चेतन सत्ता के भिन्न-भिन्न आयाम

January 1985

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मानवी सत्ता में अंतर्निहित दिव्य शक्तियों का विभाजन छः वर्गों में किया गया है। इनमें से एक ऐसी है जो काय-कलेवर को स्थिर एवं गतिशील बनाये रहने में काम आती है। शेष पाँच ऐसी हैं, जिनको भौतिक जगत के लोक-लोकान्तरों के विविध प्रयोजनों में प्रयुक्त किया जाता है। इसलिए वर्गीकरण में कहीं पाँच का, कहीं छः का उल्लेख होता हो तो उसमें किसी भ्रम में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। गणना दोनों ही प्रकार से सही है।

कोशों के आधार पर जब गणना होती है तो पंचकोश कहे जाते हैं। अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमयकोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश। यह पाँच हैं। शरीर जिन तत्वों से बना है वे भी पाँच ही हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, आकाश। चेतना को प्राण कहते हैं। इनका वर्गीकरण भी पाँच में ही होता है। प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान। देवताओं की संख्या 33 कोटि या तैंतीस है। पर उनमें प्रख्यात पाँच ही हैं। ब्रह्म, विष्णु, महेश, गणेश और दुर्गा और भी कितने ही पंचक प्रसिद्ध हैं। पंचामृत, पंचगव्य, पंचरत्न, पंचांग आदि।

जहाँ छः की गणना है, वहाँ षट्चक्रों का उल्लेख है। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञाचक्र एवं सहस्रार। सहस्रार चेतना के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। शेष पाँच को विभूतियों के रत्न भाण्डागार माना जाता है। ऋद्धि सिद्धियों के स्रोत इन्हीं में हैं। पौराणिक गाथाओं में गणेश के उपरान्त दूसरे हैं- शनि देव। जिन्हें षडानन भी कहते हैं। षडानन अर्थात् छः मुख वाले। यह प्रकारान्तर से षट्चक्र ही है। पुराणों के अनुसार इनका भरण-पोषण छः कृतिकाओं (अग्नियों) ने मिल-जुलकर अत्यंत सतर्कता पूर्वक किया था। इन सबको मानवी चेतना का विभिन्न प्रयोजनों में प्रयुक्त होने वाला वर्गीकरण ही समझा जाना चाहिए।

एक दूसरे वैज्ञानिक विभाजन के अनुसार इन्हें लोक विशेष कहा गया है। लोकों के सम्बन्ध में एक पुरातन मान्यता ग्रह नक्षत्र स्तर के स्थान विशेष भी हो पर वह परिकल्पना ठीक नहीं बैठती। ग्रह नक्षत्रों की संख्या अरबों-खरबों है उनमें से देव, असुर आदि के- ऊपर या नीचे स्थित लोक किन्हें माना जाय? इस आधार पर संगति बिठाने से खगोल विज्ञान के अनुरूप कोई क्रम नहीं बैठता।

इस संदर्भ में थियोसाफी के आत्म विद्या विशारदों के अनुरूप की गई व्याख्या अधिक युक्ति संगत है। उस स्थापना में ब्रह्मांड और पिण्ड को तत्सम माना गया है। और चेतना के आयामों को लोक की संज्ञा दी है। सातवाँ परमात्मा का निवास स्थल है। छः में आत्मा का विस्तार है। इन छः लोकों को छः शरीर भी कहा गया है। (1) फिजीकल बाडी (2) ईथरिक डबल (3) मेण्टल बाडी (4) कॉजल बाडी (5) एस्ट्रल बाडी (6) कास्मिक बाडी।

जिस प्रकार भारतीय अध्यात्म में स्थूल, सूक्ष्म और कारण यह तीन शरीर मानें जाते हैं उसी प्रकार आधुनिक अध्यात्म विज्ञानियों ने उन्हें उपरोक्त छः शरीरों में विभाजित किया है। वे लोक शब्द में किसी ग्रह नक्षत्र जैसे स्थान विशेष की संगति नहीं बिठाते वरन् आत्म सत्ता को परिस्थिति विशेष गिनते हैं। जो व्यक्ति अपनी मान्यता, भावना, आकांक्षा, विचारणा के अनुरूप इनमें से जिस स्तर होता है उसे उसी लोक का निवासी कहा जाता है। स्थिति बदलती रहती है। इस आधार पर मनुष्य के आवरण, आयाम या लोक भी ऊँचे नीचे होते रहते है।

तात्पर्य यह कि तीन शरीर, पाँच कोश एवं छः लोक यह सभी चेतना के स्तर विशेष हैं। साधना के आधार पर- पूर्व संग्रहित संस्कारों से तथा दिव्य अनुदानों से इनकी स्थिति ऊँची-नीची होती रहती है। इन्हीं का विस्तार अगले पृष्ठों पर किया गया है।


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