विशेष रूप से प्रभावित करती है। इसकी चर्चा करना यहाँ प्रासंगिक इसलिये होगा कि इस सदी में दूसरी बार सन् 1910 के बाद अब अगले वर्ष 1986 में यह पुनः पृथ्वीवासियों को दिखाई देगा। इसके अंतर्ग्रही प्रभाव अभी से धरित्री को प्रभावित करने लगे हैं।
भारतीय शास्त्रों में 33 धूमकेतुओं का वर्णन है। वे सभी दैत्य राहू के पुत्र समझे जाते हैं। इनके प्रकट होने का अर्थ होता है- विनाश की सम्भावनाएं सन्निकट होना। एक यहूदी इतिहासकार जेसफी ने तो इसे “अभिशिप्त क्षेत्र के ऊपर ईश्वर की तलवार” का नाम दिया है। जब कभी भी धूमकेतु का उदय धरती पर हुआ तभी युद्ध, अकाल, भय, बीमारी तथा अन्यान्य प्रकार की विभीषिकाएं प्रकट हुई हैं।
धूमकेतु को दूसरे शब्दों में पुच्छल तारा नाम से भी जाना जाता है। इसके प्रकट होने की समयावधि 76 वर्ष बाद की है। जुलाई 1910 में वह निकला था। अब इसकी बारी जनवरी 1986 में निकलने की है। इसकी पूँछ की लम्बाई साढ़े आठ करोड़ किलोमीटर है। यह पूँछ कहीं दिन में तो कहीं रात में चमकती हुई दिखाई देगी।
अब प्रश्न उठता है कि यह पुच्छलतारा है क्या? आज से लगभग 70 करोड़ वर्ष पहले सूर्य असंख्य टुकड़ों में फैलता चला गया। गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त के अनुसार सूर्य से पृथक हुए ये टुकड़े वायुमण्डल में मंडराते हुये पुनः जब सूर्य के पास पहुँचे तो इनकी लम्बाई करोड़ों मील तक फैलती चली गयी। इन्हीं को ज्योतिर्विदों ने पुच्छल तारे के नाम से पुकारा है।
अबकी बार नवम्बर 1985 में परोक्ष रूप से एवं जनवरी 86 में दृश्य रूप से निकलने वाले धूमकेतु की पृथ्वी की ओर आने की गति 5800 किलोमीटर प्रति घण्टे की है। अमेरिका के एक ज्योतिर्विद् का कहना है कि इस पुच्छल तारे की पूँछ की लम्बाई पहले की अपेक्षा एक लाख गुना अधिक होगी। इसके दुष्परिणामों की ओर इंगित करते हुए उन्होंने यह भी बताया कि “पक्षी अपने घोंसलों से बाहर मुँह नहीं निकालेंगे। जंगलों में रह रहे जानवर अपनी भाषा में इसे देखकर बुरी तरह चीत्कार की ध्वनि में रो पड़ेंगे।” 27 दिन तक यह तारा विश्व के किसी न किसी स्थान पर अवश्य बना रहेगा। यदि रोमन ग्रन्थों का अध्ययन किया जाय तो पता चलेगा कि ये धूमकेतु अपनी धुरी पर सूरज के इर्द-गिर्द चक्कर काटते हैं। ठीक 76 वर्ष बाद ये धूमकेतु सूर्य की भीतरी सीमा से निकलकर बाहर आते हैं तो पृथ्वी से चमकते हुए दीखते हैं।
दुनिया का सबसे पहला धूमकेतु ईसा से 250 वर्ष पूर्व चमका। चीन के वैज्ञानिकों ने इसका रिकार्ड रखा है। उनके अनुसार यह धूमकेतु देवताओं द्वारा छोड़ी गयी दुर्गन्धि का प्रतीक था। जिससे युद्ध, महामारी, दुर्भिक्ष जैसी विनाश की सम्भावनायें स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगीं। वैस्पीसियान नाम के रोमन सम्राट की मृत्यु धूमकेतु के प्रकट होने के समय ही हुई। उसी समय महामारी का दौर फैला। सन् 1066 में धूमकेतु दिखाई देने का परिणाम विलियम कोन्करर के आक्रमण का था।
अमेरिका के वैज्ञानिकों के अनुसार धूमकेतु पृथ्वी के सन्निकट आते समय उसका मलवा सड़ने लगता है। जिसके फलस्वरूप विभिन्न प्रकार की विषैली गैसें उत्सर्जित होती हैं। यह गैस पृथ्वी पर बसे प्राणियों के लिए प्राणघातक सिद्ध हो सकती हैं।
