घ्राणेन्द्रियों का महत्व भी कम नहीं

January 1985

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ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से ही मनुष्य ने वे उपलब्धियाँ हस्तगत की हैं, जो अन्यान्य जीवधारियों को प्राप्त नहीं हैं। मानवी मस्तिष्क रूपी ऊर्जा नाभिक के चारों ओर ही वे सारे क्रिया-कलाप होते दिखाई पड़ते हैं जिन्हें महत्वपूर्ण माना जाता है। इनमें भी आंखों व कानों को अधिक महत्ता प्राप्त है। दैनन्दिन जीवन में, सीखने, पारस्परिक व्यवहार में जिन ज्ञानेंद्रियों का उपयोग होता है, उन्हें महत्व मिलना स्वाभाविक है। घ्राणेंद्रियों को अभी तक गौण माना जाता रहा है, लेकिन अब वैज्ञानिक यह मानने लगे हैं कि घ्राण एवं स्वाद सम्बन्धी ज्ञान तन्तु भी मस्तिष्कीय विकास हेतु उतने ही उत्तरदायी हैं जितने कि आँख व कान। जैसे वाक् शक्ति व कान परस्पर सम्बन्धित हैं, वैसे ही गन्ध सम्बन्धी ज्ञान तन्तु एवं स्वादेंद्रियों के स्नायु तन्त्र का भी परस्पर आपस में सम्बन्ध है। जो बहरे होते हैं, वे बोलना नहीं सीख पाते, उसी प्रकार जिनकी गन्ध सामर्थ्य चली जाती है, उनकी स्वादेंद्रियां भी प्रभावित होती हैं।

अभी तक तो यही माना जाता रहा है कि गन्ध सामर्थ्य के होने न होने से कोई अन्तर नहीं पड़ता किन्तु अब मस्तिष्कीय विकास पर शोध करने वाले जैव रसायन विदों एवं व्यवहार विज्ञानियों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि गन्ध शक्ति मानवी मस्तिष्क के व्यवहार एवं चिन्तन सम्बन्धी दोनों ही पक्षों के विकास के लिए उत्तरदायी है। पूल्सविले मेरी लैण्ड (यू॰ एस॰ ए॰) की ‘‘ब्रेन इवॉल्युशन एण्ड बिहेवियर’’ विषय पर कार्यरत प्रयोगशाला के प्रमुख वैज्ञानिक डा॰ पाल मैक्लिन ने यह निष्कर्ष निकाला है कि मस्तिष्क की सबसे भीतरी परत को, जिसे एनिमल ब्रेन, प्रिमीटिव ब्रेन (आदिम-पुरातन मस्तिष्क) कहकर नकारा जाता रहा है, गन्ध शक्ति से तो सम्बन्धित है ही, व्यवहार विकास सम्बन्धी अनेकानेक पक्षों के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है।

नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ मेण्टल हैल्थ, जिसके प्रावधान में यह कार्य किया जा रहा, मूलतः आज मनुष्य की बढ़ती हिंसक वृत्ति, तनाव, बेचैनी, आवेश, आतुरता एवं मास हिस्टीरिया जैसे मनोविकारों के मूल कारण की शोध कर रहा है एवं यह निष्कर्ष निकाला है कि गन्ध के माध्यम से इन केंद्रों पर शामक प्रभाव डालकर मनुष्य की वृत्ति को, यहाँ तक कि व्यक्तित्व को आमूल चूल बदला जाना सम्भव है। डा॰ पॉल मैक्लिन के अनुसार मस्तिष्क के तीन भाग प्रमुख माने जा सकते हैं। सबसे भीतरी परत है रैप्टीलियन या एनिमल ब्रेन जिससे घ्राण तन्तु जुड़े होते हैं। इसमें आलफैक्टरी स्ट्राएटम, कार्पस स्ट्राएटम (काडेट न्यूकलियस एवं पुटामेन) तथा ग्लोब पैली उस जैसी महत्वपूर्ण मस्तिष्कीय संरचनाएँ आती हैं। इस पूरे स्नायु समुच्चय को उन्होंने आर॰ काम्पलेक्स नाम दिया है। मनोविकारों के लिए इसे ही उत्तरदायी माना है। यह मूलतः घ्राण एवं आत्म रक्षा से सम्बन्धित होता है जो कि पशु पक्षियों की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है। इसमें कही भी किसी प्रकार की विकृति आने से मनुष्य में उत्तेजना परक मनोविकार एवं हिंसक वृत्ति पनपने लगती है।

