नव सृजन के निमित्त समर्थ तंत्र की स्थापना

January 1985

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चेतना क्षेत्र की और प्रकृति क्षेत्र की वस्तुएँ तथा क्षमताएँ मिलकर ही व्यक्ति और ब्रह्मांड की गतिविधियों का सूत्र-संचालन कर रही हैं। बाजीगर की तरह वे ही कठपुतलियां नचाती और संसार में अनेकानेक कलाकारिताओं का, गतिविधियों का मनमोहक दृश्य खड़ा करती रहती हैं। मनुष्य का शरीर प्रकृति पदार्थों से और प्राण चेतना तरंगों से विनिर्मित हुआ है। इसलिए उसका इन सबसे प्रत्यक्ष और परोक्ष सम्बन्ध है। वह इनसे प्रभावित होता है साथ ही इन्हें प्रभावित भी करता है।

सामग्री सामने हो और निर्माण का शिल्प अभ्यास में आ गया हो तो उससे कितनी ही महत्वपूर्ण वस्तुएँ बन सकती हैं। सोना, अंगीठी और साँचे ठप्पे हाथ में हों तो कुशल स्वर्णकार अनेक प्रकार के आभूषण गढ़ सकता है। कुम्हार के पास गूंथी हुई मिट्टी, चाक तथा अवा हो विभिन्न प्रकार के बर्तनों, खिलौनों का ढेर लगा सकता है। कपड़ा कैंची, मशीन, सुई, धागा पास में होने पर दर्जी विभिन्न डिजाइनों के छोटे-बड़े कपड़े बना सकता है। यही बात दिव्य विभूतियों और शक्तियों के सम्बन्ध में भी है। नैष्ठिक साधन ने तपश्चर्या और योगाभ्यास द्वारा अपना व्यक्तित्व चुम्बकीय विलक्षणताओं से भर लिया हो तो आवश्यकतानुसार वह उत्पादन कर सकता है जिसे विलक्षण सिद्धि कहते हैं। यही युग साधना का मर्म है।

मनुष्य परमेश्वर तो नहीं है, पर उसके हाथ में न केवल पदार्थ उत्पन्न करने की वरन् जीवन्त प्राणी उत्पन्न करने की भी सामर्थ्य है। पशु पालक अभीष्ट नस्ल के दुधारू तथा बोझ ढोने वाले जानवर पैदा करते रहते हैं। मुर्गी, मछली पैदा करने के लिए तो सरकार मुफ्त में बीज बांटती है। लोग विवाह होते ही सन्तानोत्पादन में लगते हैं और कुछ ही वर्षों में घर आँगन बच्चों से भर देते हैं। शिल्पी, कलाकार, सैनिक, डाक्टर, इंजीनियर आदि विशेष योग्यताओं के व्यक्ति ढालने के लिए कितने ही कारखाने चलते हैं।

यहाँ सूक्ष्म जगत में, पुण्य करने वाले, सूक्ष्म प्रकृति के निष्णात पारंगतों के सम्बन्ध में चर्चा चल रही है कि उन्हें विशेषज्ञों द्वारा ढाला बनाया जा सकता है, या नहीं? उत्तर हाँ में ही देना पड़ेगा

प्रकृति के अन्तराल में काम करने वाले विलक्षण शक्तियों के साथ मानवीय विद्युत और ब्रह्मांडीय चेतना को गूँथ कर ऐसी सत्ताएँ खड़ी की जा सकती हैं। जो सूजन कर्ता की इच्छा तथा आवश्यकता के अनुसार अपनी प्रचण्ड क्षमता का परिचय दे सके और ऐसे काम कर सके जैसे कि निर्माता स्वयं भी नहीं कर सकता। लुहार मल्लयुद्ध में एक दो सामने वालों को ही चोट पहुँचा सकता है। पर उसके कारखाने में डाली गई बंदूकें एक दिन में ही सैकड़ों योद्धाओं का सफाया कर सकती हैं। यहाँ ऐसे ही विलक्षण सृजन की चर्चा तथा तैयारी हो रही है।

पौराणिक तथा ऐतिहासिक गाथाओं में ऐसे उत्पादन का अनेकानेक स्थलों पर चर्चा उल्लेख है। शिवजी का प्रमुख कार्यवाहक वीरभद्र था, किन्तु साथ में गण समुदाय की एक बड़ी सेना भी थी। यह उन्हीं का निजी सृजन था। दक्ष से कुपित होकर शिवजी ने अपनी जटा का एक बाल उखाड़ कर देखते-देखते वीरभद्र गण उत्पन्न कर दिये थे और उनने संकेत मात्र से महाबली दक्ष का मान मर्दन कर दिया था। नंदी भी उनके व्यक्तित्व के साथ ही सदा सर्वदा जुड़ा रहा।

रक्त बीज, आसुरी कर्तृत्व था। उसके रक्त की बूंद जहाँ भी गिरती थी, वहीं से एक नया असुर बनकर खड़ा हो जाता था। यह मध्यवर्ती उत्पादन समझा जा सकता है। उसके माता पिता का कोई अता पता नहीं।

