अभिशप्त सम्पदा को ढूँढ़ निकालने के असफल प्रयास

January 1985

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रस्तुत एक शताब्दी में दो महायुद्ध लड़े गये हैं और उनमें युद्ध कला का आमूल-चूल परिवर्तन हो गया है। पुराने जमाने में राजा या सेनापति आगे चलता था। अपने पराक्रम के जौहर दिखाता था और पीछे चलने वाले सैनिक अपनी वफादारी साबित करते हुए पीछे चलते थे। अब सेनापति किसी गुप्त स्थान पर बैठा हुआ नक्शा बनाता रहता है। गोला बारूद के भण्डार पीछे रहते हैं और जरूरत के मुताबिक सप्लाई होते रहते हैं। पुराने जमाने में रास्ते में पड़ने वाले गाँवों को लूटकर राशन, नकदी और दास, दासी पकड़े जाते थे और उसी के सहारे आगे का प्रयाण चलता था। छोटी कोठियां, किले लूटते हुए बड़े राज पर चढ़ाई की जाती थी। आज की रण-नीति अर्थ प्रधान है। हर चीज बाजार से खरीदनी पड़ती है और उसका मूल्य नोट नहीं सोना होता है। इसलिए दोनों पक्ष अपने पैर मजबूत करने के लिए जहाँ से भी उपलब्ध हो- जैसे भी हाथ लगे सोना एकत्रित करने का प्रयत्न करते हैं। मित्र पक्ष अपनी बदनामी नहीं उड़ने देते पर शत्रु को जो भी ऐसे स्त्रोत हाथ लगते हैं उनका अच्छा खासा विज्ञापन करते हैं।

हिटलर ने हार के दिनों या जीत के दिनों प्रचुर परिमाण में सोने के भंडार भरे थे। और सुरक्षा की दृष्टि से उन्हें नितान्त गोपनीय स्थानों पर रखा था। जीत के दिनों इसलिए कि अस्त-व्यस्त हुए अपने देश या अधीनस्थ देशों को अपने पैरों खड़ा करने के लिए वह सोना काम आये। हारने की स्थिति में जमा इसलिए किया जाता था कि पीछे हट कोई और मोर्चा खोलना पड़े तो पूँजी की आवश्यकता जुटाई जा सके। यदि पूर्णतया हार ही हार होती है तो प्रमुख लोग अपने और अपने परिवार के गुजारे के लिए एक बड़ी राशि सुरक्षित छोड़ रखें।

उपलब्ध विवरणों से हिटलर द्वारा छिपाकर रखे हुए सोने की कुछ जानकारी हाथ लगी है। पर वह है इतनी गोपनीय कि विजेता राष्ट्र उसका पता लगाकर लाभ न ले सके। जर्मन पराजय के बाद युद्ध बन्दी पकड़ने के साथ साथ सर्वाधिक प्रयत्न इसी बात का हुआ कि छिपाया हुआ सोना कहाँ है? ओर उसे किस प्रकार हस्तगत किया जा सकता है। जो नहीं मिल सका उसकी जानकारियाँ प्रकाश में लाई गई हैं।

जर्मनी के मूर्धन्य अधिकारियों की पराजय के बाद जो पकड़ हुई उससे कुछेक सूत्र ऐसे मिले हैं जिनमें छिपाये हुए सोने की कुछ जानकारी मिलती है।

-स्विट्जरलैंड, स्वीडन और पुर्तगाल में गुप्त तहखाने बनाकर उन में छिपाया हुआ सोना 130 टन, जर्मनी के बैंकों से समेटा गया सोना 57 टन, उच्च अधिकारी जिस सोने को मिलजुल कर पचा गये 225 टन। आस्ट्रिया की कई झीलों में डुबाया हुआ सोना 500 टन। अपने भण्डार में 70 टन। मोडसी झील में डुबाया हुआ सोना 400 टन। उत्तरी आस्ट्रिया के गवर्नर की निजी जानकारी पर छोड़ा गया सोना 150 टन। निवेसु जैन भण्डार का सोना 80 टन। त्क्रालेगा सागर में डुबाया हुआ सोना 200 टन। यहूदियों से संग्रह किया गया सोना 611 टन।

यह जानकारी उन सूत्रों के सहारे मिली है जो नाजी गुप्तचरों के मूर्धन्य लोगों के हिटलर की कड़ी जानकारी में रखे गये हैं। ऐसे 14 स्थानों में जितना निकल सकता था उतना निकाला भी गया है। बाकी स्थानों की खोज जारी रखी गई है और उसमें से यदा-कदा कुछ हाथ लगता भी रहता है। बाकी स्थान ऐसे हैं जिनके स्थानों का अनुमान भी नहीं है। क्योंकि या तो उन्हें रखने वाले मर गये या जितना उनके हाथ पड़ा उसे लेकर गायब हो गये। अनुमान है कि जितने सूत्र हाथ लगे हैं उससे भी अधिक अविज्ञात है। अभिशप्त होने के कारण यह कभी हाथ लगेगा नहीं।

