प्राण ऊर्जा के विभिन्न पक्षों का वैज्ञानिक विश्लेषण

January 1985

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मनुष्य के शरीर के सूक्ष्म क्रिया-कलापों में से बहुसंख्य के ऊपर से अब पर्दा हट चुका है एवं प्रत्यक्ष क्रिया-कलापों के मूल में कार्य करने वाले ऊर्जा समुच्चय को अब विज्ञान सम्मत माना जाने लगा है। वैज्ञानिक जहाँ हतप्रभ हैं, वह है मनुष्य की परामनोवैज्ञानिक क्षमता विचार ऊर्जा की परोक्ष सामर्थ्य एवं ऐसी असम्भव प्रतीत होने वाली क्रियाएं जिनका प्रत्यक्षतः कोई वैज्ञानिक आधार नहीं दिखाई देता। चूंकि इनका अस्तित्व है, उन्हें नकारा नहीं जा सकता अतः उन्हें भी एक विद्या के अंतर्गत सम्मिलित कर रहस्यों की जाँच पड़ताल जारी है। वैज्ञानिक प्रतिक्रिया को नहीं, प्रक्रिया को देखना चाहते हैं एवं यह जान कर सबको एक सुखद आश्चर्य होना चाहिए कि आज के बीसवीं सदी के आधुनिक युग में गुह्य विद्या पर कार्य करने वाले वैज्ञानिकों की संख्या पदार्थ विज्ञानियों से कुछ कम नहीं, अधिक ही है।

गुह्य समझी जाने वाली अनेकानेक परामनोवैज्ञानिक क्षमताओं में से एक है- परामनश्चिकित्सा अथवा ‘‘सायकिक हीलिंग’’। किसी में यह सामर्थ्य हो सकती है एवं बिना किसी औषधि या स्थूल उपादान के रोगी को ठीक किया जा सकता है, इस पर गत तीन दशकों में काफी कुछ विवाद छिड़ चुका है। ऐसे अनेकों व्यक्तियों की सामर्थ्य पर संदेह व्यक्त करते हुए वैज्ञानिकों ने पाँच पड़ताल की है एवं वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि यह रहस्यमयी विद्या अस्तित्व रखती है। एवं अपवाद स्वरूप कुछ व्यक्तियों में ऐसी विलक्षण सामर्थ्य भी पायी जाती हैं जिससे वे अपनी ऊर्जा का हस्तान्तरण कर रोगियों को ठीक कर देते हैं।

पूर्वार्त्तदर्शन एवं मनोविज्ञान इसे चिकित्सा का रूप न देकर प्राण ऊर्जा के सामर्थ्य सम्पन्न व्यक्ति से अन्यों में स्थानान्तरण की एक दैवी प्रक्रिया मानता है जो अध्यात्म साधना के बलबूते कतिपय योगी महामानवों में विकसित होती देखी जाती है। इस मान्यता के अनुसार चिकित्सा तो इस प्राण-प्रवाह की एक प्रतिक्रिया भर है। यह होती वस्तुतः एक उच्चस्तरीय प्रक्रिया है जिसमें दैवी क्षमता सम्पन्न सिद्ध साधक सुपात्रों को अपनी ऊर्जा से लाभान्वित करते हैं। विशुद्धतः आध्यात्मिक उद्देश्यों के लिए उपलब्ध इस ऊर्जा समुच्चय की एक प्रतिक्रिया पदार्थपरक बहिर्मुखी भी हो सकती है किन्तु वही सब कुछ नहीं है।

इस ऊँची स्थिति तक वैज्ञानिक न तो चिन्तन कर पाये हैं, न वे इसे प्रतिपादित कर पाने की स्थिति में हैं। किन्तु मनश्चिकित्सा, फेथ हीलिंग, सायकिक हीलिंग जैसे पक्षों पर उन्होंने विचार अवश्य किया है व अनेक महत्वपूर्ण निष्कर्ष भी निकाले हैं।