दूसरी मस्तिष्कीय परत जो केन्द्रीय परत के चारों और होती है- ‘‘लिम्बिक ब्रेन’’ कहलाती है। स्नेह एवं दुलार, रख-रखाव, करुणा, मैत्री, दया, प्रसन्नता, यौन भावना सम्बन्धी केन्द्र यही होते हैं। यह केन्द्र स्नायु तंतुओं के माध्यम से रेप्टीलियन ब्रेन या आर॰ काम्पलेक्स से जुड़ा रहता है। दोनों ही इस तरह परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। एक की विकृति दूसरे को भी अछूता नहीं छोड़ती। तीसरी बाह्य परत जिसे मानवी विशेषता कहा जाता है ‘‘निओकार्टेक्स’’ कहलाती है। विकास क्रम से सबसे अन्त में अवतरित यह उच्चस्तरीय स्नायु कोशों का समूह सबसे अधिक स्थान घेरता है एवं लिखने, पढ़ने, समझने, तथ्यान्वेषण करने, नया चिन्तन करने की मौलिक क्षमता सम्बन्धी केन्द्र यही होते हैं।

स्नायु संरचना इतनी ही समझना पर्याप्त है क्योंकि हमारा मूल विषय है उपेक्षित घ्राण शक्ति एवं उसके विकास की आवश्यकता। वास्तविकता यह है कि आधुनिक विज्ञान ने प्रत्यक्ष क्रिया-कलाप हेतु उत्तरदायी, बौद्धिक कार्य सम्बन्धी मनःशक्ति को तो अधिक महत्व दिया है किन्तु अचेतन जहाँ विकसित होता है, व्यवहार सम्बन्धी जानकारियाँ, प्रवृत्तियाँ व आदतें जहाँ ढलती है, उस मूल केन्द्र को भुला ही दिया है। डा॰ मैक्लीन ने इसी कारण आर॰ काम्पलेक्स पर अत्यधिक जोर देते हुए कहा है कि मनुष्य के व्यवहार की कुँजी इसी अन्तःमस्तिष्क में छुपी पड़ी है।

अचेतन मस्तिष्क की इस परत रेप्टीलियन ब्रेन पर घ्राण शक्ति सर्वाधिक प्रभाव डालती है। गन्ध सम्बन्धी सम्वेदनशील ज्ञान तन्तु नासिका में अवस्थित होते हैं। यहाँ से गन्ध सीधे स्नायु तंतुओं के माध्यम से अग्र मस्तिष्क एवं फिर वहाँ स्थित आल फैक्टरी कार्टेक्स में जाती है। सम्भवतः नाक को जान-बूझकर विधाता ने आंखों व कानों के बीज बनाया ही इसलिये है कि अचेतन सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारियाँ व उत्तेजना सतत् अन्तःमस्तिष्क को मिलती रहे। यही अचेतन व सचेतन को प्रभावित उत्तेजित करता है। इस कारण गन्ध का-नासिका का महत्व कम नहीं माना जाना चाहिये।