विक्रमादित्य के साथ पाँच बेताल रहते थे और वे कठिन कार्य कर दिखाते थे जो विक्रमादित्य स्वयं भी नहीं कर पाते। वे पाँचों कब जन्मे, कब मरे ऐसा सामान्य प्राणियों जैसा उनका कोई इतिहास नहीं है। राजा विक्रम की जीवन यात्रा समाप्त होते ही वे सभी बेताल भी अंतर्ध्यान हो गये।

यक्ष, सूक्ष्म शरीरधारी मनुष्य ही होते हैं। महाभारत की यक्ष कथा प्रसिद्ध है। उसके सरोवर में पानी पीने से पाण्डव पत्थर हो गये थे। युधिष्ठिर ने उसका समाधान करके भाइयों को पुनर्जीवित कराया था। वह यक्ष उच्च भूमिका वाले प्रेत पितर स्तर के ही होते हैं। अनाचारी विद्वान जब मरते हैं तो ब्रह्म राक्षस हो जाते हैं। सामान्य प्रेत परिवार की तुलना में उनकी क्षमता और चतुरता कहीं अधिक बढ़ी चढ़ी होती है।

भवानी तन्त्र विज्ञान की अधिष्ठात्री है। उसका सामना कर सकने में कोई दुर्दान्त दैत्य भी समर्थ नहीं हुआ था। भवानी अकेली नहीं चलती थी भैरव और योगिनियों का पूरा परिवार उनके साथ रहता था। वह भी शिवजी के गणों की तरह ही थे। भैरवों और योगिनियों का विस्तार और संकोचन भवानी अपनी आवश्यकतानुसार करती रहती है। उनकी उपस्थिति तथा पराक्रम का तो वर्णन मिलता है। पर यह कहीं उल्लेख नहीं है कि उनमें से कितने कब, कहाँ उत्पन्न हुए और तिरोहित होते रहे। स्पष्ट है कि वह भवानी का निजी उत्पादन था। आवश्यकतानुसार यह परिकर घटता-बढ़ता रहता था।

सामान्य भूत प्रेतों की चर्चा होती रहती है। वे किसी के बनाये नहीं बनते। अपने ही उद्वेगों के कारण बवण्डर की तरह उठते और मन शान्त होते ही दूसरी दिशा में मुड़ जाते हैं।

ऋषियों, सिद्ध पुरुषों में भी यह सामर्थ्य देखी गई है कि वे अपने स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीर से काम करते रहते हैं। अदृश्य शरीर का प्रकटीकरण तथा उपयोग वे किन्हीं विशेष आवश्यकताओं के समय ही करते हैं।

इन दिनों विश्व विभीषिकाओं के कितने ही विनाशकारी घटाटोप उठ रहे हैं। वे अपना समाधान और निराकरण चाहते हैं। इसी प्रकार नव सृजन के अगणित अंकुर उगे तो हैं पर सिंचाई के अभाव में वे कुम्हलाते-मुरझाते और सूखते चले जा रहे हैं। इस संदर्भ में भी उपेक्षा बरतने की गुंजाइश नहीं है। लंका दमन और रामराज्य स्थापना जैसी समस्याएँ अधिक विकराल रूप में सामने हैं। उनके निमित्त सूक्ष्म शरीरधारी सत्ताओं का परिकर बन रहा है और मोर्चे सम्भालने के लिए कटिबद्ध हो रहा है तो यह उचित भी है और आवश्यक भी। यह परिकर कैसे, किस प्रकार अपनी सामर्थ्य का सुनियोजन करेगा यह गोपनीय पक्ष है। वीरभद्र, रक्तबीज, बेताल, यक्ष, भैरवी इत्यादि के प्रसंग पौराणिक होने के कारण अथवा किंवदंतियों में शुमार किए जाने के कारण, सम्भव है। बुद्धि जीवी वर्ग की स्वीकार्य न हो, पर वास्तविकता तो वास्तविकता है। नवनिर्माण अभीष्ट है तो वह होगा उसी सूक्ष्म धरातल पर। ऋषि सत्ता का यह दायित्व सदा से ही रहा है वह परोक्ष वातावरण निर्मित करे, एक तन्त्र ऐसा खड़ा करे जो संव्याप्त समस्याओं विभीषिकाओं से मानव जाति को त्राण दिला सके। इसी को अवतार प्रक्रिया के आश्वासन के रूप में भी समझा जा सकता है। पृष्ठभूमि में तो वही अदृश्य संचालन सत्ता सक्रिय रहती है, कठपुतली वह जिसे चाहे बना ले। मानवी सत्ता विराट ब्राह्मी सत्ता का बीज रूप होने के कारण सर्व सामर्थ्यवान है एवं वह सब में सक्षम है जिसकी आवश्यकता अब अनुभव की जा रही है।


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