साध्य, साधना और साधक

January 1985

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साध्य, साधना और साधक इन तीनों की संगति है। तीनों के समन्वय से एक पूरी बात बनती है।

साध्य ईश्वर है। ईश्वर अर्थात् सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय। मोक्ष की भी इसी में गिनती होती है। दुष्प्रवृत्तियां ही बंधन हैं। भव बन्धनों की चर्चा जहाँ होती है वहाँ उसका तात्पर्य कषाय-कल्मषों से है। कषाय अर्थात् पूर्व जन्मों के अभ्यस्त संस्कार, कल्मष अर्थात् प्रस्तुत ललक लिप्साओं को आकर्षण से किये हुए दुरित। इनसे छुटकारा पाने का नाम मोक्ष है।

यह मान्यता सही नहीं है कि जन्म मरण से छूट जाने का नाम मोक्ष है। जन्म, अभिवर्धन और मरण यह प्रकृति का नियम है। ईश्वर की सत्ता इस प्रकृति क्रम को इसी निमित्त बनाती है। जीव जन्तु, वृक्ष वनस्पति से लेकर मानव शरीर धारियों तक, प्रत्येक को इस चक्र में अनिवार्यतः भ्रमण करना पड़ता है। अवतारी महामानव भी बार-बार जन्म लेते और मरते हैं। अवतारों की संख्या अब दस या चौबीस हो चुकी है। इनमें से सभी को अपने-अपने ढंग से जन्म लेना और मरना पड़ा है। सृष्टि चक्र में जो भी बँधा है उसे उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन के क्रम में घूमना ही पड़ता है। सूक्ष्म शरीर धारियों को भी एक अवधि के लिए नियत उत्तरदायित्व संभालने के लिए भेजा जाता है उसे पूरा करने के उपरांत वे भी वापस लौट जाते हैं और आवश्यकतानुसार उसी क्रम की पुनरावृत्ति करते रहते हैं। जब अवतारों और देवताओं को आवागमन की प्रक्रिया पूर्ण करनी पड़ती है, तो भक्तजनों के लिए ही उसका अपवाद कैसे हो सकता है।

मोक्ष का तात्पर्य कषाय-कल्मषों से छुटकारा पाना है। इसी को ईश्वर की प्राप्ति कहते हैं। यह इस जीवन की सर्वोपरि परिस्थिति है, जिसमें निरन्तर सत् का, चित का और आनन्द का अनुभव होता रहता है। ईश्वर का स्वरूप भक्त के लिए सच्चिदानन्द स्वरूप ही है। इसी में उसे कषाय-कल्मषों से छुटकारा मिलता है। कर्म बन्धन से बलात् बंधकर जन्म-मरण के चक्र में फँसना बन्दी की तरह कष्टकारक भी हो सकती है। पर जो ईश्वर की इच्छा से उसकी व्यवस्था संभालने के लिए जेलर की तरह आता जाता रहता है उसके लिए, ईश्वर के इस स्वर्गोपम उद्यान का आनन्द लेने के लिए बार-बार आने-जाने का अवसर प्राप्त करना सुख भी है और सौभाग्य भरा भी।

ईश्वर की किसी मनुष्य आकृति के प्राणी के रूप में कल्पना मिथ्या है। इसी प्रकार उसका कोई नगर गाँव लोक होना भी सम्भव नहीं है। जो सर्वव्यापी है वह एक देशी नहीं हो सकता। जो शक्ति रूप है वह किसी गाँव देश में रहे ऐसी मान्यता भी विसंगत है। ईश्वर एक व्यवस्था है। भावनाशीलों के लिए उसकी भावना के अनुरूप भी। इसलिए मरने के बाद मोक्ष मिलने की कल्पना निरर्थक है उसे भावनाशील जीवित स्थिति में भी प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर प्राप्ति के लिए मरने तक का इन्तजार करना व्यर्थ है। सगुण भक्तों ने भी जीवित स्थिति में भगवान को पाया है। निराकार वादियों के लिए तो वह और भी सरल है-

‘‘दिल के आइने में है तस्वीरें यार-- जब जरा गरदन झुकाई देख ली।’’

अपना अन्तरात्मा ही शुद्ध होने की स्थिति में परमात्मा हो जाता है। उससे सबसे निकट देखना हो सबसे सरलता पूर्वक देखना हो तो अपने शुद्ध अन्तःकरण में ही उसकी झाँकी करनी चाहिए।

