मुख मार्ग से निकलने वाले शब्दों को वाणी कहते हैं। विचारों का आदान-प्रदान इसी के माध्यम से होता है। एक-दूसरे के सामने अपनी अभिव्यक्तियों का प्रकटीकरण इसी माध्यम से करते हैं। ज्ञान का प्रमुख स्त्रोत इसी को बताया गया है। यों संकेतों के सहारे भी थोड़ा बहुत काम चल जाता है। इस प्रकार साहित्य स्वाध्याय से ज्ञान का संकल्प नेत्र माध्यम से भी संभव है। पर प्रथम आधार वाणी ही है। उसके द्वारा लिपि भाषा, शब्द व्याकरण आदि का प्रथम ज्ञान वाणी से ही करना पड़ता है।
कहने-सुनने के पीछे प्रयोजन भी होते हैं। कई बार विनोद, व्यंग, उपहास के लिए निरर्थक भी बहुत कुछ बोला जाता है। जिह्वा का उपयोग निरन्तर करते रहने पर भी उसकी समग्र शक्ति में कोई-कोई ही परिचित होते हैं। जो परिचित होते हैं वे उसका बहुमूल्य रत्न जैसा उपयोग करते हैं। जो अपरिचित होते हैं वे इस भांडागार को ऐसे ही निरर्थक लुटाते गँवाते रहते हैं।
बोलना सरल है। वार्तालाप द्रुतगति से होता रहता है। उसमें कुछ लगता नहीं दीखता। पर सच तो यह है कि उस माध्यम से सामर्थ्य का बहुमूल्य श्रोत खाली होता रहता है। यों हाथ-पैर चलने में थकान आती है, पर जीभ चलने में वैसा भी कुछ लगता नहीं दीखता।
वाणी का एक प्रयोग उथल भर है, जो कंठ, होठ, तालु, दन्त के सहयोग से शब्दों की, भाषणों की झड़ी लगाता रहता है पर इसके पीछे जो कुछ है, वह जानने ही योग्य है।
वाणी के दो विभाग हैं। एक वह जिसे जिह्वा की सहायता से मनुष्य बोलता रहता है, दूसरा वह है जिसके माध्यम से देवता बोलते हैं।
श्रुति वचन है-
अपक्रायन् पौरुषेदनाद् वृणानौद्वप वचः।
एक से मनुष्य बोलते रहते हैं और अपना मन हलका करते रहते हैं। दूसरी वाणी देवताओं की है जिसके माध्यम से दिव्य अनुदान लिये और दिये जाते हैं।
इस महाशक्ति को आगे चलकर चार भागों में विभक्त कहा गया है-
चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्णह्मणा ये मनीषणः। गुहात्रीणि निहिता नैंगयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या बदानीः।
मनीषी जानते हैं कि वाणी के चार विभेद हैं। इनमें से तीन रहस्यमय गुफा में छिपे हैं और एक को मनुष्य वार्तालाप में बोलते रहे हैं।
बैखरी वार्तालाप में बोली जाती है। यह मनुष्यों की है। देवताओं की तीन वाणियाँ हैं जो रहस्यमय गुफा में छिपी रहती हैं। यह तीन हैं मध्यमा, परा और पश्यन्ति। यह बोली नहीं जाती किन्तु देवताओं द्वारा बोली और प्रकट की जाती हैं। इनमें शब्दोच्चार तो नहीं होता किन्तु शक्तियों का भाण्डागार छिपा रहता है। जो उन्हें ग्रहण करते हैं वे धन्य हो जाते हैं।
इन तीन चार वाणियों से चार वेद बने हैं। इस ब्रह्मांड की संचालन व्यवस्था में चार ऋषि काम करते हैं। शतपथ ब्राह्मण में उनके नाम वसु, रुद्र, आदित्य और इन्द्र कहे जाते हैं। रहस्य यही तीन वाणियों का मार्ग जानना हो तो उसकी व्याख्या चारों वेदों की ऋचाओं में और देवताओं के साथ जुड़ी हुई विभूतियों में खोजनी चाहिए। जो देव वाणी का मर्म समझता है विभूतियाँ उसके सम्मुख अपने नग्न रूप में प्रकट कर देती हैं।
मध्यमा मुखाकृति, भाव भंगिमा, चेष्टा एवं मुद्रा के साथ प्रकट होती है। उसमें मनोभावों का पुट रहता है। मन निग्रहित या विकृत जिस भी स्तर का होगा उसी स्तर की तरंगें निस्सृत होंगी। सम्बद्ध मनुष्य उसमें प्रभावित होते हैं। बैखरी वाणी से चाहे कुछ भी क्यों न कहा जाता रहें पर एक मन दूसरे के मन को पढ़ लेता है। मौन बैठे रहने पर भी सामने वाले व्यक्ति के लिये जो भी सोचा गया है वह भाव तरंगें अनायास ही उठती और दूसरे को प्रभावित करती रहेंगी।