मॉट्रियल की मैक्गिल यूनिवर्सिटी के डा॰ बर्नार्ड ग्राड ने यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि ऐसे व्यक्ति जिनमें यह क्षमता होती है, जब अपने हाथ में रख फ्लास्क के जल को जौ के बीजों पर डालते हैं तो उनमें तुलनात्मक दृष्टि से काफी वृद्धि होती है, इसी जल को रोगियों को पिलाने पर वे ठीक होते देखे जाते हैं। उनका एक महत्वपूर्ण प्रतिपादन यह है कि यदि यही जल किसी अवसाद ग्रस्त मनःस्थिति वाले व्यक्ति द्वारा बीजों या अन्य रोगी पर आरोपित किया जाय तो इसकी प्रतिक्रिया निषेधात्मक होती है। इससे उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि जो भी व्यक्ति ‘‘सायकिक हीलिंग’’ की क्षमता रखता है, उसकी मन स्थिति के अनुरूप ही प्राण-ऊर्जा का स्थानांतरण होता देखा जाता है। यह प्राण ऊर्जा अन्ततः है क्या? इसका उत्तर देते हुए उन्होंने इसे ‘‘एक्स फैक्टर’’ नाम दिया है। यह वह ऊर्जा है जो हर व्यक्ति में उसकी मनःशक्ति के अनुरूप न्यूनाधिक मात्रा में होती है। हीलिंग से लेकर प्रायोगिक परीक्षणों में यह एनर्जी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती देखी जा सकती है। बर्नार्ड ग्राड द्वारा ‘‘सम बायोलॉजीकल इफेक्ट्स ऑफ लेयिंग ऑन हैण्ड्स’’ नाम से जरलन ए.एस.पी. आर. के अप्रैल 1965 में प्रकाशित इस शोध प्रबन्ध में कहा गया है कि ‘हीलर्स’ के हाथ से निकली तीव्र आभायुक्त जिन प्रकाश तरंगों को डा॰ किर्लियन ने अपनी फोटोग्राफी में सेल्युलाइड पर अंकित किया है, वह यही ‘‘एक्स एनर्जी’’ है।

शीला ऑस्ट्रेण्डर एवं लिन श्रोडर अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘साइकिक डिस्कवरीज विहाइन्ड दी आयरन करटेन’’ में लिखते हैं कि प्राण चिकित्सा की प्रक्रिया में चिकित्सक की बायोप्लाज्मिक काया से रोगी को वायोप्लाज्मिक काया में प्राण ऊर्जा स्थानान्तरित होती है। इस प्रक्रिया में जो स्थूल परिवर्तन होते हैं, वे रोग निवारण के रूप में देखे जाते हैं। इस सिद्धान्त के आधार पर वैज्ञानिकों ने बायोप्लाज्मिक बॉडी के कार्य करने की प्रणाली के मॉडल के समानान्तर ऋण आयन्स, विद्युतचुम्बकीय दबाव एवं सतत् कम्पायमान चुम्बकीय क्षेत्र को मिलाकर अनेकों असाध्य व्याधियों हेतु चिकित्सा का एक वैकल्पिक रूप निकाला है जो सम्भवतः आने वाले दिनों में कैंसर, तनाव, अवसाद, मेनिया, मस्तिष्कीय रक्त स्राव जैसे रोगों में कारगर सिद्ध हो सके।

अभी तक स्पर्श द्वारा चिकित्सा को झाड़-फूँक के स्तर की ओझागिरी माना जाता रहा है। किन्तु अब इस सम्बन्ध में प्राप्त वैज्ञानिक जानकारियों से ये मान्यताएँ क्रमशः बदली हैं। मेस्मर द्वारा प्रतिपादित निर्देश चिकित्सा या हैण्ड-पास थेरोपी को लगभग 2 शतक तक उपेक्षा का सामना करना पड़ा लेकिन अब चिकित्सा विज्ञान में इस मान्यता को बल मिल रहा है कि क्षमता सम्पन्न व्यक्तियों के माध्यम से संप्रेषित ऊर्जा प्रवाह अथवा विचारों की शक्ति से चिन्तन एवं शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से दुर्बल व्यक्तियों पर विधेयात्मक प्रभाव डाला जा सकता है।