बड़ी तेजी से पृथ्वी की ओर चल पड़े इस हैली धूमकेतु का विराट् रूप मार्च 1986 में पृथ्वी वासियों को दिखाई देगा। मात्र भारत ही नहीं विश्व के अनेक अन्य राष्ट्रों में पृथ्वी पर इसके प्रभावों के अध्ययन की जोर-शोर से तैयारी चल रही है। रूस ने तो इसके अध्ययन के लिए एक विशेष अन्तरिक्ष यान की योजना बनाकर इसे गत वर्ष अगस्त 1986 में हैली के पुच्छल तारे की ओर छोड़ा है, जो इसके प्रभावों का अध्ययन-परीक्षण अति निकट से कर सकेगा। अभी वह अपनी यात्रा पर है वह शीघ्र ही उसके निकट होगा। दूरगामी लेसर यन्त्रों से वह कई जानकारियाँ पृथ्वी पर भेज सकेगा।
कार्डिफ यूनीवर्सिटी के खगोलज्ञों ने ‘हरास-अराकी-एलकौक’ धूमकेतु की आन्तरिक स्थिति का गत वर्ष बड़ी गहनता के साथ अवलोकन किया तदुपरान्त इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इसके द्वारा फेंका गया सूक्ष्म जीव रसायन पृथ्वी के वातावरण में पूरी तरह समा जाता है और आगे चलकर यही सूक्ष्म रसायन वायरस आदि को जन्म देकर महामारी जैसी व्याधियों का स्वरूप धारण करता है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का अवलोकन करने से पता चला है जब कभी भी धूमकेतुओं का प्रकटीकरण हुआ तभी प्लेग, ब्लैक डैथ, चेचक जैसी बीमारियाँ फैली हैं। इसकी जानकारी ‘डिसीज फ्रौम स्पेस’ के लेखक प्रो. चन्द्र विक्रमा सिंधे की पुस्तक से मिलती हैं। उन्होंने लिखा है कि धूमकेतु की पूँछ में एक विशिष्ट प्रकार के रोगाणु पाये गये हैं, जो इन बीमारियों को फैलाने का मूल कारण बन जाते हैं।
13 मई, 1983 को खगोल-विज्ञानियों ने अपने तथ्यों को जनता के सम्मुख प्रस्तुत करते हुए बताया था कि हैली धूमकेतु पृथ्वी के ऊपर 50 लाख किलोमीटर के क्षेत्र को घेरते हुये चमकेगा। जिससे उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध में फ्ल्यू एपेडेमिक आदि रोगों का प्रकोप पूरी तरह फैलता चला जायेगा। यही नहीं कई नए ऐसे वायरस जन्य रोग जन्म ले सकते हैं जिनका निदान एवं उपचार चिकित्सकों की सीमा के बाहर होगा।
विश्व के मूर्धन्य ज्योतिर्विदों के अनुसार हैली धूमकेतु जब सूर्य के नजदीक से गुजरेगा तो एक विशिष्ट प्रकार की विषैली गैस और धूलकण निकाल फेंकेगा। जिसके फलस्वरूप सौर विकिरण निरन्तर फैलता चला जायेगा। धूमकेतुओं की मुख्य विशेषता यह होती है कि वे 1 करोड़ किलोमीटर की लम्बाई वाले हाइड्रोजन युक्त बादलों से चारों ओर घिरे रहते हैं। इन्हीं बादलों से निकले अवशिष्ट कण पृथ्वी पर बरसते हैं। इस धूमकेतु को अभी से देखने के लिए 200 इंच वाली टेलिस्कोप का प्रयोग माउंट पैलोमर पर किया जा रहा है। जो कि दुनिया की सबसे ऊँची वेधशाला है।
जापान ने हैली धूमकेतु तक पहुँचने के लिए प्लेनेट ‘ए’ का निर्माण किया है जो अन्य की अपेक्षा जल्दी पहुँचेगा। इसे देखने के लिए दक्षिणी अक्षांश को अधिक उपयुक्त समझा गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इसके मलवे से पृथ्वी के पश्चिमी गोलार्ध को काफी जोखिम उठानी पड़ सकती है। वैज्ञानिक गणनानुसार नवम्बर 1984 में हैली का धूमकेतु पृथ्वी से 48 करोड़ 36 लाख 6 हजार मील दूर था। पृथ्वी से इसकी सबसे निकटतम दूरी अगले दिनों 3 करोड़ 90 लाख मील होगी।
इसके उपरान्त जुलाई 85 से लेकर सन् 86 तक उसकी दूरी एवं चमक ऐसी होगी जो पृथ्वी पर कहीं न कहीं से देखी जा सके। सबसे स्पष्ट दृश्य दीखने का समय जनवरी से मार्च सन् 1986 है। जहाँ उसका दृश्य जितनों तक अधिक स्पष्ट दिख पड़े समझना चाहिए कि उसका प्रभाव उतने दिनों विशेष काम करेगा और उसके बाद भी चलता रहेगा।