किसी समय अमेरिका में डाकुओं का बड़ा आतंक था। एक डाकू दल ने अपार सम्पत्ति लूटकर एक लोहे के घड़े में भरकर मिसीसीपी नदी के डेल्टा के पास जमीन में दबा दिया। इस भूमि पर आजकल एक बड़ा कृषि फार्म है, जिसका स्वामी ‘रीडर वोव’ है। इस भूमि को ‘रीडर वोव’ के पूर्वजों ने धन के लालच में खरीद लिया था।

‘रीडर वोव’ के पूर्वजों ने वहाँ एक मकान भी बनवा लिया। परन्तु इस सात फुट चौड़े, चार फुट ऊँचे घड़े को निकालने के लिए उनके सारे प्रयास विफल हो गये। कुछ ऐसी विचित्र घटनाएँ घटीं कि उन्हें वह स्थान ही छोड़ देना पड़ा।

‘रीडर वोव’ ने पूर्वजों द्वारा छोड़े गये नक्शों के आधार पर इस खजाने को निकालने का प्रयास किया। ‘रीडर वोव’ कीचड़ निकालते-निकालते घड़े के पास तक पहुँच गये। परन्तु ज्यों-ज्यों घड़े के आस-पास से कीचड़ निकालते थे, घड़ा अन्दर धँसता जाता था। ‘रीडर वोव’ स्वयं इस पूरी तरह कीचड़ में फँस गये कि उन्होंने उस घड़े को निकालने का विचार ही त्याग दिया।

सन् 1939 में ‘बूलेक व स्टिक्लोन’ ने कुशल इंजीनियरों द्वारा बुलडोजरों तथा क्रेनों से कीचड़ निकालने की मशीन आदि की सहायता से इस घड़े को निकालने का प्रयत्न किया। घड़े का मुँह क्रेन में फँसा दिया गया। ठीक उसी समय-बिजली की भयानक गर्जना के साथ इतनी तेज अप्रत्याशित वर्षा शुरू हो गई कि वहाँ ठहरना असम्भव हो गया। इसके बाद इस अभिशप्त खजाने को ढूंढ़ने के प्रयास बन्द कर दिए गए।

कहते हैं कि मुसोलिनी ने भी मृत्यू के बाद भयंकर प्रेत पिचास का रूप धारण कर लिया। वह अपने खजाने का लाभ किसी और को नहीं लेने देना चाहता था, खुद तो अशरीरी होने से उसका लाभ उठा ही क्या सकता था। कहा जाता है कि उसी ने प्रेत रूप में खुद खजाना छिपाया ओर खुद ही रखवाली की। जिनने उसका पता लगाने की कोशिश की उनके प्राण लेकर छोड़े, इतना ही नहीं जिनके प्रति उसके मन में प्रतिहिंसा की आग धधक रही थी, उन्हें भी उसने मार कर ही चैन लिया।

हिटलर की भी सदैव यही नीति रही कि जिस देश को जीता, उसके बैंकों तथा व्यवसायिक संस्थाओं को खाली करा लिए। जब हारने लगा तो भी उसने यही किया कि जो क्षेत्र छोड़ने पड़ेंगे उन्हें पूरी तरह खोखला करने के बाद खाली किया जाय। यह कठोरता प्रजाजनों के साथ भी बरती गई। सम्पत्तिवानों से सम्पत्ति आपस में बेचकर उसके बदले का सोना नाजियों के हवाले करने को कहा गया। हिसाब तो सही रहता नहीं था इसलिए बीच के लोग लूटपाट भी बहुत करते थे। इस प्रकार जानकारी वाली सोने की तुलना में गैर जानकारी वाला और भी अधिक रहता है। इसे खोज निकालना विजेताओं के लिए भी सरल नहीं पड़ता था। नाजियों के लूटे सोने में से अधिकाँश को अभी तक खोजा नहीं जा सका है।

भारतवर्ष में भी छोटे-बड़े खजानों की खोज अभी भी होती रहती है। यह कहाँ से आये, किसने गाड़े, कहाँ से लाये? इसका अनुमान हिटलर की एकतंत्री व्यवस्था के साथ तालमेल बिठाकर अनुमान लगाया जा सकता है। विजेता इसलिए जमा करते थे कि भविष्य में उसके सहारे राज्य विस्तार कर सकें। पराजित होने की सम्भावना देखकर भी खजाने इसलिए गाड़े जाते थे कि अवसर मिलेगा तो उसे निकालकर अपनी कठिनाई का हल निकालेंगे।

खजाने एवं बहुमूल्य सम्पदा जो अनीति अनाचार की कमाई होती है कभी भी किसी व्यक्ति विशेष के हाथ नहीं लगते। सृष्टि की नियम व्यवस्था का उल्लंघन कोई कर नहीं सकता। छप्पर फाड़कर सोना बरसने व गढ़ा खुदा खजाने मिलने की कथाएँ तो बालकों के एडवेंचर साहित्य की उपज भर हैं। संपदा इस तरह कुपात्रों को प्राप्त होने लगे तो श्रम से उपलब्धि का सिद्धान्त ही समाप्त हो जाएगा। इस तथ्य को भली-भांति समझ लिया जाना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118