श्रीमती ओल्गा वॉरेल को एक सायकिक हीलर माना जाता है। वे ‘‘अमेरीकी होलीस्टीक हेल्थ ऐसोसिएशन’’ की सदस्या हैं एवं सभी प्रकार के वैज्ञानिक परीक्षणों के लिए सतत् तैयार रहती हैं। उनका दावा है कि वे स्पर्श मात्र से रोगियों को स्वस्थ कर सकती हैं। अनेकों रोगी उनके पास आकर स्वस्थ होकर भी गए हैं, पर वैज्ञानिक इससे सन्तुष्ट नहीं हुए। वे इस प्रक्रिया को समझना चाहते थे। अटलाण्टा जॉर्जिया के डा॰ राबर्ट॰ ए॰ मिलर ने अपने द्वारा बनाए हुए क्लाउड चेम्बर में श्रीमती वाँरेल के हाथ से निकलने वाले ऊर्जा प्रवाह का परीक्षण करना चाहा। इस चेम्बर में उच्चस्तरीय ऊर्जा युक्त न्क्यूलीयर कणों को देखा व उन्हें फोटोग्राफ किया जा सकता है। उन्होंने एटॉमिक लेबोरेट्रीज की मदद से एक चेम्बर बनाया जो 7 इंच व्यास के एक शीशे के सिलेंडर का बना था। इसकी लम्बाई 5 इंच थी, वह एल्युमीनियम की एक चादर पर फिट किया गया था इसके अन्दर मिथाइल अलकोहल की 1/4 इंच की तह जमाकर पूरी ईकाई को सूखे बर्फ पर रख दिया गया। ऊपर से झांककर देखने के लिये एक खिड़की थी। अल्कोहल के वाष्पीभूत होने से आयन मिश्रित धुएँ से यह चेम्बर भर गया। इस पूरी प्रक्रिया से यह सुनिश्चित हो गया कि इससे होकर गुजरने वाले ऊर्जा विकिरण या आवेश युक्त कण को क्लाउड्स के अन्दर देखा जा सकता है। श्रीमती वॉरेल को क्लाउड चेम्बर के एक ओर बैठा दिया गया एवं रोगी को दूसरी ओर। बिना इस चेम्बर को स्पर्श किए उन्होंने हाथ किनारे रखकर ध्यान एकाग्र किया मानो वे रोगी पर ऊर्जा प्रवाह फेंक रही हों। उनके हाथों के समानान्तर एक तरंग चित्र उस चेम्बर में बनता देखा गया। उन्होंने अपने हाथों को जब 90 डिग्री अंश पर मोड़ा तो तरंगें भी उसी दिशा में मुड़ गयीं। इन्गो स्वान, एम॰ एच॰ टेस्टर, रालिंग थण्डर, हैनरी माडेल (सभी अमेरिका के), विक्टर क्रिवो रोटोव (रशिया), हैरी एडवर्ड्स (इंग्लैंड) एवं जोसेफ पेड्रो डि फ्रेटास उर्फ एरिगो (ब्राजील) ऐसे सायकिक हीलर हैं जिनकी पाश्चात्य जगत में काफी चर्चा है। एरिगो के ऊपर तो अनेकों शोधकर्ता काफी वर्ष खपा चुके किन्तु उनकी दैवी सामर्थ्य का कारण उनकी मृत्यु तक न जान पाए। फिलीप्पीन्स की फेलीसा मकानास एवं जौसेफीना सीमन तथा टोनी एप्गोआ, जोस मर्केडो, रोमी बुगेरीन एव मार्सेलोजीनर की साइकिक हीलर्स की टीम भी वैज्ञानिक जगत में काफी तहलका मचा चुकी है।