पशु पक्षियों में सम्प्रेषण का एकमात्र माध्यम गन्ध होती है। इसलिये उनकी रेप्टीलियन ब्रेन अधिक विकसित होती है व निओकार्टेक्स नहीं के बराबर। आकार भी आर॰ काम्पलेक्स का जीव जंतुओं में अधिक होता है व क्रियाशीलता भी अधिक होती है। इस गन्ध के सहारे ही समस्त जीवधारी अपनी जीवन यात्रा चलाते हैं। हिंसक पशु गन्ध के माध्यम से ही जंगल में अपने शिकार को खोज निकालते हैं। जबकि छोटे जन्तु आत्म-रक्षा हेतु अपनी घ्राण शक्ति का ही सहारा लेते हैं। खतरा देखते ही वे गन्ध के सहारे तुरन्त चौकन्ने हो भाग निकलते हैं। जीव जन्तु बोल पाते नहीं, लिख सकते नहीं किन्तु जंगल में क्षेत्र विभाजन, अधिकार भाव, प्यार-दुलार जैसी वृत्तियों का आदान-प्रदान इसी घ्राण शक्ति के सहारे बन पड़ता है। इस केन्द्र को उत्तेजित करके या नष्ट करके ही पशुओं में हिंसक वृत्ति या आत्मरक्षा वृत्ति विकसित कर वैज्ञानिक यह प्रामाणित करते हैं कि यह केन्द्र मूलतः किन वृत्तियों से सम्बन्धित है। मधुमक्खी, तितली, चींटियां, मछलियाँ, अन्यान्य कृमि-कीटक इस गन्ध की भाषा का ही आश्रय लेकर काम चलाते हैं।

मनुष्य की घ्राणेंद्रियां इस प्रयोजन के लिये नहीं बचाकर रखी गयीं। उसे अन्यान्य विकसित ज्ञानेन्द्रियाँ प्राप्त हैं जिनके माध्यम से चेतन मस्तिष्क पोषण पाता रहता है। लेकिन इससे घ्राणेंद्रियों का महत्व कम नहीं हो जाता। महत्ता की जानकारी के अभाव में उसकी प्रमुखता दब भर गयी है। शरीर विज्ञान का यह सिद्धान्त है कि जिस वस्तु का उपयोग न होता हो, वह क्रमशः निकम्मी, निठल्ली पड़ जाती है। मनुष्य की नासिका की भी लगभग यही दशा हुई है। यह मात्र साँस ग्रहण कर फेफड़ों तक पहुँचाने व प्रश्वास द्वारा निकाल बाहर करने के काम आती है। लेकिन थोड़ा भी सर्दी जुकाम होने पर हमें इसकी महत्ता का पता चलता है। गन्ध शक्ति ऐसे में दब जाती है एवं खाते समय हर चीज स्वाद रहित लगने लगती है। वस्तुतः गन्ध सम्वेदना से ही हमें खाद्य पदार्थों को ग्रहण करने न करने की उत्तेजना मिलती है। इसी आधार पर आहार के प्रति रुचि अरुचि विकसित होती है।

वैज्ञानिकों ने गन्ध की भाषा को मनुष्य की सबसे पुरानी एवं प्रभावशाली भाषा माना है। उनका मत है गन्ध की प्रतिक्रिया फेरोमोन नामक रसायन समूह की शरीर के हारमोन्स से प्रतिक्रिया के फलस्वरूप होती है एवं इसी कारण गन्ध अपने विविध रूपों में पहचानी जाती है। सामान्यतया व्यक्ति न्यूनतम 4000 किस्म की व अधिकतम 10,000 किस्म की गंधों को पहचानने की क्षमता रखते हैं। काया के आन्तरिक रसायन व हारमोन्स तथा बहिरंग की गन्ध व फेरोमोन्स की सम्मिश्रित प्रतिक्रिया ही गन्ध विशेष की छाप मस्तिष्क के आर॰ काम्पलेक्स पर डालती व तद्नुसार अनुभूति देती है।

मनुष्य के जीवन में गन्ध को बड़ा महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इससे न केवल रोगों के निदान में अपितु चिकित्सा में भी मदद मिली है। विभिन्न प्रकार के रोगियों की गन्ध भिन्न-भिन्न होती है। डायबिटीज, गुर्दे की बीमारी पेट में अवरोध इत्यादि रोगों से शरीर से भिन्न-भिन्न गन्ध निकलती हैं जिन्हें योग्य चिकित्सक तुरन्त पहचान लेते हैं व तद्नुसार चिकित्सा की व्यवस्था बनाते हैं। मनुष्य लगातार लाखों रासायनिक संदेश गन्ध के माध्यम से पकड़ता-छोड़ता रहता है जिन्हें सिर्फ हमारी नाक जानती है व जिनका विश्लेषण करने की सामर्थ्य हमारे मध्य मस्तिष्क के गन्ध सम्बन्धी केंद्रों में है।

