प्रतिकूलताओं का एक उपचार उपेक्षा भी

June 1985

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इस संसार में सब कुछ ऐसा नहीं है जो अपने को प्रिय सुखद या अनुकूल ही लगे। बहुत सी परिस्थितियाँ तथा वस्तुएं ऐसी होती हैं जिन्हें प्रतिकूल या अप्रिय कहा जा सके। कितने ही व्यक्ति भी ऐसे होते हैं जिनका स्वभाव या आचरण गले नहीं उतरता। इस संसार की संरचना ही ऐसी है। यहाँ अन्धेरे और उजाले की आँख मिचौनी चलती है। भलों के साथ-साथ बुरों से भी पाला पड़ता है। जो घटित होता रहता है वह सब कुछ इच्छित या प्रिय ही नहीं होता। यहाँ अनिच्छित या अप्रिय का भी अस्तित्व है।

विश्व संरचना को देखते हुए उपयुक्त यही है कि हम अपनी प्रतिक्रिया को सन्तुलित करें और ऐसी नीति अपनायें, जिसके सहारे शान्तिपूर्वक निर्वाह होता रहे और सुखद को अर्जित करने के लिए अवसर एवं अवकाश बच सके। अप्रीतिकर की ही गणना करते रहे, उस पर खीजते रहें तो भी सीमित पुरुषार्थ से प्रतिकूलताओं को सर्वथा हटा सकना सम्भव नहीं। उन्मूलन प्रतिशोध और संघर्ष की बात सिद्धान्ततः सही हो सकती है पर उसका व्यावहारिक प्रयोग एक सीमा तक ही सम्भव है। कितनों से कब तक लड़ते रहा जायेगा। खीजा किस-किस से कब तक जायेगा। प्रतिशोधात्मक आक्रमण सदा सफल ही नहीं होते। उनसे कई बार बात और भी अधिक बढ़ जाती है। आक्रमण और प्रत्याक्रमण का कुचक्र ऐसा ही है जिसे किसी ओर से तो तोड़ा ही जाना चाहिए अन्यथा आय में ईधन पड़ते रहने से विपत्ति हटेगी नहीं वरन् बढ़ती ही रहेगी।

प्रतिकूलताएं अपने लिए जिस हद तक हानिकर हैं, या हो सकती हैं, उसकी सतर्कता रखना आवश्यक है। बचाव पक्ष पर समय रहते ध्यान दिया और प्रबन्ध किया जाना चाहिए। अनिष्टों की ओर से आंखें बन्द कर लेना उचित नहीं। प्रतिकार की सामर्थ्य भी संचित करनी चाहिए और समयानुसार उसका नपा-तुला उपयोग करना चाहिए। इसके लिए सन्तुलित बुद्धि की आवश्यकता है। अन्यथा थोड़ी-सी कठिनाई एवं छोटी-सी प्रतिकूलता भी मानसिक उद्वेग का कारण बन सकती है। विक्षोभ के कारण गड़बड़ाया हुआ मस्तिष्क एक प्रकार से विक्षिप्त हो जाता है। उसके लिए सही निर्णय कर सकना तक सम्भव नहीं रहता।

सतर्कता और संघर्षशीलता के सहारे प्रतिकूलताओं से जितना निपटा जा सकता है, उतना ही कारगर एक और तरीका भी है- “उपेक्षा का।” अपनाना इसे भी जाना चाहिए। जो व्यक्ति या सम्बन्धी अनुकूल नहीं पड़ते, उन्हें एक सीमा तक ही समझाया-बुझाया जा सकता है। क्रोध या विरोध प्रकट करना भी एक सीमा तक ही उचित है। हर कोई अपनी मर्जी का मालिक है। दबाव से किसी को कहाँ तक बदला जा सकता है। फिर ऐसा भी हो सकता है, कि अपनी मान्यता में ही भूल हो। जिन्हें प्रतिकूल समझा जा रहा है, हो सकता है, कि वे अपनी जगह पर ठीक हों या भीतरी-बाहरी मजबूरियों से बाधित होकर वैसे आचरण कर रहे हों।

मतभेदों और विपदाओं से भरी हुई इस दुनिया में तालमेल बिठाकर चलना ही व्यावहारिक और सुविधाजनक है। इस आधार पर उपेक्षा भी एक बड़ा उपचार है। जिससे जितना सहयोग मिले, काम सधे, उतने से ही काम चलाऊ मान लेने पर उन मतभेदों की उपेक्षा की जा सकती है जो प्रत्यक्षतः कोई बड़ा विग्रह या अनर्थ उत्पन्न नहीं करते। प्रतिकूलताओं का निरन्तर चिन्तन करने और उन पर विक्षुब्ध रहने पर भी उनका निराकरण कहाँ होता है? इसलिए उचित यही है कि विक्षोभों में भी मनः सन्तुलन बनायें और अपनी सामर्थ्य उपयोगी कार्यों के लिए सुरक्षित रखें।


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