साधना में साध्य एक ही है- ईश्वर प्राप्ति। इसी को मोक्ष कहना हो तो भी कुछ हर्ज नहीं। इसे प्राप्त करते ही साधक अज्ञान, अभाव और अशक्ति जन्म समस्त दुःख दरिद्रों से छूट जाता है। सच्चिदानन्द के साथ एकीभूत हो जाता है। अपनी और ईश्वर की स्थिति में भिन्नता नहीं रहती।

साध्य को समझ लेने के बाद साधना का स्वरूप समझने की आवश्यकता है। जो साधना करने लगे, उसमें रस आने लगे समझना चाहिए कि वह साधक हो गया। जो साधक है वही सिद्ध है। ईश्वर के संपर्क में आने पर उसके गुण भी अनायास ही आ जाते हैं। अग्नि के साथ ईंधन का संपर्क सुदृढ़ हो जाने पर जो गुण आ गये हैं वही ईंधन में भी पैदा हो जाते हैं। ईश्वर सिद्धियों का भण्डार है उसके साथ संपर्क साधने वाला साधक सिद्ध ही होकर रहता है।

साधना के लिए दो कार्य करने होते हैं एक योग दूसरा तप। योग का अर्थ है अपने दृष्टिकोण की उत्कृष्टता को साथ जोड़ देना। तप का अर्थ है ललक लिप्साओं की अवाँछनीय आदतों को बलपूर्वक खींच-घसीटकर सीधे रास्ते पर लाना।

मनुष्य का चिन्तन शरीराभ्यास के साथ बुरी तरह गुँथ जाता है। अपने को निरन्तर शरीर समझता है। शरीरगत सुख ही उसके सुख और शरीरगत दुःख ही उसके दुःख बन जाते हैं। इन्द्रियजन्य वासनाएं और मनोगत तृष्णा से इन्हीं दो की पूर्ति में शरीर लगा रहता है। इन दो के अतिरिक्त तीसरी है- अहंता। सारे सुखों का केन्द्र इन तीन में केन्द्रीभूत रहता है। इन्हीं की पूर्ति के लिए निरन्तर सोचने और करने की क्रिया चलती रहती है। आत्मा सूझ ही नहीं पड़ती। शरीर के भीतर जो है वह सूझता नहीं उसकी आवश्यकताओं और इच्छाओं की ओर ध्यान ही नहीं जाता। दृष्टिकोण के इस पृथक्करण को योग कहते हैं। योगी को अपनी दृष्टि शरीर से हटाकर आत्मा के साथ जोड़नी पड़ती है। एक ओर से खींचकर दूसरी ओर जोड़ने का नाम योग है। यह चिन्तन क्षेत्र को उलट देता है। इसके लिए आत्मचिन्तन में निरति पकानी पड़ती है। शरीर और आत्मा का भेद समझना पड़ता है। शरीरजन्य इन्द्रियाँ, मनोजन्य तृष्णाएं कितनी आकर्षक और कितनी अभ्यस्त होती हैं? उनसे मन को विरत करके यथार्थता को समझना यही आत्मज्ञान है, आत्मज्ञान होने पर तीसरा नेत्र खुल जाता है और निरर्थक के लिए मरते-खपते रहने, सार्थक की ओर से मुँह मोड़े रहने का अन्तर समझ में आता है। इसी का नाम योग है। इस दृष्टिकोण के परिवर्तन को ही अन्तर का कायाकल्प कहते हैं। योगी की स्थिति संसारी से बिलकुल विपरीत होती है। योगी को आत्मा का हित ही अपेक्षित होता है जबकि भोगी को वासना, तृष्णा और अहंता के अतिरिक्त चौथा कुछ सूझता ही नहीं। साधना का वास्तविक अर्थ योग साधना है। योग का अर्थ है भोग से विरत्ति। चिन्तन को एक ओर से खींच कर दूसरी ओर नियोजित करने का नाम योग है। इसमें आंखें मूँद कर अंतर्मुखी होना पड़ता है और जो भीतर है, उसके कल्याण की साधना करनी पड़ती है।

तप योग का दूसरा पक्ष है। विचार कर्म में समाविष्ट हो जाते हैं। वे आदतों का रूप धारण कर लेते हैं और अभ्यास बनकर कार्यान्वित होने लगते हैं। कामुकता के विचार मात्र मस्तिष्क में ही नहीं घूमते। वरन् यौनाचार बनकर क्रियान्वित भी होते हैं। मर्यादा न रह कर मर्यादाओं का उल्लंघन करते हैं। व्यभिचार के रूप में परिणति होने लगता है। लोभ मात्र धन इच्छा तक ही सीमित नहीं रहता। वरन् चोरी बेईमानी, छल, प्रपंच आदि के रूप में जैसे बने वैसे धन संग्रह में लग जाता है। आरम्भ में मन कुछ हिचकिचाता भी है पीछे अभ्यास में आई हुई आदतें उसे स्वाभाविक मान लेती है। अहंकार प्रदर्शन के लिए श्रृंगार, ठाट-बाट में ढेरों पैसा खर्च होने लगा है और अपने को दूसरों से बड़ा सिद्ध करने के लिए आतंकवादी कार्य किये बिना चैन नहीं पड़ता। नीति, अनीति का विचार मन में से चला जाता है और अनीति करते हुए अपनी चतुरता एवं सफलता मालूम पड़ने लगती है।