उस सूक्ष्म ऊर्जा प्रवाह को, जो चिकित्सा प्रयोजन हेतु सायकिक हीलर्स द्वारा विकिरण के रूप में छोड़ा जाता है, क्या भौतिक शक्ति माना जाए अथवा पूर्वार्त्त गुह्यविज्ञान के अनुसार एक पराभौतिक प्रभामण्डल से निस्सृत प्रवाह माना जाए, इस पर अच्छा, खास विवाद है। इन दिनों यू॰ सी॰ एल॰ ए॰ के डा॰ थेल्मा मॉस एवं स्टेन फोर्ड विश्वविद्यालय के डा॰ टिलर इसी विषय पर शोधरत हैं। अभी तक प्राप्त निष्कर्ष उन्हें परामनोविज्ञान की गुत्थियों में उलझाए हुए हैं। विल्गिंग्टन डेलावेयर की डा॰ एडवर्ड ब्रेम ने “हीलर्स’’ की उंगलियों से निस्सृत विद्युत से गुजरे जल का विश्लेषण कर यह पाया कि सामान्य जल में सौ प्रतिशत हाइड्रोजन अणु संयुक्त होते हैं, जबकि “संस्कारित जल” में 97.04 प्रतिशत हाइड्रोजन बाइब्डिंग थी। इसका अर्थ यह हुआ कि निस्सृत विद्युत निश्चित ही जल की आणविक संरचना को तोड़कर उसे सूक्ष्मीकृत बना देती है। ऊर्जा इस जल से गुजरी है, इसका प्रमाण बदले हुए सरफेस टेन्सन पृष्ठीय तनाव (अर्थात् धरातल पर दबाव) से भी मिलता है। यह एक स्मरणीय तथ्य है कि जब भी यह दबाव कम होता है, जल की रोग निवारक-प्रतिरोधी-भेदक क्षमता बढ़ जाती है। डा॰ मिलर जिनका वर्णन क्लाउड चेम्बर के साथ किया गया था, ने फिशर मॉडल टेन्शियोमीटर का प्रयोग इस प्रयोजन हेतु किया था, जिससे किसी प्रकार की शंका की गुंजाइश नहीं रह जाती।

साइंस डाइजेस्ट (मई 1982) में प्रकाशित एक शोध प्रबन्ध में एक महत्वपूर्ण अध्ययन प्रस्तुत किया है। जिससे इस साइकिक ऊर्जा पर प्रकाश पड़ता है। मेनिन्जर फाडण्डेशन टोपे का कन्सास के जैव मनोविज्ञानी डा॰ एल्मर ग्रीन एवं पेन एण्ड हेल्थ रिहेबिलीटेशन सेंटर विस्कान्सिन के डा॰ सी॰ नारमन ने परामनश्चिकित्सकों के मानवी फिजियालॉजी पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन कर कुछ निष्कर्ष निकाले हैं। लम्बी व्याधि से पीड़ित रोगी जिनके विभिन्न संस्थान रोग ग्रस्त थे, इन प्राण चिकित्सकों के संपर्क में लाये गये। उनके हाथ रखने एवं ध्यानस्थ होने पर रोगियों की हृदय एवं श्वसन दर, मस्तिष्क की विद्युत तरंगें, तापक्रम, त्वचा प्रतिरोधी एवं रोग निरोधी कोषाणुओं में विलक्षण परिवर्तन देखा गया। रोगियों से उनके अनुभवों के विषय में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि उन्हें लगा-मानों दिव्य ऊर्जा प्रभाव उनके अन्दर प्रवेश कर गया हो। किसी-किसी को बिजली के तेज झटके से लगे। इस प्रयोग के बाद 80 प्रतिशत रोगियों के दर्द व अन्य लक्षणों में कमी देखी गयी। कई पूर्णतः रोग मुक्त हो गए।

वस्तुतः यह क्षमता हर मनुष्य में विद्यमान है। दैनंदिन जीवन में हम देखते हैं कि जिस चिकित्सक पर अमुक रोगी का विश्वास होता है वह उसकी दी हुई किसी भी औषधि से आरोग्य लाभ प्राप्त कर लेता है जबकि उसी चिकित्सक पर अन्य रोगी का विश्वास न होने से वही रोग व लक्षण होते हुए भी चिकित्सा कारगर नहीं होती। प्राण विद्युत, संकल्प बल, विश्वास की शक्ति परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्धित है। चाहे उसका प्रयोग रोग निवारण हेतु किया जाय अथवा आत्मबल बढ़ाने हेतु, हर किसी के लिये उसकी प्रचण्ड मात्रा अपने ही अन्दर विद्यमान है। यह बात अलग है कि अपवाद रूप में कुछ में वह अधिक मात्रा में होती व अपने परिणाम प्रत्यक्षतः दिखाती है। महामानवों में यही ऊर्जा भाण्डागार विपुल मात्रा में होता है। स्पर्श, अभिसिंचित जल एवं दृष्टिपात द्वारा भी वे मानव समुदाय में इसे वितरित करते देखे जाते हैं। सायकिक हीलिंग से लेकर इस ऊर्जा वितरण तक हरेक के मूल में एक ही शक्ति काम करती है। वैज्ञानिक उसे कुछ भी रूप दे दें, उसका अस्तित्व तो नकारा नहीं जा सकता।


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