परावाणी प्राण से निकलती है और समीपवर्ती सारे वातावरण में गूंजती है। गुम्बज की आवाज जिस प्रकार गूंजने लगती है उसी प्रकार एक का प्राण दूसरे प्राणों में स्पन्दन उत्पन्न करता है। ऋषियों के आश्रम में गाय, सिंह एक घाट पर पानी पीते थे। जितने दायरे में यह प्राण गुंजन रहता है उतने में प्राणियों के बीच अहिंसा वृत्ति और प्रेम भाव बना रहता है। दुष्ट प्राण भी यदि जागृत कर रखा है तो दुर्व्यसनी, व्यभिचारी लोग अपने समीपवर्ती लोगों को बिना कुछ कहे-सुने ही उस प्रकार की वृत्ति का संचार करते हैं। सन्त सज्जन भले ही वाणी से प्रवचन न करें, पर उनकी अन्तरात्मा अपनी भावनाओं, मान्यताओं, आकाँक्षाओं को क्षेत्रवर्ती लोगों के अन्त करण तक पहुँचा देती हैं। कितने ही प्राणवान व्यक्ति मौन रहते हैं। उपदेश आदि नहीं करते पर उनके शरीर की विद्युत शक्ति दूसरों तक अपनी विद्युत तरंगों को फैला देती है। इनका स्पर्श करने मात्र से लोग प्रभाव ग्रहण करते हैं। बिना स्पर्श किये भी वातावरण में ऐसी ऊर्जा का संचार होता है यह देव वाणी है जो एक से अनेकों तक पहुँचती है। अपने समान विचार और स्वभाव वाली परतों पर यह प्रभाव निश्चित रूप से पड़ता है। प्रचार माध्यमों में तो कोई आदमी सीमित क्षेत्र में ही अपनी समझाने, बुझाने की समर्थ, तर्क प्रमाण के आधार पर ही प्रभाव छोड़ सकता है। पर परावाणी के माध्यम से असंख्य लोगों को बिना कुछ कहे-सुने ही सुधार सकता है।
पश्यन्ति वाणी आत्मा से निस्सृत होती है और आत्माओं को अपने ढांचे में ढालती चली जाती है। असुरों ने किसी जमाने में पश्यन्ति वाणी के प्रभाव से समूचे लंका जैसे प्रदेश के सभी निवासियों को असुर स्वभाव में ढाल दिया था। इसलिए कोई विद्यालय उन्हें नहीं बनाना पड़ा था। पश्यन्ति वाणी से सम्पन्न तपस्वी समय को बदलने में असाधारण सफलता प्राप्त करते हैं। अरविन्द, महर्षि रमण जैसे योगियों ने सत्याग्रह आंदोलन के समय उस स्तर की अनेकों उच्चस्तरीय आत्माएं विनिर्मित कर दी थीं। रामराज्य की स्थापना के समय ऋषियों का असाधारण योगदान रहा था। लंकादमन में राम रावण युद्ध की भूमिका काम दे गई थी, किन्तु जब समूची प्रजा का धर्मात्मा बनाने का प्रसंग आया तो उस प्रयोजनों के लिए ऋषियों ने पश्यन्तिवाणी के विस्तार का महाअनुष्ठान सम्पन्न किया था। अश्वमेध यज्ञ जैसे प्रयोजनों से वह कार्य सम्पन्न हुआ।
शेष तीन वाणियाँ, मन, प्राण और आत्मा से निस्तृत होती हैं। उन्हीं गुफाओं में वे छिपी रहती हैं। इसलिए उन्हें सशक्त बनाने के लिए उनके स्थानों को योगाभ्यास एवं तपश्चर्या के माध्यम से प्रखर बनाना पड़ता है। ऐसे साधकों को बैखरी वाणी स्तर विशेष रूप से संयम करना पड़ता है। अन्यथा इस मार्ग में शक्तियों का क्षरण होने लगने से शेष तीन देववाणियों का संशोधन और अभिवर्धन जैसा चाहिए वैसा नहीं हो पाता।
शाप और वरदान से सम्बन्धित अनेकों विभूतियाँ जब चमत्कारी प्रतिफल प्रस्तुत कर रही हों तो समझना चाहिए कि यह परा और पश्यन्ति की साधना का सत्परिणाम है। यह वाणियाँ मनुष्य का चिन्तन, चरित्र और व्यवहार शुद्ध होने से ही निखरती हैं। व्यक्तित्व जितना मजा हुआ होगा। साधना द्वारा कषाय-कल्मषों का जितना अधिक निराकरण हो चुका होगा, उतनी ही यह वाणियाँ तेजस्वी होती चली जाएंगी।
जब आयुष्य मौन हो जाता है तब देवता बोलते हैं। देवता ऋचाओं की भाषा में बोलते हैं। उसके उच्चारण को मन्त्र कहते हैं। मन्त्र सिद्धि के लिए जो साधना की जाती है उसे तीन देववाणियों को प्रखर करने की साधना ही समझना चाहिए।