इन आदतों को सहज ही नहीं छुड़ाया जा सकता है। अपने आप से लड़ना पड़ता है। कुटेवों को निरस्त करने के लिए अपने साथ सख्ती बरतनी पड़ती है। सख्ती हर किसी को अखरती है इसलिए अभ्यास डालने के लिए हर इन्द्रिय को व्रतशील बनाना पड़ता है। स्वादेंद्रियों को संयम में लाने के लिए व्रत, आधा वस्त्र, अस्वाद का एक क्रम बनाकर तपश्चर्या करनी पड़ती है। ब्रह्मचर्य में कड़ाई बरतनी पड़ती है। दानशीलता अपनानी होती है ताकि लोभ पर अंकुश लगे। चिंतन को स्वाध्यायशील बनाना होता है ताकि उतना समय शरीराभ्यास की विडम्बनाओं में से कटे। सर्दी-गर्मी सहन करने के अभ्यास डालने पड़ते हैं ताकि त्वचा को सहनशीलता की आदत पड़े। अभाव-ग्रस्तता गरीबी का चिन्ह माना जाता है, पर जब उसे व्रतशीलता में सम्मिलित किया जाता है। तो वर्ग गौरव का निमित्तिकरण बन जाता है। सादा जीवन उच्च विचार की नीति अपनाने में आदर्शवादिता चरितार्थ होती है।

विभिन्न साधनाओं में विभिन्न व्रत नियमों का समावेश है। कुछ नियम थोड़े समय के लिए पालन किये जाते हैं। कुछ को सदा के लिए अपना लिया जाता है। जैन धर्म के साधु साध्वी कठोर नियमों का व्रतधारण करते हैं और उन्हें आजीवन निबाहते हैं। हिमालय कन्दराओं में निवास करना, कन्दमूल फल के आहार पर गुजारा करना, भूमि पर सोना जैसे नियम कितने ही साधु पालन करते हैं। इन तपश्चर्याओं के पीछे वही उद्देश्य छिपा हुआ है कि विलासिता की आदतों को निरस्त किया जा सके और सादा जीवन उच्च विचार की साधना को ऊँचे स्तर तक-लम्बे समय तक निबाहा जा सके। यह शरीराभ्यास की लिप्साओं से सम्बन्धित पड़ी हुई आदतों को धीरे-धीरे अथवा एक ही झटके में समाप्त किया जा सके। शरीर के साथ सख्ती बरतना-मन के ऊपर कठोर अंकुश लगाना, तपश्चर्या का उद्देश्य है। यह योग का पूरक है। मन में शुभ चिन्तन और व्यवहार में कठोर संयम की दोनों ही व्यवस्था बना लेने से मन की उच्छृंखलता काबू में आती है।

साध्य निश्चित हो जाने-साधना निरत रहने के साथ ही व्यक्ति अपने आपको साधक अनुभव करता है और कहता भी है। यह प्रतिष्ठा का प्रश्न है। प्रकट या अप्रकट घोषणा करने के उपरान्त व्यक्ति को अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान रहता है कि हमने अपने बारे में जो घोषणा की है उसे निभाया भी जाय। उसे तोड़ने पर अप्रतिष्ठा होगी। मनुष्य का सम्मान बहुमूल्य है। उसे भले आदमी गिरने बिगड़ने नहीं देते। साधक होना छोटी बात नहीं बड़ी बात है। हम साधक हैं, यह घोषित करना ऐसा ही है जैसे अपने का सरपंच, न्यायाधीश,महामहोपाध्याय आदि के रूप में जनता को परिचित कराना। उसके व्रतों को पालना ही चाहिए तोड़ने में उपहास होता है। प्रतिष्ठित व्यक्ति अपना उपहास नहीं होने देते।

साध्य कौन?, ईश्वर- साधना किस प्रकार? तप और योग द्वारा। साधक बनना याने अपने को प्रतिष्ठित व्रतशील घोषित करके जिसके सम्मान की रक्षा होनी ही चाहिए। यह तत्त्वदर्शन जिसके समझ में आ जाए उसका जीवन सार्थक जो जाता है।


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