जार्ज टाऊन यूनिवर्सिटी मेडीकल सेण्टर के शबर्ट हैनकिन के अनुसार गन्ध द्वारा बेचैनी, तनाव से काफी हद तक कम किया जा सकता है। श्रमिकों की कार्य क्षमता बढ़ायी जा सकती है। अपराधियों की अपराधी हिंसक वृत्ति काफी हद तक कम की जाती है। गन्ध शक्ति के माध्यम से मनःस्थिति, परिस्थिति को प्रभावित करने वाली इस विधा को ऑस्फ्रेजियालॉजी नाम दिया गया है एवं इसके आधार पर एक नयी चिकित्सा पद्धति उभर कर आयी है, एरोमा थेरेपी, जिसमें पौधों के सत्व तेलों के बन्ध के प्रयोग द्वारा चिकित्सा की जाती है।

गन्ध विज्ञान की उपेक्षा न हो इसलिये विदेशों में बड़े-बड़े केंद्र इस माध्यम से चिकित्सा के प्रतिपादन हेतु खोले गए हैं। जहाँ तक हमारे राष्ट्र का प्रश्न है सुगंधियों का प्रयोग हर धर्म मत के कर्मकांडों से जुड़ा हुआ है। धूप, अगरबत्ती, हवन के माध्यम से सुगन्धमय वातावरण बनाकर वातावरण तथा उपस्थित व्यक्तियों की चिकित्सा का अपना पूरा विधान है। पारसी लोग पवित्र अग्नि में धूप जलाने की प्रथा मनाते हैं। बाइबिल में भी वर्णित है कि प्रभु ईशु ने मोजेज को स्वर्ण स्तम्भ के ऊपर धूप जलाने का आदेश दिया था। वेद, कुरान, बाइबिल इत्यादि धर्म ग्रंथों में वर्णित विभिन्न प्रकरणों से इस मत की पुष्टि होती है कि सुगंधियों का प्रयोग आदि काल से होता आ रहा है।

प्रकृति में सुगंधियां तेल और रेजिन के रूप में पौधों छिपी पाई जाती है। असली तेल ही वस्तुतः प्रयोग में लाए जाने चाहिए, संश्लेषित नहीं क्योंकि उन्हीं का वाँछित प्रभाव मस्तिष्क पर देखा जाता है। तभी तक पंजीकृत सुगंधियों की संख्या विश्व भर में 2 लाख से भी ऊपर है।

गन्ध शक्ति के प्रयोग द्वारा क्रुद्ध भीड़ को नियन्त्रित करने के अतिरिक्त वाँछित सुगन्ध के प्रयोग से स्मरण शक्ति बढ़ाने, पढ़ाई में अधिक मन लगे, ऐसे प्रयोग भी सफलता पूर्वक किये गये हैं। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य जो डा॰ पाल मैक्लिन ने रखा है वह यह कि इस अध्ययन से मानव की वृत्तियों को बदलने, व्यक्तित्व में आमूल-चूल परिवर्तन न लाने जैसे क्रान्तिकारी प्रयोग गन्ध के माध्यम से सम्भव हैं। इन दिनों हिंसक वृत्ति बढ़ती जा रही है। बढ़ते औद्योगीकरण प्रदूषण व आबादी से व्यक्ति तनाव ग्रस्त हुआ है, चिढ़-चिढ़े स्वभाव का हो गया है। उसके स्वभाव को बदलने हेतु गन्ध शक्ति का प्रयोग बड़ी सफलतापूर्वक किया जा सकता है। कामोद्दीपन जैसी वृत्तियों को उभारने के प्रयोग के स्थान पर यदि गन्ध शक्ति के विधेयात्मक स्वरूप को, जो सदा-सदा से भारतीय अध्यात्मविद् अपनी अग्निहोत्र एवं उपासना-चर्चा में, प्रयुक्त करते आए हैं। उभारा और प्रतिपादित किया जा सके तो उपलब्ध अनेकानेक गंधों से मानव जाति को लाभ दिया जा सकता है। मूल प्रवृत्तियों के आदिम रूप को देवत्व परक मोड़ मिलने पर इस ज्ञानेन्द्रिय की उपलब्धि की सार्थकता भी सिद्ध होगी।


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